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हबीब तनवीर के अनपढ़ किसानों की अदाकारी देख घबराते थे दिल्ली के कलाकार

हबीब तनवीर के अनपढ़ किसानों की अदाकारी देख घबराते थे दिल्ली के कलाकार

हबीब तनवीर ने नाटकों में हिन्दुस्तानियत भरी. बोलियों का इस्तेमाल किया. छत्तीसगढ़ के अनपढ़ किसानों को दिल्ली के मंच पर खड़ा कर दिया...

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हबीब तनवीर

हबीब तनवीर

जगह लंदन, ऑडिटोरियम खचाखच भरा हुआ. मंच पर भारत के कुछ अनपढ़ किसान और मजदूर नाच-गाकर छत्तीसगढ़ी में डायलॉग बोल रहे थे. नाटक था 'चरनदास चोर'. सूट-बूट वाले दर्शक ख़ामोशी से नाटक देख रहे थे. नाटक ख़त्म हुआ और तालियां शुरू. लंदन के लोग खड़े होकर तालियां बजाए जा रहे थे और हबीब तनवीर काले मोटे फ्रेम का चश्मा चढ़ाए एक कोने में खड़े मुस्कुरा रहे थे. वजह यह कि अग्रेज़ीदां लोगों को छत्तीसगढ़ी का यह नाटक पूरा समझ आया था.

हिंदुस्तान में नाटक तो हो रहे थे, लेकिन उनमें अपनापन नहीं था. मिट्टी की खुश्बू नहीं थी. लोग नाटकों से जुड़ नहीं पा रहे थे. ज़्यादातर विदेशी नाटक हो रहे थे और जो भारतीय नाटक हो रहे थे वो भी विदेशी स्टाइल में परफ़ॉर्म किए जा रहे थे. लेकिन हबीब तनवीर ने नाटकों में हिन्दुस्तानियत भरी. बोलियों का इस्तेमाल किया. छत्तीसगढ़ के अनपढ़ किसानों को दिल्ली के मंच पर खड़ा कर दिया और लोग कहते हैं कि, 'वो लोग इतना ऊंचा गाते थे कि दिल्ली के कलाकारों की हालत ख़राब हो जाती थी.'

हबीब तनवीर के साथ काम कर चुके थियटर के जाने-माने निर्देशक देवेंद्र राज अंकुर याद करते हैं, 'हम लोगों को हर नाटक के लिए सन् 1970 के ज़माने में 10 रुपये मिला करते थे. जिस दिन नाटक परफ़ॉर्म करते, उस दिन सबको 15 रुपये मिलते थे. इतने रुपयों में खाना-पीना भी भरपेट हो जाता था और बियर के पैसे भी बच जाते थे. हम खा-पीकर रात 9 बजे से नाटक की प्रैक्टिस शुरू करते थे, उसके बाद प्रैक्टिस कब तक चलेगी यह हबीब तनवीर ही जानते थे. ख़्याल इतना रखते थे कि रात को वे हर ऐक्टर को टैक्सी से घर छुड़वाते थे. वे बेहतरीन नाटककार के साथ-साथ एक ख़ुशमिज़ाज और मज़ेदार शख्सियत थे.'

हबीब तनवीर ने अपने पूरे कॅरियर के दौरान 3 फ़ेज़ में नाटक किए. एक दिल्ली के ऐक्टर्स के साथ, दूसरा दिल्ली और छत्तीसगढ़ के ऐक्टर्स के साथ और तीसरे फ़ेज़ में उन्होंने सिर्फ छत्तीसगढ़ के कलाकारों के साथ काम किया और इसी के लिए वे जाने जाते हैं. एक ज़माना था कि नज़ीर अकबराबादी के शेरों पर लोग हंसते थे. 'कि भला ककड़ी और लड्डू पर भी कोई शाइरी करता है.' लेकिन जब हबीब तनवीर ने 'आगरा बाज़ार' में नज़ीर के शेरों इस्तेमाल किया तो देखने वालों को नज़ीर की शाइरी से शग़फ़ हो गया.

हबीब तनवीर जर्मनी के नाटककार बर्तोल्त ब्रेख्त से बहुत प्रभावित थे. उनसे मिलने के लिए वे जर्मनी भी गए लेकिन दुर्भाग्यवश तब तक ब्रेख्त साहब दुनिया से जा चुके थे. थियटर और फ़िल्म अभिनेता सुमन वैद्य मानते हैं कि हिन्दुस्तान के थियटर में हबीब तनवीर की कमी आज तक पूरी नहीं हो पाई है.

'हबीब तनवीर म्यूज़िक को भारत की सबसे बड़ी पूंजी मानते थे. उनके नाटकों को देखना लाइव ऑर्केस्ट्रा देखने जैसा होता था जिसमें संगीत होता था, एक दमदार और आम लोगों की बात कहने वाली कहानी भी साथ चलती थी. उनकी लिखावट में मनोरंजन से ज़्यादा मन का रंजन होता था. आप सोचने पर मजबूर हो जाते थे. उनके नाटक के संवाद समाज के निचले पायदान पर खड़े लोगों की आवाज़ थे. ऐसा नाटक जिसे आप इंजॉय भी करते थे और बहुत कुछ सीखते भी. हिन्दुस्तानी रंगमंच का मतलब हबीब तनवीर है.'

हबीब अपने नाम के साथ तख़ल्लुस के तौर पर तनवीर लगाते थे जो उनके नाम के साथ जुड़ गया.

बे-महल है गुफ़्तुगू हैं बे-असर अशआर अभी

ज़िंदगी बे-लुत्फ़ है ना-पुख़्ता हैं अफ़्कार अभी

पूछते रहते हैं ग़ैरों से अभी तक मेरा हाल

आप तक पहुँचे नहीं शायद मिरे अशआर अभी

नैनीताल के मशहूर रंगकर्मी ज़हूर आलम बताते हैं, 'अभी तक भारत में भारतीय नाटक भी विदेशी स्टाइल में हो रहे थे. हबीब तनवीर ने जब पहले नाटक करना शुरू किया तो आलोचकों को बिल्कुल अच्छा नहीं लगा. क्योंकि अभी तक होते आ रहे नाटकों जैसी चमक-धमक नहीं थी. सेट साधारण था. लोगों को समझ नहीं आ रहा था कि वे विदेश से क्या पढ़कर आए हैं. सारे आलोचकों ने सिरे से उनके काम को नकार दिया.'

हालांकि हबीब तनवीर जानते थे कि वे क्या कर रहे हैं. वे अपने नाटक लेकर विदेश गए. दर्शकों ने देखा और जमकर सराहा, उन्हें कुछ नया देखने को मिला था. विदेशी मीडिया ने उनके काम को हाथों-हाथ लिया खूब इंटरव्यू छपे और हबीब तनवीर एक स्थापित कलाकार बन गए. उनके नाटक शत-प्रतिशत देसी हुआ करते थे. उसमें किसी भी चीज़ का अभाव या प्रभाव आपको नज़र नहीं आता. म्यूज़िक और नृत्य से भरपूर उनके नाटकों के देखने का मज़ा ही अलग होता था.

हबीब तनवीर का जन्म 1 सितंबर 1923 को छत्तीसगढ़ के रायपुर में हुआ था. जीवन के अंतिम समय में हबीब तनवीर ने छत्तीसगढ़ के अनपढ़ किसानों के साथ ही काम किया, उन्हें सिखाया और भोपाल में ही रहने लगे. इनके लिखे नाटक आगरा बाज़ार (1954) और चरनदास चोर (1975) हिन्दुस्तानी रंगकर्म के इतिहास में मील का पत्थर हैं. इनका निधन 8 जून, 2009 को मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में हुआ था.

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Tags: Well know writer

FIRST PUBLISHED : September 01, 2018, 07:47 IST