‘शहतूत की शाख पर बैठी मीनाबुनती है रेशम के धागेलम्हा-लम्हा खोल रही हैपत्ता-पत्ता बीन रही हैअपने ही धागों के कैदीरेशम की यह शायर एक दिनअपने ही धागों में घुट कर मर जाएगी।’
गुलजार ने मीना कुमारी का पोट्रेट नज्म करके दिया था. पढ़कर हँस पड़ी थीं. कहा था- जानते हो न, वे धागे क्या हैं? उन्हें प्यार कहते हैं. मुझे तो प्यार से प्यार है. प्यार के एहसास से प्यार है. प्यार के नाम से प्यार है. इतना प्यार कोई अपने तन से लिपटा कर मर सके तो और क्या चाहिए?
मीना कुमारी अदाकारी के मजमून पर लिखी एक किताब थी, जिसका आज की व आने वाले कल की, हर अदाकारा के लिए पढ़ लेना और कुछ सीख जाना जरूरी है. निजी जिंदगी में मीना कुमारी ने जो गलतियां की वो भी एक खुली किताब ही है. इसका भी पढ़ लेना और कुछ लेना जरूरी है.
प्यार करने की कला से प्यार करने वाली मीना कुमारी को बदले में क्या मिला? उसके नाम का फायदा उठाकर लोग अपनी राह बनाकर आगे बढ़ गए, वह अपने के लिए कोई रास्ता नही बना सकी. गम के किसी क्षण में उसने गम डुबाने के लिए प्याला उठाया तो ताज्जुब क्या? किसी ने उसे नहीं बताया कि शराब ने आज तक कोई जख्म नहीं भरा है. ‘बैजू बावरा’ फिल्म में अभिनय के लिए पहला फिल्म फेयर पुरस्कार पाने वाली मीना कुमारी को मीना कुमारी को ‘परिणीता’ फिल्म में त्यागमयी एक मर्मभेदी भूमिका के लिए ट्रेजिडी क्वीन का खिताब मिला. कमाल अमरोही बदनाम हुए थे कि उन्होंने उसको बहुत तकलीफ पहुंचाई थी. पर कमाल ने मीना कुमारी के अभिनय के लिए कहा था कि किरदार को समझने की काबलियत उनमें इतनी थी जितनी बहुत कम आर्टिस्टों में होती है. हिन्दुस्तानी औरत का तो वे जैसे ‘सिंबल’ ही बन गयी थीं. यह वजह थी कि उनकी मौत पर हर घर की औरत की आंखों में आंसू आ गए फिर वह चाहे मां थी, बहन थी या बेटी. इतना ऊंचा दर्जा किसी को ही हासिल होता है.
राह देखा करेंगे सदियों तक
फिल्म जगत की सुप्रसिद्ध अभिनेत्री मीना कुमारी का स्मरण आते ही मन-मस्तिष्क में एक छह वर्ष की अबोध बालिका घूमने लगती है, जिसे भूख की खातिर माता-पिता ने उसके हाथों से खिलौने छीनकर स्टूडियो की तेज चमकदार रोशनियों के बीच झुलसने के लिए झौंक दिया था. उसने सोचा था कि समय ठीक होने पर वह भी अन्य बच्चों की तरह स्कूल जाएगी. अफसोस उसका ख्याल सिर्फ ख्याल बनकर ही रह गया. उस अबोध बालिका ने तेज रोशनियों के बीच ही चालीस मील लंबी मौत का सफर तय किया और ‘ट्रेजडी क्वीन ऑफ इंडिया’ का खिताब भी पाया.
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पिता अलीबख्श ने उसे महजबीन नाम दिया था. उस बेबी महजबीन को फिल्म ‘फर्ज ए वतन’ के निर्माता ने एक नया फिल्मी नाम मीना कुमारी दे दिया. मीना कुमारी ने अपने फिल्मी सफर में कला की समूची सीमा को उलांघ दिया और अपने अभिनय के लिए पुरस्कार, सम्मान, दौलत और सिने दर्शकों का प्यार पाया, वहीं दूसरी ओर अपनों की खोज में मानसिक पीड़ा, मन की घुटन के दर्दीले घाव, आंसू और अंत में एकाकी जीवन उन्हें मिला. लेकिन बहुमुखी प्रतिभा की धनी मीना ने सभी को कुछ अच्छा ही दिया. मीना कुमारी ने जिससे प्यार किया, उसने उन्हें घृणा दी, जिस पर विश्वास किया, उसने उन्हें धोखा दिया. आखिर गम को भुलाने के लिए उन्होंने शराब का दामन थाम लिया और कैंसर से ग्रस्त होकर मात्र चालीस वर्ष की उम्र में मौत को गले लगा लिया था.
वैवाहिक जीवन एक दुख भरी दास्तान
मीना कुमारी का वैवाहिक जीवन एक दुख भरी दास्तान है. कमाल अमरोही और मीना कुमारी को ‘दायरा’ फिल्म एक-दूसरे के करीब ले आई थी. कमाल अमरोही विवाहित थे इसके बावजूद मीना ने उनसे विवाह किया. उनका विवाहित जीवन दुख की दास्तान बना. कमाल अमरोही ने उन्हें सोने का अंडा देने वाली मुर्गी समझा, उनको अपने नियंत्रण में रखना शुरू कर दिया. उनकी दौलत के साथ ही किस-किस फिल्म में काम करना है किस में नहीं, इसका निर्णय भी वह स्वयं लेने लगे थे. इतना ही नहीं कमाल अमरोही के सेक्रेटरी ने ‘पिंजरे के पंछी’ फिल्म के सैट के दौरान मारपीट तक भी की. मीना कुमारी ने कमाल अमरोही का घर छोड़ दिया था जिससे उनकी फिल्म ‘पाकीजा’ में भी एक व्यवधान आ गया था. अभिनेता सुनील दत्त तथा नरगिस से लेकर फिल्म इंडस्ट्रीज की तमाम हस्तियों के समझाने पर ‘पाकीजा’ फिल्म की शूटिंग के लिए तैयार हुई थीं. चैदह वर्ष बाद फिल्म की शूटिंग पुनः शुरू हुई. तब तक फिल्म के संगीतकार गुलाम अली की भी मृत्यु हो गई थी. अशोक कुमार फिल्म के नायक थे. उनकी भूमिका को राजकुमार को दिया गया था. फिल्म को बदले हुए परिवेश से जोड़ने केलिए राजकुमार नबाब खानदान से संबंधित होने के साथ ही वन विभाग का रेंजर भी दिखाया गया था. मीना को समर्पित यह फिल्म कमाल अमरोही ने उनकी दौलत से ही बनानी शुरू की थी. मीना की मौत पहले फिल्म तो रिलीज हो गई थी. पर फिल्म ने सफलता की गति उनकी मृत्यु के बाद पकड़ी थी. सही और सच्चे अर्थों में इस देश के भावुक दर्शकों के द्वारा अपनी प्रिय अभिनेत्री को दी गई एक श्रद्धांजलि भी थी, जिसने फिल्म के लिए अपार दौलत एकत्र कर दी. उन्होंने जीते जी लोगों की सहायता तो की ही पर मौत के बाद इस फिल्म से इतनी दौलत दी कि कमाल अमरोही, धर्मेंद्र और हेमामालिनी को लेकर‘रजिया सुल्तान’ जैसी भव्य फिल्म का निर्माण कर सके जो भले ही फ्लॉप साबित हुई.
उल्लेखनीय यह भी है कि ‘पाकीजा’ के लिए उन्होंने बीमारी और बुखार के बीच शूटिंग ही नहीं की बल्कि मणिपुरी नृत्य भी सीखा. इस फिल्म की डबल रोल की भूमिका (मां-बेटी) में एक अंतर रखने के लिए आखों में नीले रंग के कॉन्टेक्ट लेंस को भी लगाया गया था. लेंस ठीक ने लगने के कारण आंखों की रोशनी को भी खतरा पैदा हो गया था. कमाल अमरोही ने एक बार यह भी कहा था कि इस अंतर क्यों न हटा दिया जाए, इस पर मीना का जवाब था कि कॉन्टेक्ट लेंस अब सही तो लग गए हैं और मैं अपने खातिर अदीब को मरने नहीं दूंगी. मीना की जिद के कारण ही अंतर फिल्म में देखने को मिलता है. विडंबना यह भी है कि अपनी बीमारी के कारण इस फिल्म को खुद देख भी नहीं न सकीं और दुनिया से कूच कर गईं. यह फिल्म उनकी यादगार फिल्म बनी.
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इसी तरह से ‘साहिब बीबी और गुलाम’ की भी एक कहानी है जिससे यह साबित होता है कि मीना कुमारी अभिनय और कला के लिए कितनी समर्पित थीं. गुरुदत्त इस फिल्म के लिए जब मीना कुमारी के पास गए तो एक बारगी मीना ने साफ इन्कार करते हुए कहा था कि पर्दे पर मैं शराब कैसे पी सकती हूं. भारतीय दर्शकों मैं मेरी इमेज से तो आप परचित हैं. गुरुदत्त के चले जाने के बाद मीना ने सोचा कि गुरुदत्त जैसे संजीदा और प्रतिभाशाली निर्माता और निर्देशक मेरे पास ही क्यों आए? मीना ने बिमल मित्र के उपन्यास ‘साहिब, बीबी और गुलाम’ को पढ़ा जिसको आधार बना कर फिल्म का निर्माण होना था. उपन्यास को पढ़ने के बाद मीना कुमारी ने तुरंत ही गुरुदत्त को फोन किया और कहा कि ‘छोटी बहू’ की भूमिका के लिए किसी अन्य अभिनेत्री को चुन न लिया हो तो मैं यह करने को तैयार हूं. गुरुदत्त ने उन्हें बताया कि आपके इन्कार के बाद सुचित्रा सेन ही मुझे उपयुक्त लगीं. पर अभी मेरी उनसे बात नहीं हुई है. मीना ने यह भी कहा कि डेट्स के लिए आपको कमाल अमरोही से मिलना होगा. कमाल अमरोही ने तमाम फिल्मों की शूटिंग का हवाला देते हुए फिल्म में व्यवधान उत्पन्न करना चाहा. आखिर तय हुआ कि मीना पर फिल्माए जाने वाले पूरे शॉट्स को एक साथ ही शूट करना होगा. गुरुदत्त ने ऐसा ही किया तब फिल्म का निर्माण संभव हो सका. मीना इस फिल्म में बार-बार रोने के बहुत से शॉट्स में सचमुच में रोने लगने थीं. शराब की भूमिका को करने वाले शॉट्स तो थे ही फिल्म में. पर मीना कुमारी सचमुच में ही शराब पीकर आ जाती थीं. फिल्म की शूटिंग में व्यवधान आता था. वैसे तो निर्देशक उनकी इमेज जैसी ही भूमिका उन्हें देते रहे हैं लेकिन ‘साहिब, बीबी और गुलाम’ फिल्म उनकी इमेज के साथ ही जीवन के जैसी ही थी. जिसमें पत्नी अपना व्रत तभी तोड़ेगी जब पति के चरणों की धूल अपने माथे से लगा लेगी. और पति महोदय वेश्या के कोठे पर शराब पीकर पड़े हुए हैं. पति एक शर्त पर घर रहने को तैयार होता है कि वह भी शराब पिये. आज भी भारतीय समाज में पति परमेश्वर ही माना जा रहा है तब अठाहरवीं सदी की सामंती समाज की महिला पति के आदेश कैसे न मानती? फिल्म में नायिका वेश्या घर पति न जाए, इस प्रलोभन के कारण भगवान की मूर्ति के सामने क्षमा मांगते हुए स्पष्ट होकर कहती है कि पति के आदेश के कारण शराब पीने की इजाजत दीजिए. यह तो इस फिल्म की कुछ बानगी है. मीना कुमारी ने आदर्श पतिव्रता ‘छोटी बहू’ के उस किरदार को अमर कर दिया. आज मीना कुमारी दुनिया में नहीं है पर ‘छोटी बहू’ आज भी जिंदा है जिसे फिल्म में उसका जेठ चरित्रहीन होने के शक में हवेली में ही जिंदा ही दफन करा देता है. मीना कुमारी के समूचे फिल्मी जीवन में कहा जाए कि किसी एक ही फिल्म का नाम बताया जाए कि जिसे विश्वपटल पर अभिनय के दृष्टि से श्रेष्ठ फिल्म कहा जा सके तो ‘साहिब, बीबी और गुलाम’ का नाम लिया जा सकता है.
कमाल अमरोही से अलग होने के बाद उन्होंने बाहर प्यार पाना चाहा, तब धर्मेद्र नए थे और मीना एक स्टार. ‘फूल और पत्थर’ फिल्म से मीना ने उन्हें एक राह दिखाई. उनको करियर मिल गया. मीना कुमारी ने धर्मेन्द्र के साथ कई फिल्मों का अनुबंध किया था. धर्मेन्द्र एक स्टार बन गए. बाद में धर्मेंद्र ने भी उनसे मिलना छोड़ दिया था. भारतीय समाज में पति की बनाई ‘लक्ष्मण रेखा’ को लांघने का साहस करना एक दुस्साहस ही माना जाता रहा है. मीना कुमारी ने अपने एक शुभचिंतक से कहा था कि अब ये ज्यादतियां और पाबंदियां बर्दाश्त नहीं होती हैं. अब सब्र का पैमाना भर चुका है. तब उस मित्र ने सलाह दी थी कि भारतीय नारी पति के घर में सुरक्षित है. आप कमाल साहब का घर न छोड़ियेगा. पर मीना ने परंपराओं और आदर्शों की उन रेखाओं को उलांघ दिया था. मीना कुमारी के हाथों सिर्फ बदनामी आई. पितृसत्ता के इस समाज में पुरुष वर्ग के कपड़े सर्वथा उजले ही रहते हैं.
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मीना कुमारी पर जब भी कुछ लिखने बैठता हूं तो न जाने क्यों रग-रग में एक खट्टा, मीठा, फीका सा तेज दर्द दौड़ने लगता है. आज भी वह दर्द महसूस कर रहा हूं. मुझे याद आ रहा है वह दिन जब मीना कुमारी की मौत के खामोश सन्नाटे को अपने इर्द-गिर्द लिए बैठा था तब फिल्मों की शौकीन मेरा मां ने तंज कसा था कि पिछले जन्म में क्या मीना कुमारी तेरी सास थी. यह बताना आवश्यक समझता हूं उस समय मेरी उम्र बीस वर्ष थी और मैं बी. एस-सी का एक छात्र था. उस समय तो मैं समझ नहीं पाया था कि रिश्ता अगर पिछले जन्म से ही जोड़ना था तो मीना को मेरी बहन या मां क्यों नहीं बनाया गया था. सास ही क्यों? तब उस सवाल का जवाब मुझे मिला नहीं था पर आज लगता है कि परंपराओं और आदर्शों में कैद कोई भी औरत भला ऐसी औरत को मां या बहन का दर्जा कैसे दे सकती है जिसने अपने पति को छोड़ा हो जिसके रिश्ते कई मर्दों से जुड़े होने की खबरें अखबारों और पत्रिकाओं में छप रही हों.
बात किसी भी जन्म की क्यों न हो. पर्दे वाली मीना कुमारी को तो सभी ने सम्मान दिया और अपना फेविरेट कहा. उसकी जिंदगी के प्रति भी सहानुभूति दिखाई. फिल्मी मीना कुमारी और वास्तविक मीना कुमारी के बीच खाई उनके जीवन एक बहुत बड़ी ट्रेजिडी थी. मीना की जिंदगी को गमों ने संवारा था. एक ओर भारतीय मां, बहन, बेटी, बहू, पत्नी के चरित्रों को विभिन्न फिल्मों में सजीव कर पर्दे वाली मीना कुमारी हर एक संवेदना से जुड़ती रही है और लाखों को अपना प्रशंसक बनाया. इसके बावजूद दूसरी ओर वास्तविक जिंदगी जीने वाली मीना कुमारी सच्चे प्यार, एक अच्छी औरत के खिताब के लिए तरसती रही. एक तरफ प्रशंसा, सम्मान, पुरस्कार और दौलत का अंबार तो दूसरी ओर बचपन, जीवन, शायरी, वसीयत और लाश को दफनाने को लेकर छीछालेदर. मीना को किसी ने सम्मानित तबायफ तो किसी ने एक विक्षिप्त महिला की संज्ञा दी. मीना कुमारी पर निकलने वाले ‘माधुरी’ विशेषांक की काला बाजारी हुई. मौत के बाद सिनेमा वालों ने उनकी फ्लॉप हो या जुबली फिल्म को एक अविस्मरणीय और यादगार फिल्म कहकर हाउस फुल की बोर्ड की तख्ती टांग कर टिकटों की ब्लैक में बिक्री कर पैसा बटोरा. उनको जीते जी लूटने वालों का तो उंगलियों पर गिना जा सकता है पर कफन को बेचने बालों को गिनना बहुत ही मुश्किल है. मीना अपने करीब आए तमाम लोगों में गुलजार को अपना अच्छा मित्र मानती थीं. लोग कहते हैं सफल अभिनेत्री होने के कारण उनका उर्दू शायरा का रूप ख्याति नहीं पा सका. मीना ने अपनी निजी डायरी के अलावा अन्य लेखन सामग्री गुलजार का सौंप दी थी. उन्होंने उन पर एक नज्म और कहानी भी लिखी थी. मीना कुमारी की जिंदगी पर कई किताबें लिखी गईं. उनके जीवन को आधार बनाकर एक उपन्यास भी प्रकाशित हुआ है. उनकी शायरी की भी पुस्तक प्रकााशित हुई थी. गुलजार के निर्देशन बनी फिल्म ‘मेरे अपने’ में उन्होंने काम भी किया था.
मीना सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री ही नहीं, बल्कि महान इनसान भी थीं. अनाथालय में दान देने के अलावा बहुत से गरीब, अनाथ बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का भार उन्होंने अपने ऊपर ले रखा था. मीना कुमारी ने अपनी मौत के पहले अपनी सभी फिल्मों की शूटिंग पूरी कर दी थी. सावन कुमार टाक को भी उन्होंने पैसा दिया था ताकि वे अपनी फिल्म ‘गोमती के किनारे’ पूरी कर लें. उनका छह साल की उम्र में ‘लेदर फेस’ फिल्म से काम करने का सिलसिला चालीस वर्ष की उम्र में ‘गोमती के किनारे’ फिल्म पर थम गया. उन्होंने फिल्मों के माध्यम से लगातार छत्तीस वर्ष कला की सेवा की थी.
मीना कुमारी को बीमारी के दौरान देखरेख कर रही बड़ी बहन खुर्शीद ने कहा था कि महजबीन मैं तुझसे पहले मरूंगी. यह सुन कर छोटी बहन मधु बोली कि नहीं मैं पहले मरूंगी. दोनों बहनों की बात पर जवाब देते हुए मीना बोलीं- ‘तुम दोनों बाल-बच्चे दार हो. इसलिए तुम दोनों का जिंदा रहना बहुत जरूरी है. मेरा कौन है इस दुनिया में और मैंने तो पहले से ही मक्का से अपना कफन मंगा रखा है.’
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मीना कुमारी की मौत को एक लंबा अरसा बीत चुका है, पर वे आज भी दर्शकों जेहन में एक संवेदना के साथ हैं. कब्र में सोई मीना का एक और रूप लोगों के सामने उभरकर आया- एक भाव प्रवीण शायरा.
मीना कुमारी की शायरी
यूं मीना कुमारी की व्यक्तिगत जिंदगी को देखा जाए तो निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि उनकी जिन्दगी ही उनकी शायरी है. कहीं-कहीं अपवाद के रूप में उनकी शायरी में दार्शनिकता झलकती है, जहां बरबस भारत कोकिला सरोजनी नायडू की याद आती है.‘मुहब्बत’ के लिए उन्होंने लिखा है-मुहब्बत कौसे-कुज्जह की तरह हैकायनात के एक किनारे से दूसरे किनारे तक तनी हुई हैऔर इसके दोनों किनारे दर्द के अथाह समुन्दर में डूबे हैं।
मीना को दौलत और शोहरत से अधिक इंसानी जजबातों से लगाव था. उन्होंने अपनी सवार्धिक लोक प्रिय नज्म ‘खाली दूकान’ में लिखा है-शौहरत के ये कागजी फूल, और दौलत की ये मोमी गुड़ियाये वो चीजें नहीं जिन्हें में खरीदना चाहूं।
दर्द, वेदना और करुणा से भरी मीना की शायरी में जिन्दगी के प्रति घोर निराशा झलकती है. पर इसकी जिन्दगी के प्रति उन्होंने कभी भी आक्रोश और विद्रोह नहीं झलकता है. इसलिए एक ठंडापन उनकी शायरी में दीखता है, जो उनकी जिन्दगी में था. उन्होंने एक जगह लिखा है-टुकड़े-टुकड़े दिन बीता, धज्जी-धज्जी रात मिलीजिसका जितना आंचल था उतनी ही सौगात मिली।
मीना कुमारी से जो बन सका उन्होंने दूसरों के लिए किया. धर्मेंद्र को अभिनय का वरदान, गुलजार को शायराना अंदाज, रिश्तेदारों को आर्थिक सहायता आदि इसके गवाह हैं. उनकी दरियादिली के ऐसे तमाम नमूने हैं, लेकिन परिणामस्वरूप उन्हें क्या हासिल हुआ? उन्हें लोगों ने क्या दिया. उन्हीं के शब्दों में-कहां अब इस गम से घबरा कर जाऊंकि यह गम तुम्हारी वसीयत है मुझको।
सिर्फ इतना ही नहीं उपकार के बदले उन्हें बदनामी भी दी. तभी तो उन्होंने स्वयं ही लिखा है-मैंने चाहा कि अंधेरों को उजाला बख्शूंलोग समझे कि उजाले में अंधेरा फैंका।बदनामी के जख्मों को उन्होंने सिर से लगाया था. उन्होंने एक जगह लिखा है-नाज तेरे जख्मी हाथों जो भी किया अच्छा कियातूने सबकी मांग सजाई हर इक का शृंगार किया।अपार ख्याति और सफलता पाने वाली मीना जिंदगी के प्रति इतनी निराश हो गई थीं कि उन्होंने आत्महत्या तक करने का प्रयास किया था. उन्होंने अपनी एक नज्म ‘गम की आवाज’ में लिखा है-गम की तलाश कितनी आसान हैआसमान तले बसने वाला हर जिन्दगी से ज्यादा इंसान गमगीन हैयह चहचहाते हुए परिंदेलहलहाते हुए फूलअपनी मुख्तार से जिन्दगी में इतने गमगीन तो नहीं किखुदकशी कर लें।
मीना कुमारी के लाखों प्रशंसक थे, लेकिन उन्हें अकेलेपन का अहसास लगातार रहता था. उन्हीं के शब्दों में-चांद तन्हा है, आस्मा तन्हा है,दिल मिला है कहां कहां तन्हा।जिंदगी क्या इसी को कहते हैंजिस्म तन्हा है और जां तन्हा।
प्रेम में निरंतर असफलता ने मीना कुमारी को निराशा के द्वार पर पहुंचा दिया था. उन्हें गमगीम और मायूस बना दिया था. इसकी बानगी उनकी इस रचना में देखी जा सकती है-बस चलता तो इस दिल को समझातेहम भी न समझे दिल भी न समझाकैसी ठोकर खाई हैअब हम हैं और जीते जी की दर्द भरी तन्हाई हैमीना कुमारी संवेदनाओं का समूचा सागर थीं. पर वे तन्हा ही सागर के सामीबद्ध किनारों से टकराती रहती थीं. उन्हें किसी ने नहीं समझा, किसी ने नहीं जाना –सबने देखा है मेरा हंसना मगर,किसने देखी है मेरे दिल की तड़प।
मीना कुमारी ने अपूर्व साहस था. वह कठिन से कठिन भूमिका को अपने अभिनय के सशक्त दायरे में बंद कर लेती थीं. यही शक्ति थी जिसने उनसे कहलाया था-हँस हँस के जवां दिल के हम क्यों न चुने टुकड़ेहर शख्स की किस्तम में इनाम नहीं होता है।
उन्हें जिस वस्तु की तलाश थी, क्या उन्हें मिल सकी? तभी तो शायद उन्होंने लिखा था-एक मरकज की तमन्नाएक भटकती खुशबू। कभी मंजिल कभी तहमीदे सफर होता है।मरहूम अदाकार को शमा समझ कर लोग उसके चारों तरफ मंडराते रहे, परंतु जिसने भी उसे देखा भूखे भेड़िये की तरह. तभी मीना कुमारी लिखती हैं-शमा हूं फूल हूं या रेत पर कदमों के निशां,आपका हक है जो चाहे कह लें मुझे।
आज मीना कुमारी नहीं हैं लेकिन किसी की ‘मंजू’, किसी की ‘महजबीन’, किसी की ‘दीदी’ किसी की ‘बीबी’, किसी की ‘पाकीजा’ आदि के रूप में लोगों के लिए आज भी हैं. गम्भीर अभिनेत्री और कुशल शायरा भारत की एक ट्रेजिडी क्वीन के नाम से वह अमर है. कलाकार कभी नहीं मरता है, उसकी कला यादों का दायरा बनाए सहस्त्रों वर्ष तक जीवित रहती है. मरहूम मीना को भी शायद अपनी महानता का एहसास था. मृत्यु के कुछ समय पूर्व उन्होंने अपने एक शेर में लिखा था-राह देखा करेंगे सदियों तकछोड़ जाऐंगे यह जहां तन्हा।
मीना कुमारी में कई धर्मों का खून था. मीना कुमारी को कला विरासत में मिली थी. शायद इसलिए ही कमाल अमरोही का कहना था कि एक्टिंग की जो आर्ट मीना कुमारी को इतना ऊंचा ले गया, वह कहीं भी अपनी मेहनत से बनाया हुआ नहीं हुआ था. वह तो बस पैदायशी था, कुदरत का दिया हुआ. उनकी नानी बंगालिन थी और एक्ट्रेस भी. उन्होंने एक फिल्म ‘रोटी’ में काम किया था. नाना थे मशहूर शायर प्यारे लाल मेरठवी जो क्रिश्यन थे. मीना कुमारी के पिता अलीबख्श हारमोनियम के मास्टर थे. मीना ने नानी से एक्टिंग ली और लिया मिजाज का वह बंगालीपना जो उनमें एक अलग निखार लाया, अपनी अलग अदा लाया. नाना से पोइट्री ली, पिता से म्यूजिक मिला और यह सब आर्ट मिल कर बन गई मीना कुमारी.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi उत्तरदायी नहीं है.)
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