बात बहुत पुरानी है. उस वक्त की है जब फ्रंटियर मेल बिना रोक टोक इधर से उधर अपना पूरा लंबा सफ़र तय किया करती थी. दिल्ली और लाहौर एक ही देश में हुआ करते थे और इन दोनों ऐतिहासिक शहरों का देश भारत, गोरों का गुलाम हुआ करता था. गोरों के इस गुलाम देश में आजाद था तो सिर्फ बचपन. चतुर्भुज का बचपन.
चतुर्भुज का बचपन
चतुर्भुज, खेलने में मस्त, पढ़ाई में सदा आगे रहता था. होशियार इतना कि हिसाब में सौ में सौ आते थे. आस पड़ोस के उम्र में बड़े लड़के भी अपने ‘हिसाब’ के सवाल हल करवाने उसी के पास आया करते थे. लेकिन इस छोटी उम्र में भी उसे प्यार हो गया था. बुद्धो से प्यार… जिस लड़के ने कभी अपने शहर की हद्द पार नहीं की थी. वो लड़का अब प्यार में हद्द पार करने लगा था.
गुमशुदा की तलाश
एक दिन चतुर्भुज स्कूल से लौटा ही नहीं. मां का रो-रो के अपने लाल के लिए बुरा हाल हो गया. अभी सुबह ही तो उसने अपने हाथ से तैयार कर चतुर्भुज को हंसता खेलता स्कूल भेजा था. चतुर्भुज के साथ स्कूल जाने वाले बड़े लड़कों ने भी बताया कि वापसी में फाटक पार कर वो कब्रिस्तान तक तो उनके साथ आया था पर शायद लड़कों के घर लौटते झुंड से वो कहीं पीछे छूट गया था. गांव के उस बावरे ‘मोहकू मिशर’ ने तो मां को और ही डरा दिया, “हे पाभो, किद्रे ओ गोरियां मेमा ते उसनूं चा के नहीं ले गइयां.” (हे भाभी कहीं वो गोरी मेमें तो उसे उठा के नहीं ले गईं).
दरअसल, कुछ दिनों पहले की ही बात थी. दो गोरी मिशनरी औरतें उस तरफ आई थीं. गोरे, खूबसूरत नैन नक्श वाले चतुर्भुज और उसकी बड़ी बहन चंद्रावली को देख वो दोनों जरा ठहर गईं थीं. दोनों बच्चों के सर पर हाथ फेरते गाने लगीं, “बोलो संतो ईसा नाम.” दोनों बच्चों को उन गोरी मिशनरी मेमों ने कहा कि अगर वो चाहें तो दोनों मिशनरी मेमें उन्हें अपने साथ ‘वलायत’ ले जा सकती हैं. ‘वलायत’ सुनते ही दोनों भाई बहन ‘छूट वड के’ सरपट दौड़ते घर को भागे.
मोहकू मिशर द्वारा मेमों और ‘वलायत’ की याद दिलाते ही मां का कलेजा मुंह में आ गया. आंखों से ये भर भर के आंसू निकलने लगे. वलायत तो रावलपिंडी से बहुत दूर था. वहां कौन चतुर्भुज को ढूंढने जाएगा. उधर, गांव की धर्मशाला ‘भाई संसारू दी थली’ पर कोई मुराद पूरी होने पर कड़ा परशाद बांट रहा था.
पड़ोसी मोहल्ले का लड़का उमरा खान, दौड़ कर वहां लगी भीड़ में भी देख आया पर चतुर्भुज का वहां भी कोई अता-पता नहीं था. घंटों निकल गए और फिर यूं ही रोते रोते शाम हो गई. अंधेरे-अंधेरे पिता घर को लौटे तो देखा साथ चतुर्भुज भी था. पिता पुत्र दोनों हंसते-गाते लौट रहे थे. रोते-रोते मां का जो चेहरा पीला पड़ चुका था अब बाप-बेटे के हंसते चेहरे देख गुस्से में लाल हो गया. “डंमढ़ी”(कपड़े धोने में इस्तेमाल होने वाली थापी) उठा ली. सोचा, “अपने पूत को ऐसा मारूं, पेई ग्वांडन (पड़ोसन) देखे”. फिर अपने को ही समझाया, “क्यों देखे?” डमढ़ी फेंक दी. गुस्सा गायब हो गया, प्यार से मां ने बच्चे को गले लगा लिया. पिता ने बताया कि चतुर्भुज स्कूल से सीधे उनके पास ‘हवेली’ चला गया था, बुद्धो को मिलने.
बुद्धो वो बछिया थी जिससे चतुर्भुज को लगाव था और हवेली भी जमींदार की हवेली नहीं बल्कि ढोर डंगर बांधने वाली जगह थी. गांव देहात में आज भी ढोर डंगर बांधने वाली जगह, घरों से अलग होती है. इस घेर को अलग अलग जगह अलग अलग नामों से जाना जाता है. ये नाम आंचलिक और प्रांतीय भाषा और प्रथा अनुसार रखे जाते हैं.
बुद्धो
बुद्धो, बुध को जन्मी थी इसलिए घरवालों ने बिना ज्यादा सोच विचार के ही उसका नामकरण कर दिया था, बुद्धो. स्कूल तो उसे जाना नहीं था इसलिए एक ही, यानी घर का नाम, बुद्धो ही पर्याप्त था. नन्हे चतुर्भुज को उसने पैदा होते ही अपने प्रेम पाश में बांध लिया था. चतुर्भुज उसे दुलार से ‘बुद्धां, बुद्धां’ भी कहता. बुद्धो के प्यार में उसने सानी पानी करना भी सीख लिया था. जैसे-जैसे बुद्धो कद काठी में बड़ी हुई, रूप रंग से और निखरने लगी. उसके गले में पड़ी कंठी चतुर्भुज को अपनी ओर खींचने में सफल हो जाती. बस इसी में खिंचता चतुर्भुज उस दिन ‘हवेली’ चला गया था.
लेकिन अब मां के सामने चतुर्भुज ने कान पकड़ लिए थे, वचन दिया था कि फिर कभी बिन बताए वो बुद्धो से मिलने हवेली नहीं जाएगा. और एक दिन खैर, गर्मी की छुट्टियां हो गईं थीं. स्कूल बंद हो गया. चतुर्भुज को ढे़र सारा स्कूल का काम यानी हॉली-डे होमवर्क करने को मिला था. 100 सवाल तो अकेले हिसाब के ही करने थे. अब नियम से वो मां को बता कर सुबह अपने पिता के साथ हवेली जाता. कुछ देर बुद्धो के साथ खेलता, उसे सानी पानी करता. और फिर वहीं पास में चारपाई पर बैठ नई कॉपी में बड़े सलीके से सवाल निकालता.
दिन बीतने लगे और एक, दो, तीन करते करते उसने आखिरकार सौ सवाल पूरे कर लिए थे. सौ सवाल पूरे कर लेने की खुशी उसके चेहरे पर नूर की तरह बिखरी थीं. वो बहुत खुश था. उस दिन दोनों पिता पुत्र खाना खा पेड़ के नीचे आराम फरमाने लगे. शाम हुई, घर जाने की बारी हुई. चतुर्भुज ने अपना बस्ता उठाया तो देखा पास रखी गणित की कॉपी गायब थी. यहीं पास ही में तो चारपाई पे रखी थी. बस्ते में भी नहीं थी. अचानक नज़र गई तो देखा बुद्धो कॉपी की जुगाली कर रही थी. बुद्धो ने कॉपी पच्चीस परसेंट भी ना छोड़ी थी. बेचारा चतुर्भुज, उसके टप-टप आंसू बहने लगे.
सारी मेहनत बेकार हो गई. सौ सवालों की पूरी कवायद उसे दोबारा करनी पड़ेगी ये सोच कर, उसका रोना चीख में बदल गया. खैर, चतुर्भुज उस दिन भी बहुत रोया चीखा था जिस दिन वो बुद्धो से बिछड़ा था. सन 1947 के बंटवारे के साथ देखते ही देखते चतुर्भुज इधर का हो गया और बुद्धो उधर की हो कर रह गई. इधर सिर्फ इंसान आए. घर, वाणियां, बन, खू, गाड़ा, हवेली, पीर बाबा की मजार, भाई संसारू दी थली…सब वहीं रहे. जिस उमरा खान की जेब में आगे हवेली गई, उसी के नाम चतुर्भुज की बुद्धो भी हो गई. धन्यवाद.
ज्योत्सना तिवारी अधिवक्ता हैं. इसके साथ ही रेडियो जॉकी भी हैं. तमाम सामाजिक कार्यों के साथ उनका जुड़ाव रहा है. इसके अलावा, लेखन का कार्य भी वो करती हैं.
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