भारत की खोज: गाँधी का गंगौर- बंगाली डॉक्टर और हर मर्ज का इलाज
गाँव में इलाज के लिए मैला आंचल के आदर्शवादी डॉक्टर प्रशांत तो नहीं थे, पर हमारे अपने बंगाली डॉक्टर थे. बंगाली डॉक्टर हर मर्ज का इलाज कर सकते थे. उनके दुस्साहस के किस्से किंवदंती बनकर गाड़ीवान-हरवाहों-चरवाहों से लेकर घटवारों-भैंसवारों के बीच समय काटने का साधन बन गए थे. मेरा ख्याल है आपके पास भी आपके अपने ‘बंगाली डॉक्टर’ जरूर होंगे!

बंगाली डॉक्टर हर मर्ज का इलाज कर सकते थे.
”. . . यथार्थ ने उन्हे सिखाया कि भविष्य वह नहीं है जिसका उन्होंने कभी सपना देखा था. तब, उन्होंने नास्टेलजिया को ढूंढ निकाला.”
– गैबरियल गर्शिया मार्खेज
गाँव में इलाज के लिए मैला आंचल के आदर्शवादी डॉक्टर प्रशांत तो नहीं थे, पर हमारे अपने बंगाली डॉक्टर थे. अपने साइकिल की घंटी टुंटुनाते, रेनकोट, गमबूट और टॉर्च से लैस घुंघराले बालों और हँसती हुई आंखों वाले कालीचरण गांगुली मोशाय हथिया झाट बारिश का सामना करते, कीचड़ से लथपथ सड़क पर आधी रात को भी मरीज का इलाज करने के लिए बाहर निकलने का साहस करते थे.
अब आप कितने भी फन्ने खा हों, किसी भी डॉक्टर को इमरजेंसी में अपने घर हाउस कॉल पर बुला कर दिखा दीजिए. मेरे एक मित्र आईपीएस अफसर थे. बाद में एक सूबे के डीजीपी भी बने. एक दफा दिल्ली में पोस्टेड थे. आधी रात को पत्नी की तबियत खराब हुई. शहर में इधर से उधर भटकते रहे. मुश्किल से इलाज मिला.
बंगाली डॉक्टर हर मर्ज का इलाज कर सकते थे. उनके दुस्साहस के किस्से किंवदंती बनकर गाड़ीवान-हरवाहों-चरवाहों से लेकर घटवारों-भैंसवारों के बीच समय काटने का साधन बन गए थे. वे 50 फीट की ऊंचाई से ताड़ के गाछ से गिरे मरणासन्न घायल का ऑपरेशन करने की हिम्मत रखते थे, हैजा की महामारी में दवाइयां खत्म हो जाने पर कुंए के पानी को उबाल कर उससे जुगाड़ू स्लाइन वाटर बनाने का दुस्साहस कर सकते थे और जरूरत पड़ने पर नवविवाहिता सुंदर स्त्रियों और छोटे बच्चों को इंजेक्शन की जगह मीठी गोली देने का झूठा आश्वासन दे सकते थे.
यह वह जमाना था जब प्लेग खत्म नहीं हुआ था. चेचक और हैजा घूम-फिर कर हर दूसरे-तीसरे साल आते रहते थे. टीबी का कोई इलाज नहीं था. मलेरिया और काला अजार हजारों की बलि ले जाते थे. फणीश्वर नाथ रेणु लिखते हैं, “उन दिनों हमारे यहाँ के कौओं को भी मलेरिया बुखार होता था.“ आश्चर्य नहीं कि लोग डॉक्टर को भगवान का दूसरा अवतार समझते थे.
गांगुली जी किराये की जिस हवेली में गाँव में रहते थे और अपनी डिस्पेंसरी चलाते थे, वह जमींदार खानदान की थी. रंग-बिरंगी बेल्जियम कांचों वाली उनकी डिस्पेंसरी में घुसना आपको एक मायालोक में ले जा सकता था. आपने मदाम बोवरी पर आधारित केतन मेहता की अविस्मरणीय फिल्म ‘माया मेमसाब’ देखी है? उसके रंगीन मर्तबान का इंद्रजाल याद है? उस डिस्पेंसरी में लकड़ी की अलमारी में कांच की शीशी में कैद लाल, पीली, हरी, बैंगनी दवाईयां भी एक ऐंद्रजालिक संसार रचती थीं.
तब पेटेंट दवाइयों का जमाना नहीं आया था. डिस्पेंसरी में घुसते ही कंपाउंडर साहब मिलते थे, जो वास्तव में उनके मकान-मालिक भी थे और गाँव के जमींदार परिवार के वंशज थे. उनका काम था शीशी में बंद दवाईयों को फार्मूला के हिसाब से मिक्स करना, मरीजों की शीशियों पर खुराक का कागजी पैमाना चिपकाना और कागज की पुड़िया में बांधकर टैबलेट या पाउडर देना. मरहम-पट्टी के अलावा इन्जेक्शन को स्टोव पर उबालने का काम भी उन्ही के जिम्मे था.
फीस में कदीमा-कटहल
कहने को तो बंगाली डॉक्टर बंगाल के थे, पर पूरी जिंदगी उनकी बिहार के उस गाँव में ही कटी. वे अपने मरीजों के रोग को ही नहीं, उनके दिमाग को और स्वभाव को भी समझते थे. फीस वसूलने में वे वही हथकंडे अपनाते थे जो अब महानगरों के बड़े अस्पताल करते हैं. खीसे में पैसे नहीं हो तो इलाज नहीं होगा. उनकी नजर इस मामले में बड़ी पारखी थी.
मरीज के साथ आई उसकी माँ या पत्नी कहती, “एक्को पैसा नहीं है, डाकदर साहब, किरिया खाते हैं. जल्दीए दे देंगे, कभी आप का पैसा पचाए है!”
बंगाली डाॅक्टर: “उ अँचरा में का बांध के रखा है? खोलो-खोलो, देखाओ, कतेक रुपैया है?”
आँचल के एक छोर में बंधी बंधी गांठ खुलती थी, मैले-कुचैले नोट बरामद होते थे जो फीस और दवा के काम आते थे. वैसे कभी-कभी इलाज इस शर्त पर भी हो सकता था कि गाय ब्याने पर सुबह-शाम दूध पहुंचाया जाएगा. केले की घौर, बाड़ी का पपीता, छप्पर का कदीमा और खेत से ताजा टूटा परवल भी फीस में दी जा सकती थी. रोहू मछली हो तो क्या कहने!
अगर कलकत्ता से खोका की चिठ्ठी आई हो और डॉक्टर साहेब अच्छे मूड में हों तो इस वायदे पर भी कई दफा इलाज कर देते थे कि अगली फसल पर मरीज पाई-पाई चुका देगा.
ये मरीज दूर-दूर से टांग कर लाए जाते थे. लोग कोसों पैदल चलकर, अक्सर नदी पार कर इलाज के लिए आते थे.मरीज और उनके साथ आए तीमारदार क्लिनिक के बाहर बरामदे में अक्सर कई-कई दिन तक पड़े रहते थे. सामने के मैदान में ईंट का चूल्हा जोरकर भात रिंधते थे या गोयठा इकठ्ठा कर लिट्टी सेंकते थे.
लोग भले उन्हे झोला छाप डॉक्टर कहते रहें क्योंकि उनके पास डिग्री नहीं थी. पर एक बात तो मैं स्टाम्प पेपर पर लिख कर दे सकता हूँ. उनका डाइग्नोसिस परफेक्ट था. मरीज मरनेवाला हो तभी वे पैथोलॉजीकल जांच करवाते थे.
मेज पर उनके पास औज़ार केवल चार होते थे – दिल की धड़कन सुनने का आला, शरीर को ठोक-बजाकर देखने के लिए छोटी सी हथौड़ी, थर्मामीटर और ब्लड प्रेशर नापने की मशीन. आपकी जीभ देखकर, आँख की पुतलियों को उलट-पुलट कर, पेट को दबाकर और शरीर को ठोंक-पीट कर वह रोग का पता लगा लेते थे. उसके बाद आप दिल्ली, बंबई, कलकत्ता कहीं भी दिखवा लें, 99 प्रतिशत मामलों में उनका ही डाइग्नोसिस सही होता था. ऐसे थे हमारे बंगाली डाक्टर. मेरा ख्याल है आपके पास भी आपके अपने ‘बंगाली डॉक्टर’ जरूर होंगे!
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(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi उत्तरदायी नहीं है.)
एनके सिंहवरिष्ठ पत्रकार
चार दशक से पत्रकारिता जगत में सक्रिय. इंडियन एक्सप्रेस, हिंदुस्तान टाइम्स, दैनिक भास्कर में संपादक रहे. समसामयिक विषयों के साथ-साथ देश के सामाजिक ताने-बाने पर लगातार लिखते रहे हैं.