फ़िल्म लंच बॉक्स का एक मार्मिक दृश्य है – जिसमें इला पहली बार फर्नांडिस यानि इरफ़ान से मिलने एक रेस्टोरेंट में आती है. इला और फर्नांडिस की इससे पहले कोई साक्षात मुलाकात नहीं हुई थी. फर्नांडिस दूर से इला की आँखों में तरुणाई और चेहरे पर यौवन की कौतुलता देखता है. फिर पलट कर अपने भीतर उम्र ढल जाने से पैदा हुई शुष्क रुखाई को महसूस करता है. फर्नांडिस बिना अपनी उपस्थिति की आहट दर्ज कराए चला जाता है. हम इला के चेहरे पर मुलाकात न हो पाने के अधूरेपन की टीस को देखते हैं. इरफ़ान भी लंचबॉक्स के इसी दृश्य की तरह हमें छोड़कर चले गए, दर्शकों के भीतर अधूरेपन की टीस छोड़कर.
इरफ़ान देखे जाने वाले एक्टर नहीं थे बल्कि अनुभव किए जाने वाले कलाकार थे. अफ़सोस कि इस अनुभव को हमारे अंतरतल में कई और दस्तक देनी थी, लेकिन उससे पहले ही वो वापस लौट गए. कई बार किसी बड़े कलाकार को समझने के लिए मात्र परदे पर उसकी प्रतिभा को देखना काफी नहीं होता, उसकी सम्पूर्णता तक पहुंचने के लिए उसके 'कण्ट्रोल पैनल' में भी झांकना ज़रूरी होता है. इरफ़ान ऐसे ही कलाकारों में शुमार थे. उन्होंने परदे के इतर की दुनिया में ऐसी हलचल पैदा की है, जिसका एक गहरा और वृहद असर देखा जा सकता है. ये असर किसी समृद्ध कलादीर्घा से कम नहीं है, जिसे इत्मीनान से रुककर और ठहरकर देखा जाना चाहिए. और ये भी कि आप जितनी बार 'इरफान की कलादीर्घा' से गुजरें, उतनी बार कुछ नए अर्थ और एहसास से आप रूबरू होते जाते हैं.
रंगमंच की नई पौध के लिए इरफ़ान एक सपना भी हैं और मुकाम भी. ये सपना और मुकाम उनकी शोहरत या नाम पा लेने का उतना नहीं है जितना इरफ़ान की तरह अभिनय कला को साध लेने का है. इरफ़ान एक अदृश्य उत्प्रेरक यानि कैटेलिस्ट भी रहे, जो कई लोगों की रूचि की रासायनिक गति को अभिनय की तरफ मोड़ लाये थे. हर नवोदित एक्टर भले ही आमिर खान को पसंद करे लेकिन बनना वो इरफ़ान चाहता है. क्योंकि वो इरफ़ान में अपने को बनते-बिगड़ते, सजते-संवरते, खिलते-मुरझाते देखता है ... इरफ़ान उसके लिए आमिर से ज्यादा रिलेटेबल हैं. अगर आप अलग अलग शहरों के रंगमंच के अड्डों से गुजर जाएं तो आपको अनिवार्य रूप से चाय के साथ इरफ़ान के इस प्रभाव का ज़ायका मिल जाएगा.

जयपुर में रामगढ़ मोड़ पर इरफान खान के परिवार के लोग रहते हैं. जयपुर में उनके 2 छोटे भाई रहते हैं. इरफान की मां भी यही रहा करती थीं. 3 दिन पहले इरफान खान की मां का जयपुर में निधन हो गया था. लेकिन इरफान अपनी बीमारी और लॉकडाउन की वजह से यहां नहीं आ सके थे.
इरफ़ान के करीबी लोग उन्हें एक हँसमुख इंसान के तौर पर भी पहचानते थे. जो बेवजह की गंभीरता से परहेज करते थे. मौके-बेमौके जीवन में हास्य–विनोद के लिए जगह बना लेते थे. मशहूर रंगकर्मी अलोक चटर्जी अपनी आत्मकथानक शैली में किए एक नाटक के मंचन दौरान इरफ़ान का एक मजेदार किस्सा सुनाते हैं. नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा के प्रथम वर्ष में एक अभ्यास सत्र के दौरान उस वक़्त के डायरेक्टर मोहन महर्षि ने आलोक दा के सहपाठी बैच के छात्रों को किसी एक जानवर का अभिनय करने को कहा था. अपनी अपनी बारी पर सब ने किसी न किसी जानवर का अभिनय किया. इरफ़ान थोड़े थके हुए थे और उन्हें कुछ करने का मन नहीं था. चूँकि ये अभ्यास सत्र था और मोहन महर्षि खुद मौजूद थे इसलिए बचने का कोई मौका नहीं था. जब इरफ़ान की बारी आई तो वो मंच पर पेट के बल लेट गए. मोहन महर्षि इंतज़ार करने लगे कि अब इरफ़ान कुछ करेंगे. लेकिन इरफ़ान थे कि हिलने का नाम ही नहीं ले रहे थे. जब पेट के बल लेटे लेटे एक लम्बा वक़्त बीत गया तो मोहन महर्षि भी उकता गए और खीझते हुए कहा कुछ करोगे या ऐसे ही लेटे रहोगे? इरफ़ान ने गंभीरता से जवाब दिया ‘सर मैं मगरमच्छ हूँ, जो धूप में आराम कर रहा है. इरफ़ान के इस जवाब से बाकी छात्रों के साथ मोहन महर्षि भी हंसने लगे.
अपने क्राफ्ट को लगातार बेहतर करना किसी कलाकार की अपने कला के प्रति अनिवार्य प्रतिबद्धता होती है. इरफ़ान में 'बेहतर करने की बेचैनी' इस कदर थी कि उनके साथी उन्हें एक 'असंतोषी एक्टर' कहा करते थे. वो अपनी अभिनय क्षमता को लगातार मांजते रहते थे. तब भी जब अपने शुरुआती दिनों में उतने सफल नहीं थे और तब भी जब सफलता के शिखर पर थे.
इरफ़ान के अभिनय में एक असाधारण सहजता थी जो उन्हें अपने दौर के बाकी अभिनेताओं से अलग करती थी. अज्ञेय ने एक बार कहा था कि कई बार आप रास्ते को नहीं चुनते, रास्ता आपको चुनता है. इरफ़ान के बारे में भी यही कहा जा सकता उन्होंने एक्टिंग को नहीं चुना, बल्कि एक्टिंग ने उन्हें चुना. यही वजह है कि वो थिएटर वालों के लिए एक अकड़ थे, शेखी थे जिन्हें वे सीने पर लगाए चलते हैं.
भले ही इरफ़ान अब फैन्स को 'लंच बॉक्स' की सप्लाई जारी ना रख पाएं, पर फिजा में उनकी खुशबू हमेशा मौजूद रहेगी.
ब्लॉगर के बारे मेंमोहन जोशी रंगकर्मी, नाट्यकार
फ्रीलांस लेखक, माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय भोपाल से जनसंचार स्नातक. एफटीआईआई पुणे से फिल्म रसास्वाद व पटकथा लेखन कोर्स. रंगकर्मी, नाट्यकार और इसके अलावा कई डाक्यूमेंट्री फिल्मों के लिए लेखन व निर्देशन.
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