मानसून की पहली बारिश के साथ ही “वो कागज़ की कश्ती” वाला बच्चों की नानी का घर आंखों के सामने तैरने लगा है. याद आने लगे हैं उस कश्ती पे सवार कुछ ऐसे पात्र जिन को किसी कहानीकार की कलम ने नहीं, ऊपर वाले ने खास अपने हाथों से बनाया था और फिर उन्हें हमारे बचपन में रंग भरने के लिए हमारे जीवन में उतार दिया था. चलिए मिलवाती हूं ऐसे ही दो पात्रों से. जॉन और मार्गरेट से…
नाम सुन कर ऐसा नहीं लग रहा जैसे बात जॉन मेजर और मार्गरेट थैचर की हो रही हो? जी नहीं, आज का लेख 10 डाउनिंग से नहीं, दिल्ली 9 से है. ये अस्सी और नब्बे के दशक वाली दिल्ली 9 के कुछ ऐसे पात्र हैं जिन के व्यक्तित्व को ऊपरवाले ने कुछ यूं चार चांद लगाए थे जैसे सीधे किसी खास उपन्यासकार के खास कैरेक्टर्स चले आ रहे हों. लेकिन जॉन और मार्ग्रेट तक पहुंचने के लिए हमें पहले मिलना होगा उदयपाल और उसकी मां माया से.
मां बेटे की जोड़ी
उदयपाल और माया, ये मां बेटे की एक अद्भुत जोड़ी थी. दोनों, जब दिल्ली 9 की सड़क पर चलते थे तो दोनों के बीच छह मीटर का फासला हुआ करता था. माथे पर चिंता की गहरी लकीरें लिए तेज़ रफ़्तार से चलते हुए उदयपाल आगे आगे. भौहें हमेशा तनी हुई, तेज़ कदम भरते हुए, जैसे कहीं पहुंचने की जल्दी हो. ढीली ढाली पैंट को वो कुछ यूं ऊपर से खोंस कर पहनता, कि पैंट नीचे टखने से चार उंगल ऊंची हो जाया करती. उदयपाल को फॉलो करती उस के पीछे पीछे दूरी मेंटेन कर चलती उस की मां, माया.
माया, गंदा सा सूट पहने, जुओं से भरे सर को खुजलाती हुई. खुद से ही बात करती हुई, मानो उसे दुनिया जहान से कोई लेना देना ही न हो. वो गर्मी की तपती दोपहरी में भी गर्म कोट पहने रहती. यही नहीं उस गर्म कोट के ऊपर बड़े बड़े फूलों वाली ओढ़नी भी ओढ़े हुए रहती. ठीक वैसी ही फूलों वाली ओढ़नी जैसी आज भी हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गांवों में महिलाएं पहने हुए दिख जाती हैं. अब आप इन मां बेटे की जोड़ी को कुछ कुछ समझ पा रहे होंगे. समझदार लोग तो वैसे हुलिया देख कर ही इंसान को परख लेते हैं.
ख़ैर, दोनों मां बेटा दिल्ली के किसी लाल डोरा गांव से हमारी कॉलोनी में रोज़ सुबह काम की तलाश में आया करते थे. अधिकतर घरों से उन्हें दुत्कार मिलती थी, और कुछ ही घरों से स्नेह. सारे कामों से फुर्सत पा कर मां और बेटा अक्सर हमारे घर आ जाते. हमारे घर के अशोक के पेड़ के नीचे बैठ दोनों कुछ यूं शान से बीड़ी पिया करते मानो बीड़ी सेहत के लिए बड़ी मुफीद चीज़ हो. मां (बच्चों की नानी) समझ जाती थीं कि दोनों भूखे प्यासे हैं. तुरंत खाने को जो भी होता उन्हें देती, चाय पिलवाती.
“उदयपाल, जा ज़रा छत पर झाड़ू तो लगा आ “.
“अब बाहर पटरी पर भी झाड़ू लगा दो. हां, कूड़ा इक्कठा कर अंदर कूड़ेदान में ही डालना.” मां समझातीं.
मां हमेशा उन दोनों को ज़रूरत से ज़्यादा ही देती. वैसे ये भी अजीब सा लगता था कि उनकी जेब में पैसे हैं पर कुछ खा कुछ नहीं सकते. उन पैसों पर उनका हक नहीं था. उन पैसों को माया शाम को घर लौट कर अपने दूसरे बेटे पिंटू को देती थी. पिंटू गांव का दादा था. जिस दिन उसे पैसे नहीं मिलते, बड़े भाई उदयपाल और मां माया को पीटता था.
बहरहाल, काम और हुलिए पर तो हमने पर्याप्त चर्चा कर ली है अब आते हैं मार्गरेट और जॉन पर…
जॉन और मार्गरेट
एक दिन माया और उदयपाल के साथ एक और बुजुर्ग सी दिखने वाली महिला आ गई. महिला ने साफ सुथरा सफेद रंग का सूट पहन रखा था. नहाई धोई फब्बत वाली थी. लंबा कद, पक्का रंग, सफेद बाल, और एक आंख पर कस कर हरी पट्टी बंधी हुई. तीनों हमारे घर अशोक के पेड़ के नीचे बैठ गए. घंटा भर बतियाते रहे.
हां, बीड़ी के कश भी लगाते रहे, तीनों!
मां से रहा न गया, पूछ ही बैठीं, “आप कौन?”
महिला बोली, “मैं क्लामेंटिना”
हैरान मां ने कहा, “क्या?”
उसने फिर दोहराया, “मैं क्लामेंटिना हूं और ये मार्गरेट मेरी छोटी बहन है और ये जॉन मेरा भांजा है. हम दोनों का एक भाई है जिसका नाम एरिक है”.
जिसे हम माया और उदयपाल समझते थे, वो उन को मार्गरेट और जॉन बता रही थी. अब हम सब चकित मार्गरेट, जॉन और क्लामेंटिना को देख रहे थे.
मां ने अगला सवाल किया, “आप रहती कहां हैं?”
“किंग्सवे कैंप के पास जहां पहले टेनामेंट हुआ करते थे, उसी के पास”.
अब टेनामेंट सुन के “आता माझी सटक ली”
अब उनकी बीड़ी और उनका अंग्रेज़ी का शब्दकोश, हमारी समझ से बाहर हो रहा था. इस तरह…
क्लामेंटिना ने उस दिन दो कहानियां सुनाई.
पहली कहानी:
आजादी से पहले उन का परिवार शाहजहांपुर, उत्तरप्रदेश में रहता था. एक अंग्रेज़ अफसर के बंगले में उन के मां पिता मुलाजिम थे. वहीं आउटहाउस में रहते थे. वो अंग्रेज अधिकारी और उनकी पत्नी इन बच्चों को बहुत प्यार करते थे. क्लामेंटिना को उन्होंने ही पढ़ाना शुरू किया था. पूरे परिवार का बपतिस्मा (बपतिस्मा शब्द और उसका अर्थ मैंने बचपन में पहली बार उन्हीं से सुना था) उन्होंने ही करवाया था. आजादी के बाद अंग्रेज अधिकारी का परिवार वापिस इंग्लैंड चला गया. और इनका परिवार दिल्ली शिफ्ट हो गया.
बाद में क्लामेंटिना पढ़ाई कर सरकारी नर्स हो गईं थी. जीवन भर अविवाहित रहीं. अब पेंशन पाती थीं. उन्होंने मार्गरेट की बेटी, ऐनी को गोद लिया था. उसको पढ़ा लिखा कर उसकी शादी कर दी थी.
दूसरी कहानी:
मार्गरेट के पहले पति की जब मृत्यु हुई, वो छोटी उम्र की थी. पहले पति से मार्गरेट को दो बच्चे हुए थे. बेटा जॉन और बेटी ऐनी. पति के मरने के कुछ सालों बाद उसने दोबारा प्रेम विवाह कर लिया था. पति दूसरे धर्म का था सो उसे मार्गरेट से माया और बेटे जॉन को उदयपाल होना पड़ा. दूसरे पति से जो संतान हुई, वही पिंटू था. जो अब गांव भर का दादा था.
जब तक दूसरा पति जिंदा रहा वो इन दोनों को मारता, पीटता रहा. जब वो न रहा तो मारने पीटने का काम पिंटू ने शुरू कर दिया था. क्लामेंटिना के अनुसार, मार और दुत्कार से ही दोनों का मानसिक संतुलन बिगड़ गया था.
चलते चलते
प्यार, स्नेह का हाथ किसी के जीवन को नई दिशा देता है. जैसे क्लामेंटिना. मार और दुत्कार, जीवन को ज़ख्मी कर देते हैं. जैसे जॉन और मार्गरेट.
टोबा टेक सिंह की कहानी कहने को तो फिक्शन है. पर क्या ऐसे लोग हमारे आसपास समाज में नहीं होते? होते हैं. और न सिर्फ़ ये होते हैं बल्कि अपनी मौजूदगी से ये हमारे समाज को और हमें सीख भी देते हैं. दिल्ली 9 के हमारे ये आज के कैरेक्टर्स, माया/मार्गरेट और उदयपाल/जॉन भी हमारे समाज का ही सच हैं. वो सच, जिसे अगर हम आईना मान के सीख लें तो तो एक बेहतर समाज की परिकल्पना कर सकते हैं.
धन्यवाद!
ज्योत्सना तिवारी अधिवक्ता हैं. इसके साथ ही रेडियो जॉकी भी हैं. तमाम सामाजिक कार्यों के साथ उनका जुड़ाव रहा है. इसके अलावा, लेखन का कार्य भी वो करती हैं.
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