(अदिति प्रिया)
कोरोना वायरस के कहर से दुनिया भर में कई जानें गईं और लोग अपने अपने घरों में कैद हो रहें हैं. लेकिन इस वायरस का सबसे ज्यादा प्रकोप हाशिये पर रहे लोगों पर पड़ा है. ऐसे लोगों को ना सिर्फ वायरस का खतरा है बल्कि इसके साथ साथ सरकारी ख़ामियों का भी बोझ झेलना पड़ रहा है. इन सब के बीच बिहार की बात करना ज़रूरी इसलिए है क्योंकि देश-भर में कामगार मज़दूर बिहार से जाते हैं. बिहार राज्य की खुद की अर्थव्यवस्था भी अच्छी नहीं है. साथ ही बहुआयामी गरीबी सूचक में भी ये राज्य सबसे ऊपर है. इस कमजोर अर्थव्यवस्था की वजह से दशकों से बिहार के निवासी कमज़ोर स्वास्थ्य व्यवस्था, शिक्षा और रोज़गार नीति से पीड़ित हैं. इसके साथ ही बिहार के कई क्षेत्र बाढ़ से भी बुरी तरह प्रभावित रहते हैं. शायद इन प्राथमिकताओं को सख्त क्रम में रखना सही नहीं होगा. क्योंकि इसका मतलब होगा कि कुछ मुद्दों की उपेक्षा की जा रही है, लेकिन अभी बिहार में लोगों के लिए सबसे गंभीर मुद्दा स्वास्थ्य और पोषण से संबंधित है.
आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2019 के कुछ ही महीनों में, एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम (AES) के कारण बिहार में 160 से अधिक बच्चों की जान चली गई. वर्ष 2020 की पहली मौत मार्च महीने में ही दर्ज़ हो चुकी है. ध्यान रहे की ये आधिकारिक आंकड़े हैं, अगर इन आकड़ों पर भरोसा किया जाए तो इसके हिसाब से बिहार ‘कोरोना इंडिकेटर’ पर बाकी राज्यों से बेहतर है. लेकिन हमें यह निष्कर्ष निकालने में सावधान रहना चाहिए. जब सवाल स्वास्थ्य का आता है तो बिहार का प्रदर्शन हर साल ख़राब रहा है. पांच साल से कम उम्र के बच्चों की कुपोषण से मौत की सूची में बिहार सबसे ऊपर है. झारखंड (48%) के बाद बिहार (44%) में सबसे कम वजन के बच्चे हैं और स्टंटेड बच्चों के इंडिकेटर में बिहार सबसे ऊपर है (48%), जबकि देश का औसत 38% है. साल दर साल बिहार ना सिर्फ बच्चे, बल्कि हर उम्र के लोगों के हेल्थ इंडीकेटर्स में सबसे नीचे आता रहा है और ऐसी हालत में 2019-20 में बिहार सरकार ने केंद्र से ‘नेशनल हेल्थ मिशन’ के अंतर्गत प्राप्त करीब 3,300 करोड़ का केवल पचास प्रतिशत ही उपयोग किया था.
जब बात स्वास्थ्य की आती है तो सवाल पोषण पर भी उठता है. राशन में होने वाले कटौती और एक्सक्लूशन भी एक अहम् मुद्दा है, हालांकि ये लीकेज पिछले दशक के मुक़ाबले काफी काम हो चुका है. लेकिन अभी की हालत में बस राशन कार्ड के भरोसे गरीबों को छोड़ देना बहुत बड़ी भूल होगी. बिहार के महादलित समुदाय के लोग अभी भी एक्सक्लूशन के वजह से ऐसे नीतियों का फायदा नहीं उठा पा रहें हैं.
इन मुद्दों के प्रकाश में राज्य सरकार की राशन-स्वास्थ्य-रोज़गार-शिक्षा संबंधित सरकारी हस्तक्षेप की अहमियत और बढ़ जाती है. पहली बार AES का केस 1994 में सामने आया था, और तब से ले कर आज तक सरकारी लापरवाही की वजह से हर साल बच्चे मर रहे हैं . और इसी उपेक्षा की कीमत हर साल बच्चों को अपनी जान देकर चुकानी होती है. बिहार केंद्रीय वित्त पोषण के दशकों के बावजूद राज्य में नवजात शिशुओं, महिलाओं और अन्य मापदंडों के स्वास्थ्य की संभावना में सुधार के लिए सबसे खराब प्रदर्शन जारी है. सवाल उठता है कि सरकार इस मामले में विफल क्यों रही और क्षेत्रीय पार्टी होने के बावजूद जवाबदेही क्यों नहीं है? गरीब राज्य होने की वजह से भी बिहार में ढेरों विदेशी विकास संस्थान जैसे की वर्ल्ड बैंक आदि भी सरकार की मदद में रुचि लेती हैं. और ऐसे विकास संस्थानों की वजह से कहीं कुछ तबके को फायदा भी पहुंचा है और वही दूसरी तरफ सबसे कमज़ोर तबके ना सिर्फ राज्य सरकार के बल्कि देश विदेशी के संस्थानों के लिए भी ‘लैब-रैट’ बन कर रह गए हैं. 2012-13 में, एक महत्वाकांक्षी रेंडमाईज़ेड कंट्रोल्ड ट्रायल (RCT) के तहत बिहार में नरेगा श्रमिकों के भुगतान में होने वाली देरी को दूर करने के लिए एक एक्सपेरिमेंट हुआ. नरेगा श्रमिक कानून के तहत 15 दिनों के भीतर भुगतान के हक़दार हैं. हालांकि इसका परिणाम विपरीत आया- मजदूरी भुगतान में बहुत देरी हुई. और इस वेतन भुगतान की देरी में बड़ी वृद्धि का उल्लेख लेखक ने पेपर में कहीं नहीं किया. सबसे महत्वपूर्ण बात इसमें ये है कि इसमें राज्य सरकार और रिसर्च टीम मिल कर काम कर रही थी. तो सवाल जो पूछते रहना चाहिए की क्या सस्ते मज़दूर के देश व्यापक डिमांड को पूरा करने के लिए बिहार और यूपी जैसे राज्यों के बहुजन को वंचित रखा गया है ?
उपरोक्त आंकड़े-बिंदु बिहार में बहुजन से साथ होने वाले भेदभाव और उनके पिछड़ेपन को नहीं दर्शाता है. 2008 के कोसी बाढ़ से ग्रसित क्षेत्र मधेपुरा में डॉक्टर ने मुसहर बच्चों के साथ अपना अनुभव एक रिपोर्ट में लिखा- "…स्पष्ट था, बच्चे तीव्र और गंभीर रूप से कुपोषित थे. टीका-करण के बावजूद, उनके शरीर में खसरे के संक्रमण से लड़ने के लिए एंटीबॉडी के लिए पर्याप्त प्रोटीन नहीं था. खसरा संक्रमण और पहले से ही कम रोग प्रतिरोधक शक्ति में अचानक गिरावट ने बच्चों को बचपन की आम बीमारियां, दस्त और निमोनिया, का शिकार बना दिया था ." साइंस डायरेक्ट जर्नल में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक 2019 में AES से मारे गए बच्चों में 120 से ज्यादा बच्चे बहुजन परिवार से थे. स्वास्थ्य सवाल में सबसे भयावह स्थिति बिहार के दलित और पिछड़ों की है क्योंकि ख़राब व्यवस्था के साथ उनको जाति-वादी भेदभाव का भी सामना करना पड़ता है.
वैसे तो कोरोना वायरस से इस देश में बाकी देशों की तरह किसी भी वर्ग और जाति के इंसान बीमार पड़ सकते थे लेकिन ये जो सरकारी नीति है (सेंट्रल और राज्य सरकार) इसके तहत ये सुनिश्चित किया जा रहा है कि सबसे ज्यादा प्रभावित मज़दूर वर्ग के लोग होंगे. जो प्रवासी मज़दूर बिहार से जाते हैं उन्हें कम वेतन के साथ अमानवीय व्यवहार तो झेलना ही पड़ता है, इसके साथ ही इस व्यवस्था को स्वास्थ्य से जोड़ कर देखने पर कुछ और बातें स्पष्ट होती हैं- पूंजीपति व्यवस्था, जो सही वेतन और स्वास्थ्य का अधिकार नहीं देता है, जातिगत भेदभाव, जो दो इंसानों की असमानता तय करता है, और सरकारी लापरवाही, जो लॉकडाउन जैसा अल्हड़ कदम बिना प्रवासी मज़दूरों के लिए पर्याप्त व्यवस्था बनाये उठाया गया- जो ये साबित करते हैं क्यों बिहारी मजदूर कोरोना संक्रमण के खतरे में बेरहमी से ठुकरा दिए गए हैं. संजय साहिनी, जो बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर जिले में एक नरेगा मज़दूर का संगठन चलाते हैं, उनसे बात करने पर वह बताते हैं कि राज्य में जिन मज़दूरों के पास राशन कार्ड हैं वो अभी कुछ दिनों के लिए काम तो चला लेंगे लेकिन उसके बाद उनके पास कुछ नहीं बचेगा. और जो बिहार से मज़दूर दूसरे शहरों में फसे हैं उनकी हालत ऐसी है कि अगर संगठन से उन तक मदद न पहुंचे तो वो लोग भूखे रह जाते.
आने वाली दो मुश्किलों से बिहारी ज़िन्दगी त्रस्त हो सकती है- पहली सीमित संसाधन के लिए मांग बढ़ेगी और दूसरी इस बढ़ती मांग की लाइन में सबसे पीछे बहुजन समाज छूट जायेंगे- सरकारी व्यवस्थाओं की सारी त्रुटियों का बोझ कमज़ोर तबके के ऊपर आ गया है. इस स्तिथि में जहां सरकारी मदद न पहुंचने पर सामुदायिक नेटवर्क के बदौलत लोग इस आपदा को झेल पा रहे हैं, ऐसे में बहिष्कृत समाज को ऐसे नेटवर्क नहीं होने का भी बोझ सहना पड़ेगा. बिहार में मुसहर जाती का 90 प्रतिशत से भी बड़ा हिस्सा खेतिहर मजदूर का है, इस लॉकडाउन का बिहार में सबसे बड़ा नुकसान इसी समाज का हुआ है. 88 प्रतिशत से भी ज्यादा बिहारी ग्रामीण क्षेत्र में रहते हैं. ऐसा नहीं है की जातिगत भेदभाव शहरों में काम होता है लेकिन ग्रामीण क्षेत्र में सालों पुरानी कुंठित व्यवस्था अभी भी जीवित है और ऐसे में बहुजन, खास कर के दलित समाज, के साथ भयानक घटनाएं घटित हो सकती है.
इस वक़्त की सबसे बड़ी ज़रूरत है की सरकारी हस्तक्षेप के मदद से ग्रामीण क्षेत्र के लोगों तक राशन, पका हुआ भोजन पहुंचाया जाए और साथ ही ये सुनिश्चित करवाया जाये की जो कमज़ोर समाज के लोग हैं वो भेदभाव और हिंसा के शिकार न बने, और जानकारी के अभाव में किसी की जान नहीं जाये. वरना न सिर्फ ये राज्य बल्कि पूरा देश दोबारा बाबासाहेब अंबेडकर के समय बनाये समाज से भी पहले पहुंच जायेगा. और इन तत्काल हस्तक्षेप के दौरान कई सवाल ढांचागत असमानता पर भी उठते रहने चाहिए और एक बेहतर सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की मांग को भी बुलंद होना है.
(आरुषि कालरा, विनीता, रीतिका खेरा, ज्यां द्रेज़ , सागरिका इंदु , तेजस्विनी तभाने और तेजस हरड का बहुमूल्य प्रतिक्रियाएं और सुझाव के लिए शुक्रिया.)
(लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं. लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)