उनकी किताबें इतनी पतली होती थीं कि शर्ट के नीचे, कमर में खोंसकर आसानी से स्मगल की जा सकती थीं. फिर कोर्स की किताब-कापियों के बीच उन्हेंं दबाकर आसानी से पढ़ा जा सकता था. यह एहतियात इसलिए जरूरी था क्योंकि इब्ने सफी की सोहबत में देखे जाने पर बहुत डांट पड़ती थी.
पर कमबख्त जासूसी दुनिया हर महीने फिर से छप कर आ जाया करती थी. और, उसे पढ़ने का नशा इस तरह सवार था दोस्तों की चिरौरी कर, उनके घरों के पचास चक्कर लगाकर किसी न किसी तरह नया नावेल हासिल कर ही लेते थे. रात-रात भर जग कर ऑनलाइन गेम खेलने वाले आज के बच्चे उस चस्के के चुम्बक को समझ सकते हैं.
कॉलेज में जब कामू, काफ्का, सात्र पढ़ने वाली मंडली के साथ बैठकें जमने लगी तो शुरू में यह बताते हुए भी शर्म आती थी कि मैं लुगदी साहित्य के इस लोकप्रिय लेखक का फैन था. यह शर्म तब खत्म हुई जब इब्ने सफी के लेखन को रिविजिट करने की मुहिम हाल के वर्षों में चली. वैसी ही मुहिम, जैसी कभी राजा रवि वर्मा को कैलेंडर आर्टिस्ट की पायदान से उठाकर एक महान पेंटर के रूप में स्थापित करने लिए चली थी.
फिर पता चला कि मैं अकेला नहीं था. 50 और 60 के दशक में हिंदुस्तान और पाकिस्तान में बड़े हो रहे ज्यादातर बच्चे इब्ने सफी के दीवाने थे. वो लिखते उर्दू में थे. पर उनके हिन्दी तर्जुमे को पढ़ने वालों को हर माह उनके नए नॉवेल का इस बेकरारी से इंतजार रहता था कि बाज वक्त जासूसी दुनिया ब्लैक में बिकती थी.
लेखक जावेद अख्तर बचपन में इब्ने सफ़ी के जासूसी नॉवेल पढ़ा करते थे. वे मानते हैं कि शोले के गब्बर सिंह और मिस्टर इंडिया के मोगम्बो जैसे किरदार गढ़ते वक्त उन पर इब्ने सफ़ी का प्रभाव भी काम कर रहा था. वे जासूसी दुनिया के फास्ट एक्शन, बारीकी से बुने प्लॉट और चुटीले डायलॉग पर फिदा थे. हिन्दी के सबसे सफल क्राइम फिक्शन लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक छुटपन में मेरठ में अपने घर के पास एक गोहाल में छिपकर जासूसी इब्ने सफ़ी के नॉवेल पढ़ा करते थे. वे मानते हैं, ”इब्ने सफ़ी को जन्मजात रहस्य कथा लेखक कहा जाए तो कोईअतिशयोक्ति नहीं होगी.”
जिसे पढ़ने के लिए लोगों ने उर्दू सीखी
कहते हैं कि बाबू देवकीनंदन खत्री ने 1888 में जब चंद्रकांता, चंद्रकांता संतति और भूतनाथ जैसे तिलिस्म, ऐय्यारी, रोमांस और रोमांच की चाशनी में डूबे उपन्यासों की रचना की तो उन्हे पढ़ने के लिए लाखों लोगों ने हिन्दी सीखी. उसी तरह इब्ने सफ़ी के जासूसी नॉवेल को पढ़ने के लिए हजारों लोगों ने उर्दू सीखी. लेखक नाज़िम नकवी मानते हैं, ”अगर जासूसी दुनिया पढ़ने के लिए दीवानगी न पैदा होती तो (मेरा) उर्दू सीखना नामुमकिन था. पहले बड़ी बहनों से जासूसी दुनिया को सुनना, फिर हिज्जे लगा-लगाकरउन्हे अकेले में पढ़ना. … किसी भाषा को तभी आत्मसात किया जा सकता है जब उसके सहारे आप अपनी कल्पनाओं में गोते लगाने लगें.”
उर्दू के मशहूर शायर और पत्रकार हसन कमाल का बचपन लखनऊ में बीता. उनका कहना है कि जिस दिन इब्ने सफ़ी का नॉवेल आने वाला होता था, दुकान के सामने लाइन लग जाती थी. ”उनके उपन्यास ऐसे बिकते थे जैसे राशन की दुकान पर शक्कर.” जासूसी दुनिया की बिक्री बढ़ी तो पब्लिशर उस पर खर्च भी करने लगे. लेखक अनिल जनविजय के मुताबिक पत्रिका इलाहाबाद में छपती और उसका रंगीन कवर पेज बंबई से छप कर आता. एक बार ऐलान किया गया कि अगला कवर ऐसा होगा कि पाठक दो मिनट तक अपनी आंख नहीं फेर सकेगा. पहली बार यूएफओसे गिरती रोशनी से झांकती चार आंखों वाला कवर आया.
इब्ने सफ़ी इस बात के सबूत हैं कि पापुलर कल्चर किस तरह असल जिंदगी पर भी असर डालता है. पाकिस्तानी अखबार डॉन के मुताबिक 1973 में वहां की खुफिया एजेंसी आईएसआई ने 1973 में इब्ने सफ़ी को अपने रंगरूटों को जासूसी के हुनर के गुर सिखाने बुलाया था!
सरहद की दोनों तरफ पॉपुलर
बंटवारे के बाद 23 साल की उम्र में इब्ने सफ़ी सपरिवार पाकिस्तान पहुंच गए. संयोग देखिए, यह उसी साल हुआ जब उन्होंने जासूसी दुनिया के लिए नॉवेल लिखने शुरू किए –1952 में. पर उसके बाद भी वे सरहद की दोनों तरफ समान रूप से पॉपुलर रहे. 1963 में तीन साल की लंबी बीमारी के बाद जब उनका उपन्यास ‘डेढ़ मतवाले’ आया तो हिंदुस्तान में एक बड़ा जलसा हुआ. तत्कालीन होम मिनिस्टर लाल बहादुर शास्त्री ने उसका विमोचन किया.
उधर, पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान उनके अनगिनत पाठकों में से एक थे. उनके साहित्य को पल्पफिक्शन मानने वाले लोग भी – भले छिपकर सही – उन्हें पढ़ते थे. ऐसे एलिट लोगों के बारे में इब्ने सफ़ी ने एक दफा कहा था, ”….ऐसे घरों में कुछ किताबें शेल्फ़ों पर और कुछ किताबें तकिये के नीचे पाई जाती हैं.”
लिक्खाड़ वो ऐसे थे कि शुरुआत में हर महीने दो और बाद में एक नॉवेल लिख लेते थे. उन्होंने कुल मिलाकर 245 किताबें लिखीं. उन्होंने अपने लिए बेस्ट सेलर का रास्ता चुना था. इसके पीछे सोच साफ थी,
”मैं जो कुछ पेश कर रहा हूं, उसे किसी अदब से कमतर नहीं समझता् हो सकता है कि मेरी किताबें अलमारियों की जीनत न बनती हो, लेकिन तकियों के नीचे जरूर मिलेंगी. हर किताब बार-बार पढ़ी जाती है. मैंने अपने लिए ऐसा माध्यम चुना है, जिससे मेरे खयाल ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचें.”
अगले सप्ताह: इब्ने सफ़ी की जादुई चारपाई
चार दशक से पत्रकारिता जगत में सक्रिय. इंडियन एक्सप्रेस, हिंदुस्तान टाइम्स, दैनिक भास्कर में संपादक रहे. समसामयिक विषयों के साथ-साथ देश के सामाजिक ताने-बाने पर लगातार लिखते रहे हैं.
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