एक दिन सकारेघर पर हमारेमच गया हंगामाकहने लगी बच्चों की मां-“रखना याददस दिन बादयानी एक अप्रेल कोअपनी वर्षगांठ मनाऊंगीमिठाई बाजार से आएगीनमकीन घर में बनाऊंगी
और सुनो!हमारे भैया को दे दो तारवे चार दिन पहले आएंभाभी व अम्मा को साथ लाएंसुख-दुख मेंअपने ही साथ न देंगेतो घर गृहस्थी के काम कैसे चलेंगे
पप्पू की बुआ कोएक दिन पहले पत्र डालनाऔर लिखना-“अकस्मातकल रातवर्षगांठ मनाने की बातहो गई है
तुम न आ सकोगीइस बात का दुख है
तुम्ही सोचो!उनको बुलाकर भी क्या करोगेइस दड़बे मेंकिस-किस को भरोगेवे आएंगी
तो बच्चो को भी लाएंगी
और सुनो,एडवांस की अर्जी दे आनालोगों का क्या हैकहते है-“दारू पीता है।मगर लेडीज कपड़े तो गज़ब के सीता हैपचास बरस की बुढ़ियादिखने लगती है गुड़ियाअब तक खूब बनीआगे नहीं बनूंगीसाड़ी और ब्लाउज नहीं पहनूंगीयुग बदल गया हैफैशन चल गया हैतंग सलवार होरंग व्हाईट होस्लीवलैस कुर्ता होनीचा और टाइट होचोटियों का रिवाज भी हो गया पुरानाआजकल है जूड़ों का जमानाबाजार में बिकते हैंनकली भी असली दिखते हैंएक तुम भी ले आनातैयार ना मिले तो आर्डर दे आनाकपड़े बच्चों के लिए सिलेंगेवर्ना पुराने कपड़ों मेंअपने नहीं, पराए दिखेंगे।”
हम चुपचाप सुन रहे थेचूल्हे में पड़े भुट्टो की तरह भुन रहे थेतड़तड़ाकर बोले-“क्या कहती होइस उम्र में हरकतअजब करती होअरे, वर्षगांठ मनानी हैतो बच्चों की मनाओअपने आप का तमाशा न बनाओलोग मजाक उड़ाएंगेतुम्हारा क्या बिगड़ेगामुझे चिढ़ाएंगेमुझे ज्ञात हैसन छयालीस की बात हैतुम जन्मी थीं मार्च मेंतुम्हारे बाप थे जेल मेंऔर तुम वर्षगांठ मना रही हो अप्रेल मेंफिर तंग कपड़ों में, उम्रबच्ची नहीं हो जातीनख़रे दिखाने से बुढ़ियाबच्ची नहीं हो जाती।”
वे बन्दूक से निकली गोली की तरहछूटींवियतनाम परअमरीकी बम-सी फूटीं-“तुम भी कोई आदमी होमेरा मजाक उड़ाते होअपनी ही औरत कोबुढ़िया बुलाते होअरे, औरों को देखोशादी के बादडालकर हाथों में हाथमजे से घूमती हैंसड़कों परबागों मेंसाइकल पर
तांगों मेंमगर यहां
ऐसे भाग्य कहांपड़ोस के गुप्ता जी के बच्चे हैंमगर तुमसे अच्छे हैंमजाल है जो कह देंऔरत से आधी बातपलकों पर बिठाये रहते हैंदिन-रातऔर एक तुम होजब देखोमेरे मैके वालो की पगड़ी उछालते होसारी दुनिया मेंतुम्हीं तो साख वाले होबड़ी नाक वाले होबाकी सब तो नकटे हैंजब हमारे बाप जेल में थेतो तुम वहीं थे नजेलर तुम्हीं थे ननब्ज़ पहचानती हूंअच्छे, अच्छों कीखूब चुप रही, अब बताऊंगीदेखती हूं कौन रोकता हैवर्षगांठ अप्रेल मेंमनाऊंगी, मनाऊंगीजरूर-जरूर मनाऊंगी।
हम तुरुप से कटे नहले की तरहखड़े-खड़े कांप रहे थेअपना पौरुष नाप रहे थेअपनी शक्ती जान गएवर्षगांठ मनाने की बातचुपचाप मान गएतार दे दिया पूनासलहज, सास और सालेजान-पहचान वालेलगा गए चूनापांच सौ का माल उड़ा गएहाथी चवन्नी कादस पैसे का सुग्गाअठन्नी का डमरूपांच पैसे का फुग्गातोहफे में पकड़ा गएउम्मीद थी अंगूठी कीअंगूठा दिखा गएहमारी उनका पारा ही चढ़ा गएबोलीं-“भुक्खड़ हैं भुक्खड़चने बेचते हैंचनेजरा-सा मुंह छुआऔर दौड़ पड़े खानेअरे, आदमी होतो एटीकेट जानेंअब हम भी उखड़ गएआखिर आदमी हैंबिगड़ हए-“कार्ड पप्पू ने छपवए थेतुमने बंटवाए थे।”तभी मुन्ना हमारे हाथ का फुग्गा ले गयानिमंत्रण-पत्र हाथों में दे गयापढ़ते ही कार्डसमझ में आ गई सारी बातछपना चहिए था-“जन्म-दिवस है देवी का।”मगर छप गया था-“बेबी का।”दूसरे कमरे मेंश्रीमती जीपप्पू को पीट रहीं थींबेतहशा चीख रही थीं-“स्कूल जाता है, स्कूल।”बच्चे चिल्ला रहे थे-“अप्रेल फूल, अप्रेल फूल।”और चुन्नू डमरू बजाकरमुन्नी को नचा रहा थावर्षगांठ के लड्डू पचा रहा था।
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