विलोम: बदहवास आस की किताब
पिछले ढाई महीनों में मज़दूरों को सड़कों पर चलते और मरते देख अनेक भारतीय लेखकों के भीतर भी अपने कर्म को लेकर यही संशय उमड़ने लगा होगा कि आखिर क्या मोल है हमारे शब्दों का? जिस ख़ुशफ़हम मध्यवर्गीय जीवन को हम जीते आए हैं, जिन सुविधाओं से हमने अपने जीवन और लेखन को निर्मित किया है, वह उस मनुष्य को नहीं बचा पाया जिसने हमारे घर और दफ्तर की नींव और दीवार को बनाया है. आखिर क्या जवाबदेही बनेगी हमारे शब्दों की इस मनुष्य के प्रति?
Source: News18Hindi
Last updated on: June 6, 2020, 10:57 PM IST

कक्षा 9 और 11 के लिए इंग्लिश की किताबों में बदलाव हुआ है.
चन्दन गौड़ा के साथ अपने अंतिम वर्षों में हुए लम्बे संवाद के दौरान यू आर अनंतमूर्ति एक जगह बोले कि पिछली सदी में जब यूरोप के कई देश फासीवाद के सामने ढहते जा रहे थे, लोकतंत्र लुढ़क रहा था, अनेक लेखक और पत्रकारों के सामने विकट संकट आ खड़ा हुआ. ये मध्यवर्गीय लेखक अपनी डेस्क पर जीते, अमूमन अपने वर्गीय सरोकारों के बारे में लिखते आये थे. सहसा उन्हें एहसास हुआ कि उनका मध्यवर्ग और उनके शब्द हिटलर के सामने बेबस थे. कुछ लेखक हिटलर से प्रभावित भी थे. अब ये लेखक ख़ुद अपने भीतर पनपते फ़ासीवाद से लड़ना चाहते थे.
उन्हें अपने लेखन और समुदाय से विकट निराशा होने लगी. वे हाशिये पर रहते मनुष्य के बीच जाना चाहते थे, जहां परिवर्तन की एकमात्र उम्मीद बची थी, लेकिन अपनी वर्तमान पहचान को स्वाहा कर नया अस्तित्व गढ़े बगैर ऐसा संभव न था. और तब जॉर्ज ओरवेल जैसे लेखक नौकरियां छोड़कर मजदूरों के साथ रहने चले आये थे, भीख मांगा करते थे (संयोगवश जिन अनुभवों ने उनकी बेहतरीन किताब डाउन एंड आउट इन लन्दन एंड पेरिस को रचा था.).
पिछले ढाई महीनों में मज़दूरों को सड़कों पर चलते और मरते देख अनेक भारतीय लेखकों के भीतर भी अपने कर्म को लेकर यही संशय उमड़ने लगा होगा कि आखिर क्या मोल है हमारे शब्दों का? जिस ख़ुशफ़हम मध्यवर्गीय जीवन को हम जीते आए हैं, जिन सुविधाओं से हमने अपने जीवन और लेखन को निर्मित किया है, वह उस मनुष्य को नहीं बचा पाया जिसने हमारे घर और दफ्तर की नींव और दीवार को बनाया है. आखिर क्या जवाबदेही बनेगी हमारे शब्दों की इस मनुष्य के प्रति?
कुछ इसी तरह का अनुभव मुझे अपने बस्तर दिनों के दौरान हुआ था. महानगरों के कई पत्रकार-लेखक- कार्यकर्ता बस्तर में अरसे तक रहे हैं, आदिवासी समुदाय के बीच निष्ठा से काम किया है. लेकिन मुझे अक्सर लगता था कि इन सबका लेखन, जिसमें मैं भी शामिल था, शायद उस भाषा में दर्ज होता है जो बस्तर के लिए अजनबी है. हम जिस आधुनिक वर्णमाला से आदिम जंगल की आकांक्षाओं और सपनों को दर्ज करते थे, उसके रूपक और मुहावरे जंगल की आत्मा को नहीं छू पाते थे. हम महुए के जंगल को अक्सर खोखली भाषा में अनूदित करते थे. मसलन हम ‘इंटिरीअर विलिज’ या ‘अंदरुनी गाँव’ का अक्सर प्रयोग करते थे लेकिन बस्तर के निवासी की चेतना में ‘अंदरुनी’ नहीं था. वे अपने जंगल को अंदरुनी, ‘ऐक्सेसिबल’ और ‘रिमोट’ में विभाजित नहीं करते थे. उनके लिए समूचा जंगल उनका घर था, जबकि शहर ने अपनी सुविधा के लिए कुछ श्रेणियाँ बना दी थीं. मुझे बस्तर के निवासी के साथ अक्सर एक असंभव खाई महसूस होती थी. मेरे लगभग हरेक प्रश्न के लिए उनके पास एक ऐसे प्रश्न का उत्तर होता था जो मैंने नहीं पूछा था. मैं प्रश्न को दोहराता, दूसरे ढंग से पूछता, लेकिन हमारा संवाद अक्सर अधूरा रहा आता. बस्तर में अनेक शहरी आए हैं जिन्होंने अपनी आत्मा महुए की आंच में भस्म होते देखी है, लेकिन इसके बावजूद उनका आख्यान अक्सर महानगरीय बुद्धिजीवी समुदाय को सम्बोधित होता है, जिनसे वे प्रमाण-पत्र हासिल करना चाहते हैं. मुझे लगा करता था कि मेरे शब्द भी इसी अपर्याप्तता में सने हैं. कुछ समय बाद कोई गोंड लड़की मेरे समूचे लिखे को ख़ारिज कर देगी कि यह वह बस्तर नहीं जो हम आदिवासियों ने देखा-जिया है.
मिटा और बिसरा दिए जाने का भय साथ लिए, अपने इर्द-गिर्द हो रही मृत्यु देखते हुए आख़िर कैसे लिखा जाये? ऐसे बेबस, हताश वक़्त में उस किताब की कहाँ जगह है जिसे रचने की बदहवास आस में हम जिये जा रहे हैं?
एक संभावित जवाब तुर्की के फ़िल्मकार सेमिह कप्लानोग्लू की फ़िल्म एग देती है. इसके शुरुआती दृश्य में काली ड्रैस पहने एक लड़की किताबों की दुकान में आती है. रात हो रही है, उसे पार्टी में जाना है. उसके पास बेहतरीन वाइन की बोतल है, लेकिन वह कोई किताब भी भेंट करना चाहती है. उसे एक किताब पसंद आती है, लेकिन यह बड़ी महँगी है. “क्या मैं वाइन की इस बोतल के बदले इसे ले जा सकती हूँ?”काउंटर पर बैठा युवक जो ख़ुद लेखक है सर हिला देता है. दृश्य पूरा हो जाता है. वह लड़की दुबारा स्क्रीन पर दिखाई नहीं देती, क्योंकि फ़िल्म उस लेखक के बारे में है.
शायद यही किताब रचने की आस में हम जीते हैं, जो कागज पर उतरते वक्त अक्सर निरर्थक दिखती है लेकिन जिस पर कोई कभी क़ुर्बान हो जाएगा. यही किताब, दरअसल इसी किताब का छलावा लेखक को जीवित रखता है.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
उन्हें अपने लेखन और समुदाय से विकट निराशा होने लगी. वे हाशिये पर रहते मनुष्य के बीच जाना चाहते थे, जहां परिवर्तन की एकमात्र उम्मीद बची थी, लेकिन अपनी वर्तमान पहचान को स्वाहा कर नया अस्तित्व गढ़े बगैर ऐसा संभव न था. और तब जॉर्ज ओरवेल जैसे लेखक नौकरियां छोड़कर मजदूरों के साथ रहने चले आये थे, भीख मांगा करते थे (संयोगवश जिन अनुभवों ने उनकी बेहतरीन किताब डाउन एंड आउट इन लन्दन एंड पेरिस को रचा था.).
पिछले ढाई महीनों में मज़दूरों को सड़कों पर चलते और मरते देख अनेक भारतीय लेखकों के भीतर भी अपने कर्म को लेकर यही संशय उमड़ने लगा होगा कि आखिर क्या मोल है हमारे शब्दों का? जिस ख़ुशफ़हम मध्यवर्गीय जीवन को हम जीते आए हैं, जिन सुविधाओं से हमने अपने जीवन और लेखन को निर्मित किया है, वह उस मनुष्य को नहीं बचा पाया जिसने हमारे घर और दफ्तर की नींव और दीवार को बनाया है. आखिर क्या जवाबदेही बनेगी हमारे शब्दों की इस मनुष्य के प्रति?
कुछ इसी तरह का अनुभव मुझे अपने बस्तर दिनों के दौरान हुआ था. महानगरों के कई पत्रकार-लेखक- कार्यकर्ता बस्तर में अरसे तक रहे हैं, आदिवासी समुदाय के बीच निष्ठा से काम किया है. लेकिन मुझे अक्सर लगता था कि इन सबका लेखन, जिसमें मैं भी शामिल था, शायद उस भाषा में दर्ज होता है जो बस्तर के लिए अजनबी है. हम जिस आधुनिक वर्णमाला से आदिम जंगल की आकांक्षाओं और सपनों को दर्ज करते थे, उसके रूपक और मुहावरे जंगल की आत्मा को नहीं छू पाते थे. हम महुए के जंगल को अक्सर खोखली भाषा में अनूदित करते थे. मसलन हम ‘इंटिरीअर विलिज’ या ‘अंदरुनी गाँव’ का अक्सर प्रयोग करते थे लेकिन बस्तर के निवासी की चेतना में ‘अंदरुनी’ नहीं था. वे अपने जंगल को अंदरुनी, ‘ऐक्सेसिबल’ और ‘रिमोट’ में विभाजित नहीं करते थे. उनके लिए समूचा जंगल उनका घर था, जबकि शहर ने अपनी सुविधा के लिए कुछ श्रेणियाँ बना दी थीं.
मिटा और बिसरा दिए जाने का भय साथ लिए, अपने इर्द-गिर्द हो रही मृत्यु देखते हुए आख़िर कैसे लिखा जाये? ऐसे बेबस, हताश वक़्त में उस किताब की कहाँ जगह है जिसे रचने की बदहवास आस में हम जिये जा रहे हैं?
एक संभावित जवाब तुर्की के फ़िल्मकार सेमिह कप्लानोग्लू की फ़िल्म एग देती है. इसके शुरुआती दृश्य में काली ड्रैस पहने एक लड़की किताबों की दुकान में आती है. रात हो रही है, उसे पार्टी में जाना है. उसके पास बेहतरीन वाइन की बोतल है, लेकिन वह कोई किताब भी भेंट करना चाहती है. उसे एक किताब पसंद आती है, लेकिन यह बड़ी महँगी है. “क्या मैं वाइन की इस बोतल के बदले इसे ले जा सकती हूँ?”काउंटर पर बैठा युवक जो ख़ुद लेखक है सर हिला देता है. दृश्य पूरा हो जाता है. वह लड़की दुबारा स्क्रीन पर दिखाई नहीं देती, क्योंकि फ़िल्म उस लेखक के बारे में है.
शायद यही किताब रचने की आस में हम जीते हैं, जो कागज पर उतरते वक्त अक्सर निरर्थक दिखती है लेकिन जिस पर कोई कभी क़ुर्बान हो जाएगा. यही किताब, दरअसल इसी किताब का छलावा लेखक को जीवित रखता है.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
ब्लॉगर के बारे में
आशुतोष भारद्वाजलेखक, पत्रकार
गद्य की अनेक विधाओं में लिख रहे गल्पकार -पत्रकार-आलोचक आशुतोष भारद्वाज का एक कहानी संग्रह, एक आलोचना पुस्तक, संस्मरण, डायरियां इत्यादि प्रकाशित हैं। चार बार रामनाथ गोयनका सम्मान से पुरस्कृत आशुतोष 2015 में रॉयटर्स के अंतर्राष्ट्रीय कर्ट शॉर्क सम्मान के लिए नामांकित हुए थे। उन्हें भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला, और प्राग के 'सिटी ऑफ़ लिटरेचर' समेत कई फेलोशिप मिली हैं. दंडकारण्य के माओवादियों पर उनकी उपन्यासनुमा किताब, द डैथ स्क्रिप्ट, हाल ही में प्रकाशित हुई है.
First published: June 6, 2020, 5:53 AM IST