पिछड़े पावें 100 में 60... डॉ. लोहिया के इस नारे में शामिल है जातिगत जनगणना, बिहार विधानसभा चुनावों से कितना जुड़ा है बीजेपी सरकार का फैसला
जातिगत जनगणना को लेकर हाल के वर्षों में राजनीतिक लड़ाई तेज हुई. विपक्ष ने इसे अपना मुद्दा बना लिया था. लेकिन बीजेपी ने उसी तरह से जातिगत जनगणना का दांव फेंका, जैसे मंदिर आंदोलन के दौरान उस समय के प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने किया था. परंतु यह सही है कि इसका बीजारोपण समाजवादी नेता डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने किया था.
संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ. यह नारा समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया ने दिया था. उसके बाद एक नारा कांसीराम के नाम से चुनावों में मशहूर हुआ – ‘जिसकी जितनी हिस्सेदारी, उसकी उतनी भागीदारी.’ हालांकि इस नारे को भी कुछ लोग डॉक्टर लोहिया का बताते हैं और कुछ मानते हैं कि यह नारा लोहिया जी के नारे से उत्पन्न हुआ था. खैर, हिस्सेदारी के हिसाब से भागीदारी हासिल करने के लिए जबसे जातीय चेतना से जुड़े राजनीतिक दल सक्रिय हुए हैं, तब से जातिगत जनगणना प्रतिपक्ष की एक बड़ी मांग रही है. यहां तक कि कांग्रेस पार्टी के नेता राहुल गांधी ने इसे मुद्दा बना लिया था. अब केंद्र सरकार ने 2030 की जनगणना इसी के आधार पर कराने का फैसला लिया है, तो सवाल उठ रहा है कि क्या इस फैसले के जरिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विपक्ष के हाथों से उनका एक अहम मुद्दा छीन लिया है. फौरी तौर पर यह फैसला तो कुछ ऐसा ही संकेत दे रहा है.

यहां ध्यान रखना चाहिए कि कई प्रतिपक्ष शासित राज्यों ने इस तरह की जनगणना करा भी ली थी. कई विपक्ष शासित राज्यों ने जनगणना के नतीजों को आधार बनाकर अपने यहां आरक्षण की ऊपरी सीमा बढ़ा भी दी थी. कांग्रेस शासन के दौरान छत्तीसगढ़ जैसे राज्य भी आरक्षण की ऊपरी सीमा बढ़ाने की तैयारी में थे. जातीय पहचान के आधार वाले दलों के लिए भी यह बहुत अहम मुद्दा रहा है. अपने वोट बैंक से वे लगातार यही वायदा भी करते रहे हैं. बीजेपी निश्चित तौर पर थोड़े समय के लिए इस फैसले के जरिए दलित और पिछड़े वर्ग के आम मतदाता को प्रभावित करती दिखती है. लेकिन यह मसला इतना सरल नहीं है.
विश्वनाथ प्रताप सिंह के दौर को याद किया जाए तो लोगों को भूला नहीं होगा कि जब भारतीय जनता पार्टी के मंदिर आंदोलन से विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग का हथियार चला कर ही कमंडल कही जाने वाली राजनीति का मुकाबला किया था. इसमें संदेह करने का कोई कारण नहीं है कि देश में सामाजिक तौर पर दलित और पिछड़ी जातियों का बाहुल्य है. ऐसे में उनके लिए होने वाली कोई भी बात देश की बड़ी आबादी पर असर डालती है.
इस बार भी अब प्रतिपक्ष के पास कम से कम इस मसले पर बोलने के लिए बहुत कुछ नहीं बचने वाला है. जबकि अभी तक बीजेपी से एक निश्चित दूरी कायम रखने वाली ये जातियां भी केंद्र सरकार के इस फैसले पर सोचने को मजबूर होंगी. हालांकि यह भी ध्यान रखने वाली बात है कि यह फैसला 2030 की जनगणना के लिए किया गया है. यानी अगली बार जब जनगणना होगी, तब इसे शामिल किया जाएगा. तब तक कई राज्यों में चुनाव होने हैं. खासतौर से बिहार के चुनाव में यह प्रचार का एक बड़ा मसला बन सकता है. यहां यह भी अहम है कि बिहार उन राज्यों में है जहां की राज्य सरकार ने जातिगत जनगणना करा भी ली थी. केंद्र सरकार ने इस बार का फैसला लेते हुए यह भी कहा कि कुछ राज्य सरकारें अपने स्तर पर जनगणना कराके इस बारे में अनिश्चितता की ओर ले जा रही हैं. लिहाजा केंद्रीय स्तर पर गिनती कराई जानी जरूरी है.
देश में जाति के आधार पर 1931 में जनगणना की गई थी. माना जाता है कि उसी के आधार पर दलितों-पिछड़ों की हिस्सेदारी 52 प्रतिशत बताई गई थी. मुमकिन है कि डॉक्टर लोहिया ने संसोपा का जो नारा गढ़ा हो, उसमें गांठ बांधते समय उसी का ध्यान रखा हो कि पिछड़े पावें सौ में साठ. बहरहाल, 1931 की जनगणना अंग्रेजों की तरफ से कराई जा रही थी. अंग्रेज भारतीय सामाजिक ताने-बाने से उस तरह से वाकिफ नहीं थे, जिस तरह भारतीय लोग होते हैं. लिहाजा बहुत सी जगहों पर यह भी मिलता है कि अंग्रेजों ने उस दौर में कह दिया था कि इस देश में जाति के आधार पर जनगणना संभव ही नहीं है क्योंकि समान सरनेम लिखने वाला कहीं पिछड़ा या दलित है तो कहीं सवर्ण जाति का. हालांकि अब यह समस्या नहीं आने वाली. अब जातिगत चेतना बहुत प्रखर है और लोग अपनी जाति से खुद ही पहचान कराना चाहते हैं.

