भारतीय अभिनय संसार की दादीसा सुरेखा सीकरी नहीं रहीं. 16 जुलाई को उनके निधन से भारतीय अभिनय जगत ने क्या खोया है, यह वे ही लोग जानते हैं, जिन्होंने सुरेखा सीकरी को रंगमंच के अलावा छोटे और बड़े पर्दे पर अलग-अलग पात्रों का अभिनय करते हुए नहीं, बल्कि उन्हें जीते या साकार करते देखा है. कोई अपने चेहरे की सलवटों और झुर्रियों की हरकतों और जुम्बिशों से भी अभिनय के प्रतिमान रच सकता है, यह यदि सीखना हो तो आप सुरेखा सीकरी को जरूर देखें.
वैसे यह जुमला बहुत आम है कि फलां आदमी अपने आप में अभिनय का स्कूल था, लेकिन सुरेखा सीकरी के मामले में यह जुमला नहीं, बल्कि हकीकत है. अभिनय में चेहरे पर भावों और संवेदनाओं की गहराई को उतारने के लिए जो साधना और तपस्या चाहिये, वह उनके अभिनय में साकार होती दीखती है. चमड़ी के नीचे धमनियों और शिराओं में बह रहे खून की हरकतों को चमड़ी के ऊपर दिखा देना उनके ही बूते की बात थी. दिल की कसक हो या दिमाग की उलझन उनकी आंखों, होठों और गालों पर आने वाली बारीक से बारीक हरकतों में उन्हें आसानी से पढ़ा जा सकता था.
सीरियल बालिका बधू से मिली बड़ी पहचान
मैंने सुरेखा सीकरी को इस सदी के पहले दशक (2008) के बहुचर्चित टीवी सीरियल ‘बालिका वधू’ से जाना. और जाना क्या, बस उनके अभिनय का कायल हो गया. अपने आप में एक सामाजिक संदेश को लपेटे हुए वह सीरियल मुख्य रूप से दो पात्रों पर टिका था. एक बालिका वधू आनंदी और दूसरी उसकी दादी सा यानी दादी सास. और इन दोनों ही पात्रों ने जिस तरह अपने अभिनय से उस पूरी कथा को संभाला वह आज भी कमाल लगता है.
संयोग देखिये कि ये दोनों ही पात्र अपनी समग्र देह की भाषा के बजाय ज्यादातर अपने चेहरे को अभिनय के लिए इस्तेमाल करते नजर आते हैं. उस सीरियल के कई दृश्य ऐसे हैं जहां बालिका वधू और दादी सा में सिर्फ आंखों के जरिये, सिर्फ चेहरे की हलकी सी जुम्बिश के जरिये या फिर स्पर्श मात्र से बहुत ही गहरा संवाद हुआ है.
सुरेखा सीकरी मूल रूप से राजस्थान से नहीं आतीं, लेकिन उनकी संवाद अदायगी में राजस्थानी बोली का वह लहजा पूरी प्रभावशीलता के साथ मौजूद रहता है. बालिका वधू में दादीसा का चरित्र शायद इसीलिए इतना प्रभावी बन पाया, क्योंकि सुरेखा सीकरी उस स्त्री समाज की पीड़ा को बहुत गहराई से समझती थीं, जो हमेशा से पुरुष प्रधान समाज में दबाया जाता रहा है. रूढि़यों, सड़ी गली परंपराओं और अंधविश्वासों ने स्त्री की पीड़ा और उसके दर्द को कई गुना बढ़ाया है.
राजस्थान की पृष्ठभूमि को लेकर रची गई थी बालिका वधू की कहानी
बालिका वधू की कहानी भी राजस्थान की पृष्ठभूमि में एक बहुत बड़ी समस्या को लेकर रची गई थी. यह सुरेखा सीकरी के ही बस की बात थी कि वे उसमें पहले एक परंपरागत पुरातनपंथी और तत्कालीन सामाजिक बंधनों से बंधी महिला की भूमिका निभाती हैं, तो बाद में समय के साथ खुद को बदलते हुए अपने आपको उन बंधनों से तोड़ती हुई, अपनी गलतियों पर पश्चाताप भी करती हैं. और एक पात्र के रूप में चरित्र के इस रूपांतरण को वे पूरी विश्वसनीयता और प्रामाणिकता के साथ जीती हैं.
बालिका वधू को देखने वाली पीढ़ी पुरानी पड़ गई है, लेकिन जिस नई पीढ़ी ने करीब ढाई साल पहले आई फिल्म ‘बधाई हो’ देखी हो, तो वे नारी पात्र की आधुनिकता और परंपराओं एवं सड़ी गली मान्यताओं को तोड़ देने की दृढ़ता सुरेखा सीकरी के उस दृश्य में देख सकते हैं, जब वे पकी हुई उम्र में मां बनने वाली अपनी बहू के पक्ष में पूरी ताकत से खड़ी नजर आती हैं. मुझे लगता है वह रोल उनके बालिका वधू के रूपांतरण का ही अगला पड़ाव है.
‘बधाई हो’ मेरे लिए ऐसी ही एक खास ट्रेन यात्रा की तरह थी, जो मेरे जीवन में एक खास मुकाम लेकर आई. मैं आभारी हूं कि इस दौरान मुझे सुरेखा सीकरी जैसे व्यक्तित्व का साथ मिला जो इस यात्रा में भावनाओं और संवेदनाओं की दिशासूचक थीं. सेट पर निश्चित रूप से उनके मुकाबले दिल से जवान और कोई नहीं था…’
अब मिलना मुश्किल है सुरेखा सीकरी जैसा व्यक्तित्व
‘बधाई हो’ के डायरेक्टर अमित रवीन्द्रनाथ शर्मा कहते हैं कि उन्होंने इस फिल्म में दादी की भूमिका के लिए दुनिया भर में सही पात्र की तलाश की. लेकिन, आखिरकार उनकी तलाश ‘बालिका वधू’ की दादीसा यानी सुरेखा सीकरी पर ही आकर खत्म हुई. लेकिन, यहां भी सुरेखा सीकरी के व्यक्तित्व का वो पहलू उजागर होता है, जो आजकल के कलाकरों में मिलना दुर्लभ है.
एक बार यूं ही एनएसडी का प्रसंग निकल आने पर प्रसिद्ध रंग निर्देशक बंसी कौल ने मुझसे बातचीत में कुछ रंगकर्मियों का खासतौर से जिक्र किया था और उसी दौरान सुरेखा सीकरी का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा था कि उनकी तो चमड़ी भी अभिनय करती है. भारतीय अभिनय संसार में चरित्र भूमिका निभाने वाली दो सशक्त कलाकारों को बहुत आदर के साथ याद किया जाता है उनमें से एक थीं जौहरा सहगल और एक सुरेखा सीकरी. दोनों ने ही अभिनय में अपने चेहरे की रेखाओं से पूरा रंगमच या पूरा स्क्रीन रंग डाला.
यह भी संयोग ही है कि दोनों ने ही अपने अपने अंदाज में फैज अहमद फैज की गजल- ‘मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग’ को पेश किया है. यूट्यूब पर दोनों की गाई यह गजल मौजूद है. मेरे कहने पर मत जाइये पर दोनों को देखिये जरूर और महसूस कीजिये इन कलाकारों की अभिनय क्षमता की ताकत को. बस एक बात का ध्यान रखियेगा ऐसा अभिनय सिर्फ आंखों से देखने की नहीं बल्कि रूह से महसूस करने की मांग करता है…