चुनाव प्रचार के दौरान एक बड़ी ही रंग बिरंगी, कल्पनाशील ग्रामीण जिंदगी से रूबरू होने का मौका मिला. पहली बार जाना कि हाथ में कुछ ना भी हो, कोई भी संसाधन न हो, तब भी इंसान की कल्पना शीलता उसके जीवन में कुछ रंग तो भर ही सकती है.
प्रचार के दौरान तकरीबन पचहत्तर गांवों में घर-घर घूमने के कुछ बेहद प्यारे अनुभव हुए. जितने घर, उतनी कलाएं, उतने हुनर दिखाई दिए. घरों की लिपाई-पुताई, द्वार पर बंधे बंधनवार, छत से लटके कागज़ी झूमर देख मन कर रहा था कि गुनगुनाऊं…
“इत्ती सी हंसी
इत्ती सी खुशी
इत्ता सा टुकड़ा चांद का
ख्वाबों के तिनकों से
चल बनाएं आशियां”
सच, जीवन की अनेकों अनेक कमियों के बावजूद इंसान कैसे ख्वाबों के तिनकों से अपना आशियां बनाता है, उसकी ज़िंदा मिसाल इस दौरान इन ग्रामीण घरों से देखने को मिली.
लिपाई–पुताई, बंधनवार और झूमर
पैसा नहीं है तो क्या हुआ. दिमाग है, दिल है, कल्पना है. यही काफी है. हाथ में संसाधन बेशक न हों, लेकिन हाथ की “मेहनत” तो है. गोबर, मिट्टी, भूसे के लेप से लिपाई करती बहु बेटियां इसी “हाथ की मेहनत” से अपने घर आंगन को व्यवस्थित करती दिखीं.
अक्सर, जब मैं प्रचार सामग्री बांटने को हाथ बढ़ाती, उसे लेने वाले हाथ लेप से सने मिलते. नतीजतन, मैं उनसे बात कर, बगल की दीवार या चारपाई पर उस प्रचार सामग्री को रख आगे बढ़ जाती. मन ही मन नारी जीवन को सलाम भी करती. इन गांवों में 90 प्रतिशत घर लिपाई पुताई वाले ही हैं.
बहुत ही कम घरों में सीमेंट वाले पक्के फर्श पाए जाते हैं. लिपाई-पुताई की मियाद कम होती है, इसलिए जल्दी जल्दी करनी पड़ती है. और इसमें मेहनत बहुत लगती है.
लिपाई-पुताई के अलावा घर की बहु बेटियों की सुघड़ता को दर्शाता है द्वार पर लगा बंधनवार. कहीं ऊन, मोती, शीशों से बना नया नया सा बंधनवार. कहीं, घर में पड़ी बेकार पुरानी चीजों को रिसाइकिल कर, उस से बना बंधनवार.
पुरानी रंग बिरंगी पन्नियों को काट कर, मोड़ कर, कली नुमा आकार देकर, धागे में पिरो कर, सुंदर डिज़ाइन देते हुए रिसाइकल्ड बंधनवार बने देख लगा वेस्ट मैटेरियल का इतना सुंदर उपयोग भी भला हो सकता है?
सबसे ज़्यादा आश्चर्य तो छत से लटकते हुए झूमरों को देख कर हुआ. समृद्ध घरों में कमरों की छतों से लटकते मंहगे झूमर तो हम अक्सर देखते हैं, पर घर में रखी पुरानी अखबारों और कॉपी किताबों का ऐसा इस्तेमाल, मेरे लिए कल्पना से बाहर का अनुभव था.
मैंने कॉपी किताबों वाला कागज़ी झूमर जीवन में पहली बार देखा था. लेकिन जल्दी ही गांव-गांव, घर घर घूमते, इन झूमरों के “कई प्रकारों” के दर्शन हुए. तब लगा कि “ग्रामीण घरों में भी सपने पलते हैं.“ उनके सपनों के झूमर होते हैं.
पुरानी अखबारों और कॉपी-किताबों से बनाए गए झूमर.
जुगाड़ी “क्लच होल्डर“
कहीं सपने तो कहीं जुगाड़… हिंदुस्तानी जुगाड़ी परंपरा का एक जीता जागता नमूना तारापुर गांव की संध्या के घर नज़र आया. संध्या ने बड़े प्रेम के साथ वेस्ट मैटेरियल से एक अनोखा “चोटी नुमा” क्लच होल्डर तैयार किया था जिसे देखते ही अमिताभ बच्चन माफिक मुंह से निकला वाह! अद्भुत!!
बहुत कहने पर शरमाते हुए संध्या ने अपनी इस अद्भुत “क्रिएशन” के साथ फोटो खिंचवाई. अपनी इस अनोखी चुनावी यात्रा में मुझे तमाम ग्रामीण अद्भुत जुगाड़ी नमूने देखने को मिलते रहे. जो मुंह से वाह भी निकलवाते रहे और बावरे मन को प्रेरणा भी देते रहे.
वेस्ट मैटेरियल से बनाया गया एक एक अनोखा “चोटी नुमा” क्लच होल्डर.मूंज कला
सबसे आश्चर्य तो तब हुआ जब गांव बैंसापुर में मूंज की डलिया बनाती महिलाएं देखीं. अक्सर ग्रामीण इलाकों में नदी किनारे स्वत: सरपत उग आती है. इसे कास या मूंज कहते हैं. इसी घास की ऊपरी परत को निकालकर पहले सुखाया जाता है. फिर इसे मनपसंद रसायनिक चटक रंगों में रंगा जाता है.
इसी रंग बिरंगी मूंज को लपेट कर फिर डलिया, पिटरिया, सेनी, कोरई, तिपारी जैसी काम की चीजें बनाई जाती हैं. हस्तशिल्प की ये कला, मूंज, वैसे तो इलाहाबाद और अमेठी की ओपीओडी (एक जिला – एक उत्पाद नाम की उत्तर प्रदेश सरकार की योजना) है.
लेकिन कन्नौज के बैंसापुर में भी तमाम महिलाएं इसे करती हुई मैंने देखीं हैं. बात करने पर पता चला कि महिलाएं इन हाथ से बनाई चीजों का इस्तेमाल घर गृहस्थी में ही करती हैं. व्यवसायिक तौर पर नहीं.
मूंज कला को कन्नौज में इन महिलाओं के हाथों फलते फूलते देख लगा कि ये कला एक दो ज़िलों तक ही सीमित नहीं है और यहां भी इसमें अनेक संभावनाएं ढूंढी जा सकती हैं.
चिकनकारी
ख़ैर, इन तमाम ग्रामीण कलाओं और कल्पनाशीलता के नमूनों के बीच अपनी लखनऊ वाली चिकनकारी भी देखने को मिल गई. देख कर अच्छा लगा कि कैसे चिकनकारी की कला, घर बैठी बहू-बेटियों को कमाई का साधन उपलब्ध करवाने का काम कर रही है.
पहली बार देखा तो ज़रा आश्चर्य हुआ, लेकिन फिर समझ में आ गया कि कन्नौज के हर गांव में तकरीबन आठ दस घर ऐसे हैं, जिन में ये काम चल रहा है. चिकनकारी लखनऊ के बाहर किन किन इलाकों में होती है मुझे इसका इल्म था, पर कन्नौज के दूर दराज़ के गांव में भी इसने पैर पसार लिए हैं, ये देख सुखद आश्चर्य हुआ.
जो कन्नौज इत्र के लिए जाना जाता है जिसका ओपीओडी इत्र है, वहां घर घर में लखनऊ का ओपीओडी “चिकन” देख चेहरे पर मुस्कान आ गई. लगा सच में कला की कोई सीमा नहीं होती है. ये मेरे लिए एक नई जानकारी थी.
चलते चलते
ख़ैर, घर घर इन बहु, बेटियों, मांओं को कढ़ाई करते देख एक बात और याद आई. मां कहती थीं, “औरत एक रुपया कमाती है या बचाती है तो गृहस्ती में लगाती है. आदमी एक रुपया बचाता है तो पान मसाले में लगाता है”. अपने घर परिवार को आर्थिक तौर पर पोषित करती इन महिलाओं को देख बावरे मन को अच्छा लगा. और लगा…
सच में दुनिया दो तरह की होती है. एक, जैसी हम सोचते हैं वो. और दूसरी, जो सच में होती है, वो. एक ख्याल की और दूसरी असली. कई बार घूमते घूमते हम अपनी “सोच” वाली दुनिया से निकल कर, “सच” की दुनिया के भी दर्शन कर लेते हैं. इसी सच वाली दुनिया के दर्शन इस प्रचार के दौरान बावरे मन को भी हुए. इसलिए मोगैंबो की तरह बावरा मन खुश हुआ. धन्यवाद
ज्योत्सना तिवारी अधिवक्ता हैं. इसके साथ ही रेडियो जॉकी भी हैं. तमाम सामाजिक कार्यों के साथ उनका जुड़ाव रहा है. इसके अलावा, लेखन का कार्य भी वो करती हैं.
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