नई दिल्ली. वो कहती हैं, ‘मैं अभी भी अपने सपनों में पेशावर के अपने घर को देखती हूं. मेरी बालकनी और बड़े आंगन में फूलों के पैटर्न और झरोखों को लटका हुआ देखती हूं, जहां मैंने आशा करना, उछलना और कूदना सीखा है. मैं बस एक बार वहां जाने के लिए तरस गई हूं. क्योंकि मैं आखिरी जीवित कपूर हूं, जिसका यह घर है.'
ये 93 वर्षीय शांता कपूर धवन (Shanta Kapoor Dhawan) कह रही हैं जो रंगमंच और फिल्मों के महान स्टार कलाकार, दिवंगत पृथ्वीराज कपूर (Prithviraj Kapoor) की छोटी बहन हैं. वो बड़ी ही सटीकता के साथ अपने एक बिछड़े घर का वर्णन कर रही हैं, वह घर, जिसे उनके पिता ने पाकिस्तान के पेशावर में बनाया था. सोचिए, ऐसे कितने लाखों घर रहे होंगे, जो पीछे छूटे होंगे.
2017 में ही स्वर्गीय ऋषि कपूर (Rishi Kapoor) ने एक रविवार के रोज़ ट्वीट किया था
'I am 65 years old and I want to see Pakistan before I die. I want my children to see their roots. Bas karva dijiye (Please make it happen),' सोचिए, वो ऋषि कपूर हो कर भी कितने बेबस लग रहे हैं.
दरअसल, जड़ों से जुड़ाव एक स्वाभाविक फितरत है. ये प्यास रखना जीवित होने की निशानी है. हर इंसान मन में, घर वापसी की ये ख्वाहिश रखता है. अपने बच्चो को अपनी मिट्टी से मिलवाना चाहता है.
यहां मुझे वेल्श भाषा का एक शब्द याद आ रहा है- Hiraeth
इस शब्द का अर्थ है, एक ऐसे घर को छूने की प्यास जहां वापसी के सब दरवाज़े बंद हो चुके हों. एक ऐसा घर जिस की याद भर दर्द और टीस देती है. कुछ ऐसी ही स्थिति थी नानी की भी.
नानी की जड़ों से जुड़ने की प्यास
धुंधली होती आंखों की रोशनी, डिमेंशिया से कमज़ोर होता मस्तिष्क भी इस मजबूत ख्वाहिश को, हमारी नानी के लिए कम नहीं कर पाया था. बल्कि डिमेंशिया का असर कुछ ऐसा था कि नानी ज़्यादातर वक्त अपने रावलपिंडी (Rawalpindi) वाले घर में ही बिताया करती थीं. मुझसे बात करते वक्त उन्हें लगता मैं उनकी सारी बचपन की सहेलियों को जानती हूं, उनके नाम से उन्हें पहचानती हूं. कभी कभी उनको उस घर में घूमते देख मुझे पीड़ा भी होती. फिर लगता, ठीक ही तो है.
अपने काल्पनिक घर में कितनी खुश रहती हैं वो. फिर कसक होती, कसमसाहट होती कि क्या अच्छा होता, मैं उन्हे वागाह पार करवा पाती. करवा पाती सरहद पार उन्हें, शायद ठंड पड़ जाती उनके कलेजे को. और मेरे भी... पर ये हो ना सका. उनकी इस स्तिथि को देख मैं भी अमृता प्रीतम की तरह अर्ज़ी लगाना चाह रही थी. शिकायत करना चाह रही थी. अमृता के वारिस शाह से, जा आखिं वारिस शाह नू!! पर बात वारिस शाह के हाथ में नहीं रही.
दो आज़ाद मुल्कों को, अपनी तल्खियों के बीच, ना ही ज़रूरत है और ना ही परवाह है, ना वारिस शाह की, ना अमृता प्रीतम की और ना ही नानी के जज़्बात की. सियासी दांवपेचों में नानी की जड़ों से जुड़ने की प्यास के क्या मायने?? पर आम लोगों को इनके मायने समझ में आते हैं. और मेरी अर्ज़ उनको समझ भी आई. वो ऐसे कि...
2017 में मैंने नानी को उनके घर से जोड़ने की एक कोशिश की. कोई सुनेगा, तो मुझे भी बावरा कहेगा और सरहद पार के उन नई उम्र के बच्चों को भी, बावरा समझेगा. जोड़ने वालों को वैसे भी सब बावरा ही तो कहते हैं.
मेरी कोशिश
खैर, हुआ यूं कि मैंने इधर से हाथ दिया, उधर से भी हाथ पकड़ने की कोशिश हुई. इधर मैंने सरहद पार रावलपिंडी वाले एफबी पेज पर कनेक्ट किया, नानी के गांव से जुड़ने की अपनी मंशा ज़ाहिर की. उधर से भी, मुझसे बिल्कुल अनजान, दो नेकदिल बच्चों ने मदद करने की अपनी इच्छा ज़ाहिर कर दी. उन्हें मैंने, नानी के घर के बारे में जितना याद था, उतना बताया. वो सारे लैंडमार्क्स जिनके बारे में अपने बुजुर्गों से सुनते आए थे, उनके बारे में उन बच्चों को बताया.
गुजरखान रेलवे स्टेशन
गुजरखान और बड़की के बीच का रेलवे फाटक
फाटक पार करते ही कब्रिस्तान और पीर बाबे की मज़ार
इन सब से आगे, बक्शीयां दा मोहल्ला

गुजरखान से गांव के रास्ते फाटक. रेलवे लाइन जो पेशावर को अमृतसर से जोड़ती थी.
नानी का घर
मुझे जान के सबसे बड़ी खुशी ये हुई कि वो मोहल्ला, आज भी नानी के परिवार वालों के नाम से ही जाना जाता है. 70 साल बाद आज भी बड़की में बक्शीयां दा मोहल्ला और बक्शीयां दा खू (कुआं), दोनों हैं. हालांकि अब उस कुएं पर पूरा प्लास्टर हो चुका है. उन युवाओं ने अब उस प्लास्टर हो चुके कुएं की भी फोटो भेजी. उन नेक दिल बच्चों ने इस्लामाबाद से मुझे ये तस्वीरें भेजी थीं.
उन्होंने कहा था इन तस्वीरों को बक़रीद की सौगात समझिए. भला हो उन युवा पाकिस्तानी बच्चों का, जिन्होंने सरहद पार से मेरी मदद की. उन्होंने मेरी नीयत पर भरोसा किया, मेरी ख्वाहिश को महसूस किया. बिना शक और शुबे के, मुझे मेरी नानी के गांव से जोड़ा.
ये वो जगह थी, जहां से 70 साल पहले मेरे बुज़ुर्गवार हिंदुस्तान आये थे. वो बुज़ुर्गवार जिनकी मां बोली पोथवारी थी. इस्लामाबाद के उन दो नेकनीयत युवाओं के लिए, दिल से बहुत बहुत दुआएं. यही नहीं कुछ दिन बाद, एक तीसरे युवा, सैफ़ (सैफ़ द डॉन अख़बार के लिए लिखते हैं) ने अपनी मूंगफली खाते हुए की फोटो भेजी और लिखा,
'These peanuts are the best in Pakistan. The shop owner told me about this big bazar in gujar khan from where they buy this. And it reminded me of the people who left the area ....everything with it. I wonder if they can still recall the taste.'
हिंदी में कहें तो
'यह मूंगफली पाकिस्तान में सबसे बढ़िया हैं. एक दुकानदार ने मुझे गुजर खान में इस बड़े बाजार के बारे में बताया, जहां से वे इसे खरीदते हैं. यह मुझे याद दिलाती है उन लोगों की जो इस इलाके और इसके साथ सबकुछ छोड़ दिया. मुझे आश्चर्य होता है कि क्या उन्हें अभी भी इसका स्वाद याद होगा.'
अब सैफ़ को क्या बताऊं कि नानी को किस किस चीज़ के स्वाद मरते दम तक याद रहे. बस अब तो एक ही तमन्ना है, कोई भी व्यक्ति अपने घर को देखने की आस दिल में लिए, दुनिया से ना जाए. इसलिए यही बावरी ख्वाहिश है कि दोनों तरफ़ से रीकनेक्ट विद रूट्स, टूरिज्म को बढ़ावा मिले. पिछले साल अप्रैल में पाकिस्तान सरकार ने राज कपूर कि हवेली और साथ ही, दिलीप कुमार साब के पुश्तैनी घर को भी संरक्षित करने का फैसला लिया. अच्छा फैसला है. बस इस हवेली के दर्शन अब शांता कपूर धवन को भी हो जाएं, मेरा बावरा दिल उनके लिए यही प्राथना करता है.
जैसे अमृता प्रीतम की पिंजर में आखिर में पूरो अपने भाई से कहती है, 'भैय्या, लाजो घर आ रही है, समझना उसी में पूरो भी वापिस आ गई है.' शायद, शांता कपूर धवन में नानी की 'बहुत आरज़ू थी गली की तेरी…' वाली ख्वाइश को भी शांति मिल जाए.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)