OPINION: अभिव्यक्ति की आजादी- शासक के सत्ता में बने रहने के लिए जरूरी है जनता का अज्ञानी रहना
अभिव्यक्ति की आजादी का पूरा मामला सच को जानने के अधिकार से जुड़ा है. सच जानने का हक जनता का है और राजनेता और राजनीतिक दल उसे अपने ढंग से घुमाते रहते हैं. कभी वे जनता को उसकी झलक दिखा देते हैं तो कभी उसे झूठ के परदे से ढक देते हैं.
Source: News18Hindi
Last updated on: November 24, 2020, 9:00 PM IST

संविधान की रक्षा के लिए न्यायालयों को हस्तक्षेप करना पड़ता है. (फाइल फोटो)
अच्छा हुआ केरल के मुख्यमंत्री पेनाराई विजयन ने अपनी पार्टी और विपक्ष की बात मान ली और अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगाने वाले अध्यादेश के माध्यम से केरल पुलिस कानून में प्रस्तावित संशोधन वापस ले लिया. वरना संविधान की रक्षा के लिए न्यायालयों को हस्तक्षेप करना पड़ता है. शायद मुख्यमंत्री पी विजयन को इस बात का अहसास हो गया था कि उनके इस कदम से राज्य में भले ही नेताओं के चरित्र हनन और स्त्री विरोधी टिप्पणियों से एक हद तक निजात मिलेगी लेकिन इससे उनकी पार्टी और सरकार की देशव्यापी भद होगी और उसका आखिरकार उल्टा असर पड़े बिना नहीं रह सकता. संभव है इसी की आड़ लेकर देश के अन्य राज्यों में कायम भाजपा सरकारें कोई कानून लाएं और लोगों की अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगाएं.
दरअसल मनुष्य की अभिव्यक्ति की आजादी और उस पर अंकुश की लड़ाई उसी तरह अनादि काल से चलने वाली है जिस तरह प्रकृति में द्वंद्व चलता रहता है. इस समय भी दुनिया में उसके अलग अलग स्तर हैं. एक ओर फ्रांस जैसा देश है जो अभिव्यक्ति की आजादी के लिए मोहम्मद साहेब का कार्टून बनाकर जेहादियों का हमला झेलने को तैयार है तो दूसरी ओर चीन जैसा साम्यवादी और मध्यपूर्व के इस्लामी देशों की व्यवस्था है जहां कम्युनिस्ट पार्टी उसके नेता और अल्लाह व पैगम्बर की आलोचना करना बहुत बड़ा अपराध है. लेकिन एक बात तय है कि अभिव्यक्ति की आजादी के बिना मनुष्य की गरिमा कायम नहीं हो सकती. इसीलिए नोबल विजेता और प्रसिद्ध नाटककार हेराल्ड पिंटर 2005 में स्टाकहोम में पढ़े गए अपने `कला, सच और राजनीति ’ नामक प्रसिद्ध व्याख्यान में कहते हैं कि सत्ता की राजनीति सच जानने के प्रयास से दूर भागती है क्योंकि उसका उद्देश्य सत्ता में पहुंचना और वहां बने रहना होता है. सत्ता में बने रहने के लिए जरूरी है कि जनता अज्ञानी रहे. उसे सच का पता न चले. यहां तक जनता को अपने जीवन के सच का भी पता न चले. बल्कि वह चारों ओर से झूठ के परदे में ढकी रहे. इसी के साथ वे कहते हैं कि हमें एक कलाकार के रूप में सच को अपने ढंग से देखने और प्रस्तुत करने का हक है. उसमें हम काफी कुछ फेरबदल भी कर सकते हैं. लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि एक नागरिक के रूप में हमें सच जानने का हक है.
सच को जाने के अधिकार से जुड़ा है मामला
इसलिए अभिव्यक्ति की आजादी का पूरा मामला सच को जानने के अधिकार से जुड़ा है. सच जानने का हक जनता का है और राजनेता और राजनीतिक दल उसे अपने ढंग से घुमाते रहते हैं. कभी वे जनता को उसकी झलक दिखा देते हैं तो कभी उसे झूठ के परदे से ढक देते हैं. अभिव्यक्ति की आजादी का सबसे बड़ा सच यही है कि उसे झूठ के परदे के आवरण से ढक दिया जाता है. इसकी झलक हम अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के `थैंक्स गिविंग पार्डन’ व्याख्यान में देख सकते हैं जिसमें वे एक टर्की को माफ करने की बजाय कैरट और पीज दोनों को माफ कर देते हैं और डेमोक्रेट्स पर तंज करते हुए कहते हैं कि कोई नहीं हारा है. भले ही बाद में वे हमारे फैसले को पलट दें. यह वास्तव में सत्ता में बने रहने के लिए सच से दूर ले जाने का राजनेताओं का षडयंत्र है और इसी से लड़कर जनता अपनी अभिव्यक्ति की आजादी पा सकती है और उसे कायम कर सकती है. अभिव्यक्ति की आजादी का सबसे रोचक पहलू यह है कि कोई व्यक्ति, राजनेता या पार्टी उसकी रक्षा तब तक करना चाहती है जब तक वह कमजोर हो या विपक्ष में हो. जैसे ही वह सत्ता में पहुंच जाता/ जाती है वह राज्य की रक्षा, समाज की रक्षा, देश की रक्षा और मर्यादा की रक्षा के बहाने अंकुश लगाने के उपाय ढूंढने लगती है. यह बात अपने में विचित्र है कि जो कांग्रेस पार्टी स्वाधीनता संग्राम में अंग्रेजी राज की तमाम तरह की बंदिशों के विरुद्ध लड़ती थी और राज्यों में कांग्रेसी सरकारें बनने के बाद उन्हीं बंदिशों को हटाने लगती थी वही कांग्रेस पार्टी और उसके नेता सत्ता में आने के बाद 1951 में पहला संविधान संशोधन कानून पास करते हैं और अभिव्यक्ति की आजादी पर युक्तिसंगत निर्बंध लगाते हैं. वह भी एक नहीं आठ-आठ. विडंबना देखिए कि यह काम पंडित जवाहर लाल नेहरू के प्रधानमंत्री रहते हुआ था जो लोकतंत्र के संस्थापक माने जाते हैं. उसी तरह के प्रयास उस भारतीय जनता पार्टी के शासन में हम देख सकते हैं जिसके नेता आपातकाल में जेल गए थे और अभिव्यक्ति की आजादी पर तमाम तरह की बंदिशों का सामना किया था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उस समय अहमदाबाद जेल में बंद जार्ज फर्नांडीस को छुपकर अखबार पहुंचाने जाया करते थे. लेकिन आज वे प्रेस कांफ्रेंस करने से भी दूर रहते हैं.
न्यायपालिका को दिया गया है अभिव्यक्ति की आजादी का दायरा तय करने की सीमा
इसीलिए अभिव्यक्ति की आजादी का दायरा क्या है और उसकी सीमाएं क्या हैं यह तय करने का काम नेताओं के जिम्मे नहीं छोड़ा गया है. इसका जिम्मा संविधान की रक्षा करने वाली संस्था न्यायपालिका को दिया गया है. हालांकि उस संस्था में भी सत्ता में पहुंचने और बने रहने का दबाव इतना बढ़ गया है कि वहां भी सच को कहने की छूट देने में झिझक है. यही वजह है कि समय समय पर वह संस्था भी अवमानना के मामलों को लेकर भड़क जाती है. इसके बावजूद अभिव्यक्ति की आजादी के पूरे संदर्भ को सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में श्रेया सिंघल बनाम भारत सरकार के मामले में बहुत सुंदर तरीके से व्याख्यायित किया है. यही वह मामला है जिसमें न्यायमूर्ति जे चेलमेश्वर और आर. एफ नारीमन ने आईटी कानून 2000 की धारा 66 ए को यह कहते हुए रद्द कर दिया था कि इसमें जो भी बंदिशें लगाई गई हैं वे संविधान के अनुच्छेद 19(2) में दिए गए युक्तिसंगत निर्बंध की किसी श्रेणी में नहीं आतीं.इस फैसले में न्यायमूर्ति चेलमेश्वर और नारीमन ने साफ कहा है कि सोशल मीडिया की आजादी इस देश के युवा की आजादी है और उसे छीनने की कोशिश नई पीढ़ी को अभिव्यक्ति से वंचित करना होगा. लेकिन संविधान और उसके रक्षकों से अभिव्यक्ति की आजादी बचाने का प्रयास करने वाला नागरिक समाज आजकल राजनेताओं और अफसरों के दबाव में है. उसकी बात सुनी ही जाए इस बात की गारंटी कम दिखती है.
इसलिए हमें यह भी सोचना होगा कि संविधान और उसकी संस्थाओं के अलावा वह कौन से उपाय और कारण हैं जिनके कारण अभिव्यक्ति की आजादी बचाई जानी चाहिए और जहां वह हर हाल में बची रहती है. सुप्रीम कोर्ट और संविधान के अलावा अभिव्यक्ति की आजादी दो और जगहों पर बचती है. एक वहां जहां सत्ता की राजनीति नहीं हो रही है और व्यक्ति सच ढूंढने के प्रयास में लगा है. दूसरी जगह है लोकजीवन, जहां किसी न किसी रूप में समाज के हर तबके को अपनी बात कहने की गुंजाइश है.
महात्मा गांधी सत्य के अन्वेषी थे और वे न तो किसी की अभिव्यक्ति की आजादी को दबाना चाहते थे और न ही किसी से दबाए जाना पसंद करते थे. इसीलिए गांधी कहते थे कि अभिव्यक्ति की आजादी अखंड है भले ही वह किसी को आहत करे. प्रेस की आजादी का वास्तव में सम्मान किया जाना चाहिए, भले ही वह कड़े से कड़े शब्दों में टिप्पणी करे. यानी प्रेस के स्टाफ पर कोई बंदिश नहीं होनी चाहिए. इसी के साथ वे बंदिश की बात आत्मनियमन के रूप में करते हैं. वे कहते हैं कि जिस तरह बाढ़ का अनियंत्रित प्रवाह खेत के खेत तबाह कर देता है उसी प्रकार शब्दों का अनियंत्रित प्रवाह विनाश की सृष्टि करता है. इसलिए लिखे और बोले जाने वाले शब्दों पर संयम बहुत जरूरी है.
दूसरी ओर लोकजीवन है जो अपनी कलाओं की परत दर परत में तमाम तरह की अभिव्यक्तियों को जिंदा रखता है और जहां अवमानना का भाव नहीं होता बल्कि हास्य और सहिष्णुता का भाव होता है. भारत के आदिवासी समाज में तमाम गीत गालियों से भरे पड़े हैं. सेंसर का कौन सा कानून उन्हें मार सकता है. काशीनाथ सिंह कहते हैं कि बनारस की गालियां फकीरों की गालियां हैं उन्हें कोई खामोश नहीं कर सकता. उसी तरह इस देश के हर जातीय समाज में अपने दामाद, समधी, ससुर, साली और समधिन के लिए गालियों के भरे हुए गीत तो हैं ही उन्हीं गीतों में अपने इष्टदेव का नाम लेकर भी गालियां रची गई हैं. भला ईशनिंदा का कौन सा कानून वहां लागू होता है. अगर कोई लागू करने की कोशिश करेगा तो वह लोकजीवन को नष्ट करेगा और लोकजीवन को नष्ट करना भारतीय समाज को नष्ट करना है. पूरा भक्तिकाल जातिव्यवस्था और पुरुषसत्ता के विरुद्ध एक प्रकार का विद्रोह तो है ही ईश्वर की अवधारणा की एकदम नई व्याख्या है. जब कबीर और रैदास उस समय पैदा हो गए तो आज उन्हें कौन रोक सकता है.
संभव है आज की राजनीतिक व्यवस्था विधायिका और कार्यपालिका के माध्यम से नए कानून लाकर अनुकूल न लगने वाली अभिव्यक्तियों को प्रतिबंधित करने की कोशिश करे. लेकिन वह कोशिशें भी एक सीमा तक ही कामयाब होंगी. सत्य का अन्वेषी व्यक्ति और लोकरंजक समाज अपनी नई दिशा ढूंढ ही लेगा. इसलिए अभिव्यक्ति के खतरे तो हैं लेकिन उनकी रक्षा के रास्ते भी तमाम हैं. जाहिर है अभिव्यक्ति है तो जीवन है नहीं है तो हम मृत हैं. (ये लेखक के निजी विचार हैं)
दरअसल मनुष्य की अभिव्यक्ति की आजादी और उस पर अंकुश की लड़ाई उसी तरह अनादि काल से चलने वाली है जिस तरह प्रकृति में द्वंद्व चलता रहता है. इस समय भी दुनिया में उसके अलग अलग स्तर हैं. एक ओर फ्रांस जैसा देश है जो अभिव्यक्ति की आजादी के लिए मोहम्मद साहेब का कार्टून बनाकर जेहादियों का हमला झेलने को तैयार है तो दूसरी ओर चीन जैसा साम्यवादी और मध्यपूर्व के इस्लामी देशों की व्यवस्था है जहां कम्युनिस्ट पार्टी उसके नेता और अल्लाह व पैगम्बर की आलोचना करना बहुत बड़ा अपराध है. लेकिन एक बात तय है कि अभिव्यक्ति की आजादी के बिना मनुष्य की गरिमा कायम नहीं हो सकती. इसीलिए नोबल विजेता और प्रसिद्ध नाटककार हेराल्ड पिंटर 2005 में स्टाकहोम में पढ़े गए अपने `कला, सच और राजनीति ’ नामक प्रसिद्ध व्याख्यान में कहते हैं कि सत्ता की राजनीति सच जानने के प्रयास से दूर भागती है क्योंकि उसका उद्देश्य सत्ता में पहुंचना और वहां बने रहना होता है. सत्ता में बने रहने के लिए जरूरी है कि जनता अज्ञानी रहे. उसे सच का पता न चले. यहां तक जनता को अपने जीवन के सच का भी पता न चले. बल्कि वह चारों ओर से झूठ के परदे में ढकी रहे. इसी के साथ वे कहते हैं कि हमें एक कलाकार के रूप में सच को अपने ढंग से देखने और प्रस्तुत करने का हक है. उसमें हम काफी कुछ फेरबदल भी कर सकते हैं. लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि एक नागरिक के रूप में हमें सच जानने का हक है.
सच को जाने के अधिकार से जुड़ा है मामला
इसलिए अभिव्यक्ति की आजादी का पूरा मामला सच को जानने के अधिकार से जुड़ा है. सच जानने का हक जनता का है और राजनेता और राजनीतिक दल उसे अपने ढंग से घुमाते रहते हैं. कभी वे जनता को उसकी झलक दिखा देते हैं तो कभी उसे झूठ के परदे से ढक देते हैं. अभिव्यक्ति की आजादी का सबसे बड़ा सच यही है कि उसे झूठ के परदे के आवरण से ढक दिया जाता है. इसकी झलक हम अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के `थैंक्स गिविंग पार्डन’ व्याख्यान में देख सकते हैं जिसमें वे एक टर्की को माफ करने की बजाय कैरट और पीज दोनों को माफ कर देते हैं और डेमोक्रेट्स पर तंज करते हुए कहते हैं कि कोई नहीं हारा है. भले ही बाद में वे हमारे फैसले को पलट दें. यह वास्तव में सत्ता में बने रहने के लिए सच से दूर ले जाने का राजनेताओं का षडयंत्र है और इसी से लड़कर जनता अपनी अभिव्यक्ति की आजादी पा सकती है और उसे कायम कर सकती है.
न्यायपालिका को दिया गया है अभिव्यक्ति की आजादी का दायरा तय करने की सीमा
इसीलिए अभिव्यक्ति की आजादी का दायरा क्या है और उसकी सीमाएं क्या हैं यह तय करने का काम नेताओं के जिम्मे नहीं छोड़ा गया है. इसका जिम्मा संविधान की रक्षा करने वाली संस्था न्यायपालिका को दिया गया है. हालांकि उस संस्था में भी सत्ता में पहुंचने और बने रहने का दबाव इतना बढ़ गया है कि वहां भी सच को कहने की छूट देने में झिझक है. यही वजह है कि समय समय पर वह संस्था भी अवमानना के मामलों को लेकर भड़क जाती है. इसके बावजूद अभिव्यक्ति की आजादी के पूरे संदर्भ को सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में श्रेया सिंघल बनाम भारत सरकार के मामले में बहुत सुंदर तरीके से व्याख्यायित किया है. यही वह मामला है जिसमें न्यायमूर्ति जे चेलमेश्वर और आर. एफ नारीमन ने आईटी कानून 2000 की धारा 66 ए को यह कहते हुए रद्द कर दिया था कि इसमें जो भी बंदिशें लगाई गई हैं वे संविधान के अनुच्छेद 19(2) में दिए गए युक्तिसंगत निर्बंध की किसी श्रेणी में नहीं आतीं.इस फैसले में न्यायमूर्ति चेलमेश्वर और नारीमन ने साफ कहा है कि सोशल मीडिया की आजादी इस देश के युवा की आजादी है और उसे छीनने की कोशिश नई पीढ़ी को अभिव्यक्ति से वंचित करना होगा. लेकिन संविधान और उसके रक्षकों से अभिव्यक्ति की आजादी बचाने का प्रयास करने वाला नागरिक समाज आजकल राजनेताओं और अफसरों के दबाव में है. उसकी बात सुनी ही जाए इस बात की गारंटी कम दिखती है.
इसलिए हमें यह भी सोचना होगा कि संविधान और उसकी संस्थाओं के अलावा वह कौन से उपाय और कारण हैं जिनके कारण अभिव्यक्ति की आजादी बचाई जानी चाहिए और जहां वह हर हाल में बची रहती है. सुप्रीम कोर्ट और संविधान के अलावा अभिव्यक्ति की आजादी दो और जगहों पर बचती है. एक वहां जहां सत्ता की राजनीति नहीं हो रही है और व्यक्ति सच ढूंढने के प्रयास में लगा है. दूसरी जगह है लोकजीवन, जहां किसी न किसी रूप में समाज के हर तबके को अपनी बात कहने की गुंजाइश है.
महात्मा गांधी सत्य के अन्वेषी थे और वे न तो किसी की अभिव्यक्ति की आजादी को दबाना चाहते थे और न ही किसी से दबाए जाना पसंद करते थे. इसीलिए गांधी कहते थे कि अभिव्यक्ति की आजादी अखंड है भले ही वह किसी को आहत करे. प्रेस की आजादी का वास्तव में सम्मान किया जाना चाहिए, भले ही वह कड़े से कड़े शब्दों में टिप्पणी करे. यानी प्रेस के स्टाफ पर कोई बंदिश नहीं होनी चाहिए. इसी के साथ वे बंदिश की बात आत्मनियमन के रूप में करते हैं. वे कहते हैं कि जिस तरह बाढ़ का अनियंत्रित प्रवाह खेत के खेत तबाह कर देता है उसी प्रकार शब्दों का अनियंत्रित प्रवाह विनाश की सृष्टि करता है. इसलिए लिखे और बोले जाने वाले शब्दों पर संयम बहुत जरूरी है.
दूसरी ओर लोकजीवन है जो अपनी कलाओं की परत दर परत में तमाम तरह की अभिव्यक्तियों को जिंदा रखता है और जहां अवमानना का भाव नहीं होता बल्कि हास्य और सहिष्णुता का भाव होता है. भारत के आदिवासी समाज में तमाम गीत गालियों से भरे पड़े हैं. सेंसर का कौन सा कानून उन्हें मार सकता है. काशीनाथ सिंह कहते हैं कि बनारस की गालियां फकीरों की गालियां हैं उन्हें कोई खामोश नहीं कर सकता. उसी तरह इस देश के हर जातीय समाज में अपने दामाद, समधी, ससुर, साली और समधिन के लिए गालियों के भरे हुए गीत तो हैं ही उन्हीं गीतों में अपने इष्टदेव का नाम लेकर भी गालियां रची गई हैं. भला ईशनिंदा का कौन सा कानून वहां लागू होता है. अगर कोई लागू करने की कोशिश करेगा तो वह लोकजीवन को नष्ट करेगा और लोकजीवन को नष्ट करना भारतीय समाज को नष्ट करना है. पूरा भक्तिकाल जातिव्यवस्था और पुरुषसत्ता के विरुद्ध एक प्रकार का विद्रोह तो है ही ईश्वर की अवधारणा की एकदम नई व्याख्या है. जब कबीर और रैदास उस समय पैदा हो गए तो आज उन्हें कौन रोक सकता है.
संभव है आज की राजनीतिक व्यवस्था विधायिका और कार्यपालिका के माध्यम से नए कानून लाकर अनुकूल न लगने वाली अभिव्यक्तियों को प्रतिबंधित करने की कोशिश करे. लेकिन वह कोशिशें भी एक सीमा तक ही कामयाब होंगी. सत्य का अन्वेषी व्यक्ति और लोकरंजक समाज अपनी नई दिशा ढूंढ ही लेगा. इसलिए अभिव्यक्ति के खतरे तो हैं लेकिन उनकी रक्षा के रास्ते भी तमाम हैं. जाहिर है अभिव्यक्ति है तो जीवन है नहीं है तो हम मृत हैं. (ये लेखक के निजी विचार हैं)
ब्लॉगर के बारे में
अरुण कुमार त्रिपाठीवरिष्ठ पत्रकार
वरिष्ठ पत्रकार हैं. सामाजिक, राजनीतिक मुद्दों पर लिखते रहे हैं. देश के तमाम बड़े संस्थानों के साथ जुड़ाव रहा है. कई समाचार पत्रों में मुख्य संपादक रहे हैं.
First published: November 24, 2020, 8:47 PM IST