मशीनी बन चुकी जिंदगी में घर से ऑफिस और ऑफिस से घर जाते वक्त कभी बस में तो कभी कैब में बजते गाने अगर मनमाफिक ना हों तो सफर मुश्किल हो जाता है लेकिन मेरे न्यूज रूम की चीख पुकार के बाद अगर कोई गजल कानों में घुल जाए तो सफर आसान ही नहीं, सुकून देने वाला बन जाता है। गानों या फिर गजलों की भी अपनी ही कैफियत है। सुनने वाला डूब कर अपनी ही बनाई दुनिया में गुम हो जाता है। फिर लगता है 'आने वाला पल...जाने वाला है...हो सके तो इसमें जिंदगी बिता दो, पल ये जो जाने वाला है।'
...पर क्या करें जिंदगी है...और जिंदगी के अपने ही बुने हुए जंजाल हैं...काश कि साल की शुरुआत उस ब्राह्मण की बात से होती जो कहता है कि 'ये साल अच्छा है...प्यार की फसल उगाएगी जमीं अब के बरस.... है यकीन अब ना कोई शोर शराबा होगा...जुल्म होगा ना खून खराबा होगा'।...काश कि जिंदगी में इतनी परेशानी ना होती और जिंदगी उस लौ की मानिंद ना होती जिसमें जलने का दस्तूर होता है...और जीये जाने की बंदिश होती है...वैसे भी जिंदगी में इतनी ख्वाहिशें होती हैं कि हर ख्वाहिश पर दम निकलता है...पर बात जेहनी दुनिया की उस चाहत की भी है जिसमें बहुत से काश होते हैं...जैसे कि...काश जिंदगी में वो दिखता रहे जिसे देखकर दिल कहे...'जिंदगी धूप तुम घना साया'।
...पर ये साए उस वक्त रफूचक्कर हो जाते हैं जब जिंदगी पैसा, शोहरत और तमाम चीजों को हासिल करने की जिद बन जाती है। जिनके लिए हम अपना चैन, सुकून दांव पर लगा देते हैं और उस दौड़ती भागती सड़क पर जाकर खड़े होते हैं जिसकी मंजिल खुद हम ही भूल जाते हैं...कहां जा रहे हैं हम? किसे तलाश रहे हैं?...किसके पीछे दौड़ रहे हैं?...क्या मिल जाएगा और किसके खो जाने का डर है?...क्यों जिंदगी इतनी मुख्तर सी है जिसमें डर लगता है अजीजों के बिछड़ जाने का?...क्यों नहीं हो सकती हमारी जिंदगी शायर की उस गजल की तरह जिसमें...आंखों की सियाही और होठों के उजाले ही आशिक के दिन रात होते हैं।
हमारी दुनिया भले ही पैसों से चलती हो लेकिन यहां तो गुलों में रंग भरने से ही फलसफों का कारोबार चल पड़ता है...हकीकत में इजहार-ए-मोहब्बत जिंदगी और मौत का सवाल बन जाता है पर गजलों में पता ही नहीं चलता...रफ्ता-रफ्ता कब वो हमारी हस्ती का सामान हो जाते हैं...जरा सी लड़ाई हमारी अना(इगो) की बात बन जाती है...लेकिन गजलें कहती हैं कि 'रंजिश ही सही दिल को दुखाने के लिए आ....आ फिर से मुझे छोड़कर जाने के लिए आ'...यहां तो खुलती जुल्फें खुद मौसमों को शायरी सिखाती हैं...ये ख़्याल हैं जो हर्फों की स्याही में फैज, गालिब, गुलजार ने पिरो दिए हैं और हम इमोशनल फूल(बेवकूफ) हैं जो जिंदगी को गजलों और नज़्मों के आशार में तलाशते हैं।
हकीकत तो ये है कि सुबह का बजता अलार्म दिन के शुरू होने की नहीं बल्कि जिंदगी की जंग पर जाने का हरकारा होता है। पता ही नहीं चलता कब सुबह होती है, कब शाम होती है और जिंदगी यूं ही तमाम होती है। मैं जानती हूं ये गजलों की दुनिया हकीकत की दुनिया से दूर है पर जाने क्यों फिर भी दिल ये कहीं कहता है...'वो मासूम चाहत की तस्वीर अपनी, वो खाबो-खिलौनों की जागीर अपनी। ना दुनिया का गम था, न रिश्तों के बंधन, बड़ी खूबसूरत थी वो जिंदगानी...वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी।.... काश कि लौटा दे कोई वो बचपन....।