रिपोर्ट-मनमोहन सेजू
बाड़मेर. सैकड़ो की संख्या में दर्शकों के बीच जब कच्छ का यह फ़नकार अपनी 150 साल पुरानी वीणा से सुर छेड़ता है तो समय मानो थम सा जाता है. जिनके कान में भी इनकी आवाज़ पड़ती है वह मंत्र मुग्ध होए बिना नहींरह पाता है. हम बात कर रहे है गुजरात के कच्छ के गायक मुरालाला मारवाड़ा की.
बाड़मेर जिले में आयोजित दो दिवसीय वीणा महोत्सव में आए मुरालाला ने अपना जादू बरकरार रखा. दो दिवसीय इस खास आयोजन में गुजरात के प्रख्यात भजन गायक मोरालाला मारवाड़ा ने ‘हिये काया में बरतन माटी रो’, ‘छोड़के मत जाओ ऐकली रे बंजारा रे’, ‘उल्टा बाण गगन में जाऐ लागा’, ‘चरखो म्हारो अजब रंगीलो’, ‘बंसरी वागी ने हेली सांमरी’ आदि प्रमुख मीरा और कबीर के भजनों की सुंदर प्रस्तुति देकर राज्य भर से आए हजारों श्रोताओं का मन मोह लिया.
अपने गांव से अपने गायन की शुरुआत कर विश्व विख्यात कोक स्टूडियो में गा चुके मुरालाला बताते है कि गायन की यह उनकी 11वीं पीढ़ी है. उन्हें गुरुजनों के दिए गए शब्द और संगीत ज्ञान को वह आगे से आगे बढ़ा रहे है. वह बताते है कि कबीर, मीरा की लेखनी ही है जिसके चलते उन्हें विश्व भर में पहचान मिली है.
मुरालाला मारवाड़ा कभी स्कूल नही गए. न पढ़ना आता है और न ही लिखना. लेकिन अपने इकतारे और मंजीरे के साथ जब वे कबीर के भजन, मीरा के पद गाते हैं तो देख कर लगता है कि उन्होंने अपने निर्गुण को पा लिया है.गायकी का दायरा बढ़ने के साथ ही वे हिंदी, गुजराती, सिंधी भाषा के गीत, दोहे और भजन में हाथ आजमाते है.
मुरालाला लोक गायकी का श्रेय वे अपने पुरखों को देते हैं.वह बताते हैं कि महज 7 साल की उम्र में ही उन्होंने गाना शुरू किया था. वह अपने दादा पिता और चाचा को गाते हुए देखते थे. मुरालाला बताते हैकि वे अपने कुनबे की 11वीं पीढ़ी है जो इस सूफी संगीत या यूं कहें कि लोक गायकी को आगे बढ़ा रहे है.
एक दर्जन से ज्यादा विदेश यात्रा कर चुके मुरालाला आज भी अपने देशी रहन सहन में जीते है. सादा जीवन उच्च विचार के साथ उनका जमीन से जुड़ाव उन्हें सबसे अलग बनाता है.
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