इन दिनों भाषा को लेकर कुछ ज्यादा ही बहस हो रही है. लेकिन यह बहस संचार माध्यम के रूप में प्रयुक्त होने वाली भाषा पर कम और राजनीति पर ज्यादा केंद्रित है. इसका नतीजा यह हो रहा है कि भाषा और उसके जरिये हमारी समूची संस्कृति पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर यथार्थपरक विमर्श नहीं हो पा रहा है. मध्यप्रदेश में पिछले दिनों मेडिकल की पढ़ाई हिंदी में कराए जाने को लेकर हुए निर्णय की देश भर में चर्चा हुई थी और उसके बाद अन्य कई राज्यों से मेडिकल एवं इंजीनियरिंग की पढ़ाई हिंदी में कराए जाने की मांग उठी है. ऐसी ही मांग अदालतों का कामकाज हिंदी में किए जाने को लेकर भी समय समय पर उठती रही है.
हाल ही में मध्यप्रदेश में भाषा को लेकर एक और खबर ने ध्यान आकर्षित किया है. खबर ये है कि सरकार राज्य के भील समुदाय की बहुलता वाले क्षेत्रों में भीली भाषा में पढ़ाई पर विचार कर रही है. अब प्रदेश के दो अधिसूचित जिलों झाबुआ और अलीराजपुर के स्कूलों में पहली एवं दूसरी कक्षा के बच्चों को भीली (भिलाली) भाषा में पढ़ाई कराएगी. स्कूल शिक्षा विभाग इसका मसौदा तैयार कर रहा है. फिलहाल इस योजना को अलीराजपुर और झाबुआ के करीब 2000 स्कूलों में लागू करने की योजना है. भीली भाषा में शिक्षा दिए जाने की आधारभूमि तैयार करने के इरादे से भीली भाषा के विशेषज्ञों और विषय से जुड़े गैर सरकारी संगठनों से भी विचार विमर्श किया जा रहा है. इसमें शिक्षण सामग्री तैयार करने का मुद्दा भी शामिल है.
भीली भाषा पश्चिमी हिन्द-आर्य भाषाओं का एक समूह है जो भारत के राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र तथा मध्य प्रदेश के लगभग 60 लाख भील बोलते हैं. इसे ‘भीलबोली’, ‘भगोरिया’, ‘भिलाला’ और राजस्थान में ‘वागड़ी भाषा’ के नाम से भी जाना जाता है. यह देवनागरी लिपि में लिखी जाती है. इस भाषा में साहित्य भी रचा गया लेकिन यह सृजन मुख्य रूप से मौखिक ही हुआ है और यह भाषा श्रुति परंपरा से ही अब तक जीवित है. भीली भाषा में पढ़ाई करवाए जाने की मांग भी नई नहीं है. पहले भी इस तरह की मांग उठती रही है.
करीब दो साल पहले अक्टूबर 2020 में रतलाम-झाबुआ क्षेत्र के सांसद गुमानसिंह डामोर ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा था कि उनके क्षेत्र की स्थानीय भाषा भीली है. इसे भी पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए. इसके लिए विशेष तैयारियों के तहत डिक्शनरी तैयार कर हिंदी और अंग्रेजी को भीली भाषा में रूपांतरित करने का काम भी हो. नई शिक्षा नीति में भी भाषा पर खासा जोर दिया गया है. नीति के बारे में जानकारी देते हुए इसे तैयार करने वाली समिति के अध्यक्ष एवं वरिष्ठ वैज्ञानिक के. कस्तूरीरंगन ने कहा था कि नई शिक्षा नीति में त्रिभाषा फार्मूला प्रस्तावित है. पांचवीं कक्षा तक शिक्षा का माध्यम स्थानीय भाषा में होना शिक्षा के प्रारंभिक चरण में महत्वपूर्ण है क्योंकि बच्चा अपनी मातृभाषा और स्थानीय भाषा में चीजों के प्रति अच्छे से समझ बनाता है और अपनी रचनात्मकता व्यक्त करता है.लेकिन मातृभाषा में शिक्षा और उससे जुड़े फायदे देखने के साथ ही कुछ व्यावहारिक पहलुओं पर भी ध्यान देना जरूरी है.
यदि भीली भाषा का ही उदाहरण लें तो ऐसे निर्णयों में सबसे बड़ी दिक्कत संबंधित भाषा या बोली में पाठ्य सामग्री तैयार करवाने की है. दूसरी बात यह कि ऐसी ज्यादातर बोलियां अथवा भाषाएं अभी तक श्रुति परंपरा से ही जीवित रहती आई हैं. ऐसे में उनके मानकीकरण का सवाल जरूर उठेगा. एक ही भाषा या बोली अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग उच्चारण के साथ बोली जाती है और स्थानीय बोलियों अथवा क्षेत्रीय भाषाओं के साथ तो यह बात और अधिक लागू होती है. ऐसे में पाठ्य पुस्तकों में कौनसी भाषा प्रयुक्त हो इसका निर्णय कैसे होगा और कौन करेगा. एक मामला ऐसी भाषा में पढ़ाने वाले शिक्षकों का भी है. अभी नियमित विषयों के शिक्षक ही नहीं मिल पा रहे हैं या कि रिक्त पद होने के बावजूद उनकी भरती नहीं हो पा रही है, ऐसे में नई बोली या भाषा में पढ़ाने वाले आएंगे कहां से.
स्थानीय बोली या भाषा में चूंकि अभी तक कोई अधिकृत पाठ्यक्रम नहीं है ऐसे में उन शिक्षकों की योग्यता के मापदंड क्या होंगे? हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि समाज बदल रहा है. प्रचलित या ताकतवर भाषाओं के प्रभाव का दायरा बढ़ता जा रहा है. एक तथ्य यह भी है कि जैसे-जैसे भाषा का दायरा और प्रचलन बढ़ता है वह स्थानीय भाषा या बोली को खाती जाती है. यानी उन स्थानीय भाषाओं अथवा बोलियों में उस ताकतवर एवं प्रचलित भाषा के शब्दों की भरमार होती चली जाती है. और यह घुसपैठ उस भाषा के मूल चरित्र को खत्म या दूषित कर देती है. इसे यूं समझिए कि हिंदी जैसी ताकतवर भाषा को भी अंग्रेजी ने अपने प्रचलन की ताकत से काफी हद तक प्रभावित किया है और यही कारण है कि आज हम हिंदी और हिंग्लिश जैसे विषय पर बहस कर रहे हैं.
एक बात और… भावनात्मक रूप से और उससे भी ज्यादा राजनीतिक रूप से स्थानीय बोली अथवा भाषा में पढ़ाई का मुद्दा लोकलुभावन हो सकता है, लेकिन क्या लोकमानस इसके लिए वर्तमान परिस्थिति में तैयार है? चूंकि घर से बाहर किसी दूसरी भाषा का प्रभाव और प्रचलन होता है, इसलिए बच्चा भी उसी भाषा में बोलना और उसे ही सीखना चाहता है. और यदि ऐसा नहीं होता तो वह दोनों भाषाओं के बीच दुविधा के झूले पर झूलता रहता है. अब गांवों के बच्चे भी कस्बे या शहर में आकर गांव की बोली को अपनाने या बोलने से झिझकते हैं.
मुझे याद है इंदौर में हम जहां रहते थे वहां आसपास के सारे घरों में मालवी बोली ही बोली जाती थी, लेकिन स्कूल में बच्चे मालवी बोलने से कतराते या झिकझकते थे. एक अलग तरह की शर्म या पिछड़ापन महसूस करते थे. कहा जा सकता है कि त्रिभाषा फार्मूला बाकी भाषाओं को सिखाने की भी व्यवस्था रखता है, लेकिन इससे उन बच्चों पर कितना मानसिक बोझ पड़ेगा जिनकी भाषा की बुनियाद ही बहुत कच्ची है. ऐसे में वे या तो अपनी बोली में ही पूरी पढ़ाई करना चाहेंगे या फिर दूसरी भाषा सीखने के बजाय पढ़ाई से ही कतराने लगेंगे. अब यदि हम कहें कि उन्हें उनकी बोली या स्थानीय भाषा में ही पढ़ाई पूरी करवा दी जाएगी, तो क्या ऐसा करना संभव होगा.
शुरुआती एक दो कक्षाओं तक तो आप इस कर्म को जैसे-तैसे निभा लें, लेकिन पूरी स्कूली शिक्षा और बाद की महाविद्यालयीन अथवा विश्वविद्यालयीन शिक्षा इसमें कैसे दे पाएंगे. अभी कई पाठ्य पुस्तकें हिंदी में तो मिलती नहीं, ऐसे में किसी अन्य बोली या भाषा में उसे कैसे उपलब्ध करवाया जाएगा? वांछित संसाधन कहां से जुटेंगे?एक पक्ष बाल मनोविज्ञान का भी है. स्थानीय बोली या भाषा से पाई गई शिक्षा के आधार पर आगे बढ़ने वाले बच्चे इस प्रतिस्पर्धी दुनिया में किस तरह टिकेंगे? और न टिक पाने के कारण उनमें जो हीनभाव या अवसाद पैदा होगा उसका क्या? इस संदर्भ में अभी हाल की ही एक घटना को एक सबक के तौर पर लिया जाना चाहिए, जब 18 वर्ष की एक लड़की ने, जो एयर होस्टेस बनना चाहती थी, ठीक से अंग्रेजी न आने के कारण पैदा हुए अवसाद के चलते आत्महत्या कर ली. और ध्यान देने वाली बात ये है कि वह लड़की इंदौर जैसे आधुनिक शहर की थी किसी गांव या कस्बे की नहीं. तो जब इतने बड़े शहर के बच्चों में भाषा को लेकर पैदा होने वाले अवसाद की यह स्थिति है तो गांव या कस्बों के बच्चों के बारे में कल्पना ही चिंता पैदा करती है.
कहने का आशय यह है कि भाषा के मामले को राजनीतिक या लोकप्रियता अर्जित करने वाले नजरिए से देखने के बजाय व्यावहारिक नजरिये से भी देखने की जरूरत है. आज भीली भाषा में पढ़ाई की बात हो रही है कल को यदि गोंड अथवा बैगा समुदाय की ओर से अपनी बोली में पढ़ाई की मांग उठे तो क्या हम उनके लिए व्यवस्था करने में सक्षम हैं? स्थानीय बोली और भाषा को अवश्य ही जिंदा रहना चाहिए. लेकिन उसका तरीका क्या हो, इस पर बहुत गंभीर विमर्श की जरूरत है. हर काम स्कूल में करवाने के बजाय क्या हम भाषा के रूप में मौजूद हमारी सांस्कृतिक विरासत को किसी दूसरे ढंग से संजो नहीं सकते.
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