जम्मू कश्मीर में शीघ्र चुनाव हो सकते हैं, ऐसी उम्मीद जताने के कारण गिनाये जाने लगे हैं. सिर्फ इसलिए नहीं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अभी पंचायत दिवस यानी 24 अप्रैल को जम्मू में एक रैली को सम्बोधित किया. इस रैली में उन्होंने बदलते हालात और केंद्र की ओर से राज्य के विकास के लिए किए गये कार्यों की चर्चा की और आगे के लिए भी एक बड़ी धनराशि देने का एलान किया. इसलिए भी नहीं कि राज्य परिसीमन आयोग ने पांच मई को अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंप दी है, जिसमें अब 83 की जगह विधानसभा क्षेत्रों की संख्या 90 करने की सिफारिश की गयी है. इनके अतिरिक्त 24 सीटें हमेशा की तरह गुलाम कश्मीर के लिए खाली रखी जायेंगी। अंदरखाने चर्चा शुरू हो गयी है कि रिपोर्ट भारतीय जनता पार्टी के अनुकूल है. रिपोर्ट के लागू किये जाने के बाद इस राज्य के राजनीतिक नक्शे में अब सात नए विधानसभा क्षेत्र दिखेंगे. कई पुराने क्षेत्रों के स्वरूप बदले नजर आएंगे. जम्मू वाले हिस्से में सीटें बढ़ी हैं.
फिर मुस्लिम प्रभाव वाले विधानसभा क्षेत्रों की संख्या घटने, कश्मीर घाटी में सिख, शिया, गुज्जर-बक्करवाल और पहाड़ी मतदाताओं का मजबूत होना जैसे बिंदु गिनाये जा रहे हैं। अभी तक ये समुदाय अपनी संख्या के बावजूद हार-जीत का निर्णायक नहीं बन पाते थे। स्वाभाविक है कि पहले से मौजूद राज्य के दिग्गजों को अपने वोट बैंक फिर से बनाने होंगे। ये स्थितियां भाजपा के अनुकूल होंगी। फिर भी सवाल है कि क्या इतने भर से भाजपा स्थितियों को अपने अनुकूल पाती है? राज्यपाल शासन और बाद में राष्ट्रपति शासन के दौरान केंद्र सरकार ने वहां क्या खास किए कि सरकार का नेतृत्व कर रही भाजपा चुनाव कराने की स्थिति में आ गयी है?
ज्ञातव्य है कि कश्मीर में विधानसभा सीटों का परिसीमन 1995 में किया गया था। भारतीय जनता पार्टी ने राज्य में परिसीमन की मांग पहली बार 2008 में ही अमरनाथ भूमि विवाद के दौरान उठायी थी। स्वाभाविक है कि केंद्र में भाजपा की सरकार बनने और राज्य का विशेष दर्जा खत्म होने के बाद यह काम आसान हो गया।
लोकतांत्रिक प्रक्रिया की बहाली
केंद्र में आने के बाद से ही मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर के हालात सामान्य बनाने के प्रयास शुरू कर दिए थे। याद करना होगा कि लोकसभा चुनाव के छह महीने बाद ही राज्य में राजनीतिक जड़ता खत्म करने के लिए विधानसभा के चुनाव कराए गये। जब 28 दिसंबर,2014 को विधानसभा के चुनाव परिणाम आए तो पीडीपी (28 सीटें) सबसे बड़ी पार्टी और भाजपा (25) दूसरी बड़ी पार्टी बनकर सामने आयी। अन्य दल नेशनल कांफ्रेंस(15) और कांग्रेस (12) बहुत पीछे रहे। सरकार बनने की स्थिति साफ नहीं होने से राज्यपाल शासन लगाना पड़ा। तब राज्य की विशेष स्थिति के चलते वहां राष्ट्रपति नहीं, राज्यपाल शासन की ही व्यवस्था थी। इस बीच गठबंधन की बातचीत चलती रही और एक मार्च,2015 को पीडीपी-भाजपा की सरकार बनी। सहमति के न्यूनतम बिंदुओं पर काम शुरू हुए। मुफ्ती मोहम्मद सईद के नेतृत्व में सरकार चल रही थी कि इसी बीच सात जनवरी,2016 को बीमारी के चलते सईद का इंतकाल हो गया। बदली परिस्थितियों में पीडीपी ने कॉमन मीनिमम प्रोग्राम पर अपनी आपत्ति जाहिर की। सरकार गिर गई और राज्य फिर से राज्यपाल शासन के अधीन हो गया।
आतंकवाद पर स्पष्ट नहीं रही पीडीपी
इस बीच केंद्र ने बेहतर राजनीतिक हालात के जरिए राज्य हितों की योजना पर काम जारी रखा। परिणामस्वरूप सईद की बेटी महबूबा मुफ्ती सरकार बनाने को राजी हुईं। चार अप्रैल,2016 को सरकार बनी ही थी कि पांच अप्रैल को भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच के दौरान स्थानीय और बाहरी छात्रों के बीच संघर्ष के चलते श्रीनगर आइआइटी में हालात खराब हो गए। फिर आठ जुलाई को हिज्बुल मुजाहिदीन का आतंकवादी बुरहान वानी सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में मारा गया। इस पर पीडीपी और बीजेपी के बीच मतभेद दिखे। आतंकी की हत्या के बाद हिंसक प्रदर्शनों के बीच 85 लोगों की जान गई तो महबूबा ने हमलावरों के साथ संघर्ष विराम की पहल की। भाजपा को यह पसंद नहीं था। वर्ष 2018 की मई में प्रदर्शनकारियों के साथ रियायत के दौरान ढील के बीच पत्रकार सुजात बुखारी और सेना के जवान औरंगजेब की हत्या ने जैसे केंद्र सरकार को भी चुनौती दे डाली। फिर 17 जून को केंद्र ने एकतरफा संघर्ष विराम के खात्मे की घोषणा कर दी। अगले दो दिन के घटनाक्रम के बीच बीजेपी ने महबूबा सरकार से समर्थन वापस ले लिया और सरकार गिर गई।
इस तरह 2014 के दिसंबर से 2018 के जून तक का समय वह दौर था, जब केंद्र सरकार का नेतृत्व कर रही भाजपा ने स्थानीय राजनीतिक दलों को साथ लेकर हालात ठीक करने की कोशिशें कीं। देश ने देखा कि मोदी सरकार की मंशा साफ है। मुफ्ती मोहम्मद सईद और उसके बाद महबूबा मुफ्ती सरकार के समय भी केंद्र ने भरसक राज्य के मुख्यमंत्री को खुले हाथ काम करने की छूट दे रखी थी। केंद्र सरकार फिर भी कानून व्यवस्था के हालात पर वह कोई ढील देने के पक्ष में नहीं थी। उसका साफ मानना रहा कि राज्य के विकास के लिए वहां शांति वापसी पहली शर्त है।
खत्म हुई 370 की बाधा
असल में इस शांति स्थापना के साथ ही जम्मू कश्मीर के लोगों में इस भावना को मजबूत करना जरूरी था कि वे देश के अन्य हिस्सों की ही तरह आगे बढ़ने के हकदार हैं। भाजपा की पहले से ही साफ समझ रही कि इस राज्य के लिए अनुच्छेद 370 का रहना उसकी प्रगति में बाधक ही है। इसके कारण केंद्र से भरपूर मदद के बावजूद राज्य पर उसका कोई अधिकार नहीं रह पाता था। साल 2019 में जब नरेन्द्र मोदी की सरकार दोबारा बनी, इस पर उसने प्राथमिकता और मजबूती के साथ काम करना शुरू किया.
अध्ययन से पता चला कि जिस अनुच्छेद 370 को समाप्त करना एक कठिन काम माना जाता रहा, वह तो अस्थायी व्यवस्था है। फिर पांच अगस्त 2019 से जम्मू-कश्मीर में लागू इस अनुच्छेद को हटाने के ऐतिहासिक फैसले से संसद द्वारा पारित सैकड़ों कानून जम्मू कश्मीर में दूसरे राज्यों की तरह ही लागू करना आसान हो गया। इन केंद्रीय कानून और योजनाओं से रोज्य को लाभ दिखने लगे। अब वहां शिक्षा का मौलिक अधिकार सहित पिछले वर्ष तक 48 केंद्रीय कानूनों और 167 राज्य कानूनों के तहत अधिसूचित कर योजनाएं लागू होने लगीं। जम्मू कश्मीर को 370 के तहत मिले दर्जे के सिवा 35-ए भी राज्य में किसी भी बाहरी व्यक्ति के सम्पत्ति खरीदने पर रोक लगाता रहा है। अब इसकी समाप्ति के बाद कोई भी भारतीय नागरिक राज्य में मुख्यतः खेती योग्य जमीन को छोड़कर अन्य तरह की जमीन खरीद सकते हैं।
दूर हुई भेदभाव की शिकायत
जम्मू कश्मीर राज्य पुनर्गठन से लद्दाख भी अलग केंद्रशासित प्रदेश बना। इससे वहां के लोगों की भेदभाव वाली शिकायतें दूर होने लगीं। इस नए राज्य के लिए अलग से योजनाएं बनने से उनकी सीधा लाभ लोगों तक पहुंचने लगा। हाल के वर्षों में घाटी और जम्मू के साथ लद्दाख की समस्याओं को भी समझने का काम हुआ है। दो राज्यों, जम्मू कश्मीर और लद्दाख को फिलहाल केंद्रशासित की श्रेणी में ही रखा गया है। केंद्र सरकार की ओर से गृह मंत्री अमित शाह ने संसद में भरोसा दिया है कि समय आने पर जम् कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा देकर उसकी विधानसभा भी बहाल कर दी जायेगी।
स्थानीय निर्वाचित शासन प्रणाली को मजबूती
लोकतांत्रिक प्रक्रिया के प्रति मोदी सरकार की दृढ़ता का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि महबूबा सरकार में भागीदारी करते हुए ही उसने 2018 के फरवरी में पंचायत चुनाव कराए थे। बाद में राष्ट्रपति शासन के दौरान नवम्बर-दिसम्बर,2020 में ये चुनाव नई व्यवस्था के तहत कराए गये. नरेंद्र मोदी सरकार ने जम्मू और कश्मीर पंचायती राज अधिनियम, 1989 में संशोधन के लिए अपनी सहमति दे दी, तब राज्य में त्रिस्तरीय ग्राम-ब्लॉक और जिला स्तरीय पंचायत चुनाव का रास्ता साफ हुआ। इस व्यवस्था के तहत हुए चुनाव की उल्लेखनीय बात यह रही कि पाकिस्तान से लगे सीमावर्ती क्षेत्रों सुचेतगढ़ और आरएस पुरा जैसी सीटों पर क्रमश: 71.21 एवं 65.85 फीसदी तक मतदान हुआ। वैसे तो सबसे कम मतदान आतंकवाद से अत्यधिक प्रभावित दक्षिण कश्मीर के शोपियां जिले के एक क्षेत्र में 1.9 फीसद भी हुआ। खास बात यह कि कुल मतदान का औसत भी 57.22 प्रतिशत रहा, जो किसी औसत मतदान से बेहतर कहा जायेगा। इन चुनावों का सबसे बड़ा संदेश यह मानना चाहिए कि संविधान की धारा 370 की समाप्ति के बाद स्थानीय लोग अपनी चुनी हुई व्यवस्था कायम करने के उत्साह से लबरेज हैं। उन्होंने यह भी देखा है कि चुनी हुई पंचायतों को ढेर सारे आर्थिक अधिकार मिलने से स्थानीय विकास को तेज गति मिली है।
आतंकी घटनाओं पर नकेल
राज्य में मजबूत लोकतांत्रिक प्रक्रिया बनने का बड़ा लाभ यह हुआ कि पैसे की लालच देकर युवाओं को बंदूक और लड़कियों के बैग में पत्थर रखने वाले स्थानीय चरमपंथी संगठन कमजोर पड़ते गये. इसमें सेना की मदद भी महत्वपूर्ण रही. गुमराह करने वालों पर शिकंजा कसा तो कई बड़े नेताओं की कलई खुली. आतंक और अलगाववाद के लिए हो रही मनी लॉन्ड्रिंग नेटवर्क का पता चला. हुर्रियत कॉन्फ्रेंस जैसा संगठन तो एनआईए जांच के घेरे में है. फरवरी 2018 में, लश्कर-ए-तैयबा प्रमुख हाफिज सईद और हिजबुल मुजाहिदीन के प्रमुख सैयद सलाहुद्दीन सहित 12 आरोपितों पर मुकदमे हुए. आतंकवाद के लिए फंडिंग की कमर तोड़ने के लिए गैरकानूनी गतिविधियां अधिनियम, 1967 के प्रावधान मजबूत किए गये. केंद्र और राज्य की एजेंसियों ने जाली भारतीय करेंसी नोट समन्वय समूह (FCORD) और टेरर फंडिंग, फेक करेंसी की जांच के लिए टेरर फंडिंग एंड फेक करेंसी सेल (TFFC) बनाया गया. सीमाओं की 24 घंटे निगरानी के लिए अंतरराष्ट्रीय सीमा पर चौकियां स्थापित की गईं. वहां बाड़ लगाने और गश्त में तेजी भी लाई गयी है.
देश से अधिक जुड़ा जम्मू कश्मीर
परिणाम यह हुआ कि राज्य में 2019 की तुलना में 2020 में आतंकी हिंसा में 59 प्रतिशत की कमी आई. फिर 2020 में जून तक की तुलना में, वर्ष 2021 जून तक आतंकवादी घटनाएं 32 फीसदी तक कम हुईं. दुकानें और व्यावसायिक प्रतिष्ठान, सार्वजनिक परिवहन आदि के बेहतर होने से पर्यटन को बढ़ावा मिला है. सुरक्षा और गांवों की बेहतरी के लिए सीमावर्ती क्षेत्रों में सेना ने सड़कों के विस्तार के लिए काम किया है. रेलवे नेटवर्क के जरिए राज्य को शेष भारत से जोड़ने का अभियान चल रहा है. जम्मू के कोड़ी जिले में सबसे ऊंचे रेलवे पुल को बनाने के लिए आर्च पर काम पूरा हो गया है. घाटी में भी श्रीनगर सहित 15 रेलवे स्टेशनों पर सार्वजनिक वाईफाई सुविधा हो गई है. सामरिक सुरक्षा और रेलवे कनेक्टिविटी के हिसाब से उधमपुर-श्रीनगर-बारामुला रेल लिंक परियोजना के कटरा-बनिहाल सेक्शन का काम इसी साल दिसंबर तक पूरा होने वाला है. खिलनई -सुदामहादेव राष्ट्रीय राजमार्ग दो तीन साल में पूरा हो जायेगा. डोडा जिला बहुत जल्द छह किलोमीटर लंबी सुरंग के जरिए हिमाचल प्रदेश के चंबा से जुड़ जाएगा. पाकलदुल, धुलहस्ती-2 जैसी बिजली परियोजनाओं के जरिए बिजली में आत्मनिर्भरता के साथ बाहरी क्षेत्रों में भी आपूर्ति सम्भव होने वाली है.
हुआ नया सवेरा
इंफ्रास्ट्रक्चर की बात करें तो ‘स्मार्ट सिटी’ प्रोजेक्ट के तहत श्रीनगर के 20 धार्मिक स्थलों का नवीनीकरण, खेलो इंडिया के तहत उत्तरी कश्मीर के गुलमर्ग में दूसरे संस्करण का आयोजन, विदेशी बाजारों में जम्मू-कश्मीर की बागवानी, हस्तशिल्प और अन्य उत्पादों के निर्यात को बढावा, राज्य में इस वर्ष के अंत तक 50 हजार करोड़ रुपये के निवेश का लक्ष्य और पिछले ही साल तक विभिन्न औद्योगिक क्षेत्रों के लिए 25 हजार करोड़ रुपये के प्रस्ताव आ जाना महत्वपूर्ण उपलब्धियां हैं. जापान, यूएस और दुबई जैसे देशों ने इस राज्य में निवेश की इच्छा जताई है. तीन दशक में पहली बार कश्मीर के सभी 10 जिले पर्यटकों के लिए खुल गये हैं. श्रीनगर हवाई अड्डे से पहले की 15 की जगह अब प्रतिदिन 40 से अधिक उड़ानें आ- जा रही हैं. इनमें देर रात यानी सुबह की उड़ान भी है. सही मायनों में जम्मू कश्मीर में एक नई सुबह हो रही है.
हिन्दी पत्रकारिता में 35 वर्ष से अधिक समय से जुड़ाव। नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित गांधी के विचारों पर पुस्तक ‘गांधी के फिनिक्स के सम्पादक’ और हिन्दी बुक सेंटर से आई ‘शिवपुरी से श्वालबाख’ के लेखक. पाक्षिक पत्रिका यथावत के समन्वय सम्पादक रहे. फिलहाल बहुभाषी न्यूज एजेंसी ‘हिन्दुस्थान समाचार’ से जुड़े हैं.
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