(विमल कुमार/ Vimal Kumar)
Krishna Sobti Death Anniversary: हिंदी की प्रख्यात लेखिका कृष्णा सोबती की आज चौथी पुण्यतिथि है. चार साल पहले 25 जनवरी, 2019 को वह इस दुनिया को अलविदा कह गई थीं. प्रसिद्ध लेखक कवि गिरधर राठी द्वारा लिखित जीवनी भी वह नहीं देख पाई थीं क्योंकि वह उनके निधन के बाद आई.
कृष्णा सोबती की जीवनी में उनके प्रेम प्रसंगों की तरफ संकेत हैं जिसको लेकर हिंदी लेखिकाओं ने आपत्ति जताई थी कि लेखिका के निधन के बाद उनके प्रेम-प्रसंगों का जिक्र क्यों किया जाए. प्रेम उनका निजी मामला है उसमें ताक-झांक क्यों की जाए. लेकिन कृष्णा सोबती एक बिंदास लेखिका थीं. वह प्रेम, सेक्सुअलिटी की चर्चा को बुरा नहीं मानती थीं तथा इरोटिक और अश्लीलता को तूल दिए जाने के पक्ष में नहीं थीं. यह भी सच है कि वह अश्लीलता के पक्ष में नहीं थीं पर स्त्री की यौनिकता के चित्रण के पक्ष में थीं. तभी तो उन्होंने “मित्रो मरजानी” जैसी कृति लिखी.
“मित्रो मरजानी” अपने समय की सबसे बोल्ड रचना थी. इससे पहले जैनेंद्र की एक स्त्री पात्र उपन्यास में निर्वस्त्र हुई थी तब बड़ा बवेला मचा था. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उसकी प्रतियां जलाई गई थीं लेकिन “मित्रो मरजानी” की यौनिकता ने तो साहित्य में हंगामा खड़ा कर दिया था. अब हिंदी समाज ने उस पात्र को न केवल स्वीकृति दे दी बल्कि वह किरदार अमर हो गया. इस पुस्तक पर आधारित नाटक के इतने मंचन हुए कि उस किरदार का व्यक्तित्व खिलता और खुलता गया.
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18 फरवरी, 1925 को तत्कालीन पाकिस्तान के गुजरात में जन्मी कृष्णा सोबती ने अपनी लम्बी साहित्यिक यात्रा में भाषा शिल्प और कथ्य में प्रयोग किया. जिस तरह रेणु ने “मैला आँचल” में एक नई भाषा दी उसी तरह उन्होंने “जिंदगीनामा” में एक नई आंचलिक भाषा दी. “जिंदगीनामा” उन्हें इतना प्रिय था कि वह इसके शीर्षक की रक्षा के लिए अमृता प्रीतम से भिड़ गईं. सालों मुकदमा चला. कृष्णा जी ने अपने दो फ्लैट बेचकर लाखों रुपये खर्च कर डाले मुकदमे के लिए.
कृष्णा सोबती ने ‘मित्रो मरजानी’ और ‘जिंदगीनामा’ के अलावा ‘यारों के यार’, ‘सूरजमुखी अँधेरे के’, ‘ऐ लड़की’, ‘दिलो-दानिश , ‘चन्ना’, ‘हम हशमत’, जैसी नायाब कृतियां दीं. उनकी रचनात्मकता ने हिंदी साहित्य समाज में बौद्धिक उत्तेजना, विमर्श, सामाजिक और नैतिक बहसें पैदा कीं.
ज्ञानपीठ पुरस्कार (Jnanpith Award), साहित्य अकादेमी पुरस्कार (Sahitya Akademi Award) और साहित्य अकादमी की फेलो रहीं कृष्णा सोबती को हर सम्मान मिला. लेकिन उन्होंने हिंदी अकादमी दिल्ली का ‘शलाका सम्मान’ और भारत सरकार का ‘पद्मभूषण’ लेने से मना भी कर दिया था.
कृष्णा सोबती हर तरह की स्वतंत्रता की पक्षधर थीं. धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की समर्थक. विभाजन और विस्थापन का दर्द उनकी रचनाओं में था. यशपाल और भीष्म साहनी के बाद वह तीसरी लेखक हैं जिनकी रचनाओं में यह दर्द छलकता है. उनका मानना था कि स्त्रियों को अब तक पुरुषों की नजर से ही देखा गया है और उन्हीं की सोच के मुताबिक पेश किया गया है. अब वह स्वयं अपने-आपको देख रही हैं और एक नए नजरिए से पुरुष को भी. किस तरह पुरुष ने अब तक स्त्री देह को देखा, उसकी तारीफ की और अपने लेखन में चित्रित किया है. अब स्त्री को यही अधिकार क्यों नहीं दिया जा सकता? ये दोहरे मानदंड किसलिए? मानव साहित्य में दो भाषाएं और दो धारणाएं क्यों होनी चाहिए?
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कृष्णा सोबती बहुत स्वाभिमानी लेखिका थीं. लेखकीय स्वाभिमान के लिए वह हमेशा लड़ती रहीं और सत्ता के सामने कभी शीश नहीं झुकाया. उनका व्यक्तितव भी अनोखा था. 60 वर्ष की उम्र में उन्होंने अपने मित्र और डोगरी लेखक शिवनाथ जी से विवाह किया. यह विरल उदाहरण है.
कृष्णा सोबती के निधन के बाद उनका पुनर्मूल्यांकन होना शुरू हो गया है और उनके बारे में अब कई किताबें सामने आ गई हैं. कृष्णा जी का कहना था कि क्या बाजार ही कृति के साहित्यिक मानदंडों को तय करेगा या राजनीति?
उनका यह भी कहना था कि भारतीय साहित्यकार सिनेमा, टीवी, रेडियो जैसे प्रचार के साधनों और विज्ञापन के शोर तले अपनी बौद्धिक अस्मिता को कब तक बरक़रार रख सकेंगे! राजनीति के वर्चस्व के निर्देशों को क्या साहित्य अपने मूल मंत्र में कस सकेगा?
सोबती सोबती आज भले न हों पर उनकी रचनाएं उनका साहसिक बेबाक व्यक्तित्व जिंदा रहेगा.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi उत्तरदायी नहीं है.)
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