स्वामी प्रसाद मौर्य एक बार फिर खबरों में हैं. इलाहाबाद विश्वविद्यालय से शिक्षा और राजनीति का सबक सीखने वाले मौर्य इससे पहले भी अपने बयानों को लेकर सुर्खियों में रहे हैं. खासतौर से जून 2016 में जब इन्होंने बहुजन समाज पार्टी छोड़ी थी, उस समय मौर्य ने बीएसपी प्रमुख मायावती पर कई आरोप लगाए थे. हालांकि ये भी एक तथ्य है मायावती ने पार्टी के उत्तर प्रदेश इकाई की कमान स्वामी प्रसाद मौर्य को ही सौंपी थी. उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनाया था. बीजेपी में आने से पहले स्वामी प्रसाद मौर्य नेता प्रतिपक्ष भी रह चुके थे. अगर दलगत राजनीति की बात की जाए तो उन्होंने लोकदल से अपनी राजनीतिक यात्रा की शुरुआत की थी. फिलहाल वे समाजवादी पार्टी में हैं और राम चरित मानस पर उनके बयान के बाद अटकलें तमाम अटकलों के उलट पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव ने मौर्य को पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव बना दिया है.
स्वामी प्रसाद मौर्य पढ़ने के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय आए. यहां 1980 में राजनीतिक रूप से अपनी सक्रियता की बदौलत उन्हें युवा लोकदल का संयोजक बना दिया गया. अगले ही साल उन्हें लोकदल के प्रदेश महामंत्री की जिम्मेदारी दी गई. 1991 में जब जनता दल का गठन हुआ, तो भी पार्टी में महामंत्री का उनका ओहदा कायम रहा. हालांकि 1996 में उन्होंने जनता दल का विरोध करते हुए पार्टी छोड़ दी. जनवरी 1996 में मौर्य बहुजन समाज पार्टी से जुड़े और यहां भी उन्हें पार्टी संगठन में उपाध्यक्ष और महामंत्री की जिम्मेदारी दी गई. इसी वर्ष रायबरेली की डलमऊ सीट से विधान सभा के लिए चुन लिए गए.
कद बढ़ता ही गया
कुछ ही समय बाद मार्च 1997 में उन्हें प्रदेश सरकार में कैबिनेट मंत्री के रूप में काम करने का मौका मिला. हालांकि ये सरकार थोड़े समय बाद ही गिर गई थी. लेकिन कुछ ही वर्षों में मायावती की नजरों में उनकी योग्यता और विश्वनीयता इतनी बढ़ गई कि 2001 में उन्होंने स्वामी प्रसाद मौर्य को नेता प्रतिपक्ष का ओहदा दे दिया. 2002 के चुनाव में फिर से उसी डलमऊ सीट से मौर्य जीते और सरकार बनने पर मंत्री बनाए गए. इसके बाद फिर 2007 में बीएसपी की सरकार बनी, लेकिन इस बार मौर्य चुनाव हार गए. इसके बाद भी उन्हें मंत्री का ओहदा मिला. इसी बीच पडरौना सीट से विधायक आरपीएन सिंह के सीट छोड़ने के कारण वहां उपचुनाव में उतरे और जीत गए. 2012 में भी इस सीट से मौर्य चुनाव जीते. इस बार बीएसपी को सत्ता नहीं मिली और समाजवादी पार्टी ने सरकार बनाई तो मौर्य को नेता प्रतिपक्ष का ओहदा फिर से मिला. इस तरह से डलमऊ और पडरौना दोनों सीटों पर स्वामी प्रसाद मौर्य का सीधा प्रभाव कायम हो गया.
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मायावती से अनबन, छोड़ दी बीएसपी
इसी दरम्यान 2016 में मायावती से मौर्य की अनबन हो गई और उन्होंने पार्टी छोड़ने की घोषणा कर दी. दोनों तरफ से आरोप प्रत्यारोप हुए. मायावती ने स्वामी प्रसाद मौर्य पर वंशवादी होने के भी आरोप लगाए. स्वामी प्रसाद मौर्य के बेटे अशोक मौर्य उर्फ उत्कृष्ट डलमऊ सीट जो अब ऊंचाहार बन चुकी है, वहां से चुनाव लड़ चुके थे. जबकि उनकी बेटी 2014 में बीएसपी के टिकट पर मुलायम सिंह यादव के विरुद्ध चुनाव लड़ चुकी थीं. हालांकि वे हार गईं और उन्होंने 2016 में बीजेपी ज्वाइन कर लिया. बाद में 2019 के चुनाव में एसपी के धर्मेंद्र यादव को हरा कर बदायूं से बीजेपी सांसद बनीं.
बीजेपी शरणं
मायावती का साथ छोड़ने के बाद ऐसा लग रहा था कि स्वामी प्रसाद मौर्य अपनी अलग पार्टी बनाएंगे. 2016 में उन्होंने लखनऊ में लोकतांत्रिक बहुजन मंच की स्थापना भी की. लेकिन तमाम गुणा गणित के बाद 2017 में उन्होंने बीजेपी ज्वाइन कर लिया. ये भी कहा जाता है कि मौर्य को बीजेपी लाने के लिए पार्टी नेताओं ने भी प्रयास किए थे. हालांकि ये भी एक तथ्य है कि पार्टी के पास केशव प्रसाद मौर्य के तौर पर इस वर्ग के एक बड़े नेता पहले से ही थे. फिर भी स्वामी प्रसाद मौर्य तकरीबन पांच वर्ष तक बीजेपी सरकार में मंत्री रहे.
समाजवादी पार्टी का साथ
प्रदेश में 2022 के विधानसभा चुनावों के ठीक पहले जब नए राजनीतिक समीकरण बनने शुरू हुए तो स्वामी प्रसाद मौर्य अखिलेश यादव के साथ आ गए. उनके साथ कुछ और नेता भी पार्टी में शामिल हुए. इस बार मौर्य फाजिल नगर विधानसभा सीट से चुनाव लड़े और 45 हजार से ज्यादा वोटों से जीते.
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