क्या प्रदूषण के लिए किसान जिम्मेदार हैं, आखिर अन्नदाता पर FIR क्यों?

दिल्ली में प्रदूषण के लिए कौन जिम्मेदार है? (File Photo)
नई दिल्ली. यूपी के मैनपुरी से एक तस्वीर आई है, जिसमें पराली जलाने के आरोप में एक इंस्पेक्टर किसान की कॉलर पकड़कर ले जा रहा है. यूपी ही नहीं हरियाणा में भी किसानों पर एफआईआर दर्ज हो रही है. जबकि पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की रिपोर्ट बता रही है कि प्रदूषण में पराली का औसत योगदान महज 20 फीसदी के आसपास ही है. ऐसे में सवाल ये उठता है कि प्रदूषण के लिए 80 फीसदी जिम्मेदार दूसरे लोगों पर क्या इसी तरह से एक्शन लिया जाएगा? जवाब यही है कि शायद कभी नहीं. दरअसल, अंधाधुंध कंस्ट्रक्शन, सड़कों की धूल, इंडस्ट्री और एसयूवी कारों के अलावा बढ़ रहे प्रदूषण का एक बड़ा कारण लगातार कम होता वन क्षेत्र (Forest area) भी है. लेकिन कुछ नेताओं और दिल्ली में बैठे पर्यावरणविदों ने प्रदूषण के लिए सिर्फ किसानों को खलनायक बना दिया है.
आप दिल्ली और उससे लगते यूपी व हरियाणा का वन क्षेत्र देखेंगे तो पाएंगे कि प्रदूषण फैलाने के लिए यहां की सरकारें खुद जिम्मेदार हैं, जिन्होंने विकास की अंधी दौड़ (Development) में वन क्षेत्रों को तहस-नहस कर डाला है. उत्तर प्रदेश और हरियाणा उन 10 कुख्यात राज्यों में शामिल हैं, जिनमें सबसे ज्यादा पेड़ काटे गए हैं.

इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट 2019 के मुताबिक यूपी में 33 फीसदी की जगह सिर्फ 6.88 और हरियाणा में 3.53 परसेंट ही फॉरेस्ट एरिया है. दोनों प्रदेशों के एनसीआर में आने वाले जिलों में फॉरेस्ट कवर भी नाम मात्र का ही रह गया है. इसके बावजूद पर्यावरण से संबंधित सरकारी नाकामी पर परदा डालकर दोनों सरकारों के अधिकारी प्रदूषण के लिए सिर्फ किसानों को जिम्मेदार मान रहे हैं. उन पर एफआईआर दर्ज कर रहे हैं. क्या किसान सॉफ्ट टारगेट हैं?
राष्ट्रीय किसान महासंघ के संस्थापक सदस्य बिनोद आनंद ने सवाल उठाया है कि प्रदूषण में जब पराली का योगदान औसतन 20 फीसदी के आसपास ही है तो सिर्फ किसानों (Farmers) पर ही एफआईआर क्यों की जा रही है. कंस्ट्रक्शन (निर्माण कार्य) जैसे जो इसके दूसरे बड़े कारक हैं उसके लिए जिम्मेदार लोगों पर एफआईआर क्यों नहीं? क्या किसान सरकार के लिए सॉफ्ट टारगेट हैं?
2019 में सिर्फ दो दिन अच्छी थी दिल्ली की हवा, जिम्मेदार कौन?
कोरोना लॉकडाउन के समय को छोड़ दें तो राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली (Delhi) में आबोहवा साल में एक-दो दिन ही बहुत अच्छी रहती है. साल 2019 में 17 और 18 अगस्त को ही दिल्ली की हवा बहुत अच्छी थी. इस दौरान एयर क्वालिटी इंडेक्स को ‘गुड’ मार्क मिला था. जबकि अन्य दिनों में ट्रांसपोर्ट, इंडस्ट्री और धूल से प्रदूषण कायम रहा. इसके बावजूद राज्य सरकारों और बिल्डरों की लालच ने दिल्ली के आसपास के फॉरेस्ट कवर को निगल लिया है. पेड़ों को काटकर कंक्रीट के जंगल खड़े किए जा रहे हैं. यहां तक कि दिल्ली के लिए 'फेफड़े' का काम करने वाली अरावली (Aravali) के जंगल को भी सरकार की मिलीभगत से बिल्डरों ने छलनी कर दिया है. जबकि सुप्रीम कोर्ट ने अरावली में निर्माण पर रोक लगाई हुई है.
इसे भी पढ़ें: वैज्ञानिकों ने दी बड़ी सौगात! सिर्फ 5 रुपये के कैप्सूल से खत्म हो जाएगी ये समस्या
आबादी बढ़ रही है, वाहन बढ़ रहे हैं, कंस्ट्रक्शन बढ़ रहा है लेकिन पेड़ घट रहे हैं. पौधारोपण रस्म अदायगी भर रह गया है. नतीजा यह है कि यहां की हवा और जहरीली हो गई है. जब हम फेफड़ों (Lungs) को ही खत्म कर देंगे तो फिर प्रदूषण कैसे रुकेगा? क्या पेड़ों के बिना हमें साफ हवा मिलेगी?

पर्यावरणविद एन. शिवकुमार कहते हैं कि साल 1952 में बनी फॉरेस्ट पॉलिसी के मुताबिक 33 फीसदी वन का प्रावधान किया गया था. ताकि लोगों को अच्छी हवा मिले. पर्यावरण संतुलन बना रहे. जब यह तय किया गया था तब न इतनी गाड़ियां थीं और न इतना कंस्ट्रक्शन. 21वीं सदी की शुरुआत से अब तक अंधाधुंध निर्माण और वाहनों की भीड़ में फॉरेस्ट एरिया और कवर बढ़ने की बजाय और कम होता गया.
शिवकुमार कहते हैं कि अरावली पर्वत श्रृंखला (Aravalli Mountain Range) दिल्ली के लिए फिल्टर या फेफड़े की तरह काम करती है. जब हम इसे ही छलनी करेंगे तो हमारे हिस्से में जहरीली हवा ही आएगी. विकास के नाम पर पेड़-पौधे काटे जा रहे हैं, लेकिन उसके बदले क्या कोई नया वन क्षेत्र बनाया जा रहा है? अगर अरावली को इसी तरह तहस-नहस किया जाता रहा तो आने वाले वर्षों में दिल्ली के हालात और खराब हो सकते हैं.
अगर दिल्ली, गुरुग्राम, सोनीपत, गाजियाबाद, नोएडा, ग्रेटर नोएडा, रेवाड़ी और मेवात में 33 फीसदी वन क्षेत्र होता तो प्रदूषण का असर दिल्ली पर इतना नहीं होता, जितना कि अब दिख रहा है.
इन जिलों में पेड़-पौधों की सबसे खराब स्थिति
इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट के मुताबिक पेड़-पौधों को लेकर सबसे खराब हालात एनसीआर के पलवल, रेवाड़ी, सोनीपत, गाजियाबाद, गौतम बुद्ध नगर और मेरठ के हैं, जहां पर 4 फीसदी भी फॉरेस्ट कवर नहीं बचा है. जबकि इनमें से कई बड़े औद्योगिक शहर हैं, जहां पेड़ पौधों की जरूरत कहीं ज्यादा होती है. इन शहरों के योजनाकारों से इस बारे में सवाल जरूर पूछा जाना चाहिए कि शहर की जरूरत के हिसाब से पेड़-पौधे क्यों नहीं लगाए गए?

वरना और बुरे होते हालात?
अरावली को खोखला करने के काम में हर पार्टी के नेता, ब्यूरोक्रेट, कुछ बाबा और बिल्डर शामिल हैं. सत्ता के नजदीक रहने वाले कुछ लोग समय-समय पर अरावली को और तहस-नहस करने की कोशिश करते रहे हैं, लेकिन कुछ पर्यावरण हितैषी लोगों की वजह से उनकी मंशा पर कभी-कभी पानी भी फिरा है. ऐसे कुछ उदाहरण मौजूद हैं.
-हरियाणा सरकार ने एनसीआर प्लानिंग बोर्ड में फरीदाबाद क्षेत्र की 17,000 एकड़ भूमि को 'वन भूमि' के दायरे से बाहर निकालने का प्रस्ताव दे दिया था. जिसे बोर्ड ने दिसंबर 2017 के पहले सप्ताह में रद्द कर दिया. साथ ही कहा कि अरावली का दायरा हरियाणा के गुरुग्राम और राजस्थान के अलवर तक ही सीमित नहीं होगा. इसका दायरा पूरे एनसीआर में माना जाएगा. अरावली वन भूमि का सीमांकन बोर्ड के फैसले और पर्यावरण मंत्रालय की अधिसूचना के मुताबिक होगा. बोर्ड के इस निर्णय से अरावली और छलनी होने से बच गई. वरना इस जमीन पर और हाईराइज बिल्डिंगें तैयार होतीं.
इसे भी पढ़ें: 50 की जगह 999 हुआ दिल्ली का AQI, आंखों में हो सकता है अल्सर!
>> मांगर (फरीदाबाद-गुरुग्राम के बीच) के आसपास 23 गांवों की 10,426 हेक्टेयर जमीन पर हुड्डा सरकार ने मांगर डेवलपमेंट प्लान-2031 बनाया था, लेकिन वन क्षेत्र को बचाने के लिए एनसीआर प्लानिंग बोर्ड ने इसकी मंजूरी देने से मना किया.
>> हरियाणा सरकार ने मांगर क्षेत्र में एक डच कंपनी को 500 एकड़ भूमि पर यूरोपियन टेक्नॉलोजी पार्क बनाने की मंजूरी दे दी थी. इस पर केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने रोक लगाई.

पीएलपीए में संशोधन से किसे फायदा पहुंचाना चाहती है सरकार?
वरिष्ठ पत्रकार सौरभ भारद्वाज कहते हैं कि हरियाणा, देश में सबसे कम वन क्षेत्र वाले सूबों में शामिल है, इसके बावजूद सरकार अरावली के जंगलों को नष्ट करने पर आमादा है. सरकार ने 27 फरवरी 2019 को पंजाब भूमि संरक्षण एक्ट (पीएलपीए) 1900, में संशोधन को पास कर दिया. इस संशोधन ने एक तरह से एक्ट को ही निष्प्रभावी बना दिया है क्योंकि इससे 74,000 एकड़ जंगल शहरीकरण, खनन और रियल स्टेट के विकास की भेंट चढ़ जाएंगे.
भारद्वाज कहते हैं कि अरावली में एक व्यक्ति ने होटल बनाया. वहां जो पेड़ काटे गए उसके बदले उसने ढाई सौ किलोमीटर दूर पौधारोपण किया. एक पेड़ काटने के बदले कहीं 2 तो कहीं 10 पेड़ लगाने का नियम है लेकिन यह कहीं नहीं लिखा है कि कहां लगाएंगे. काटने वाला इसे कहीं भी लगा सकता है. ऐसे में जिन लोगों के आसपास के पेड़ काटे गए हैं उन्हें तो दस गुना पेड़ लगाने का फायदा नहीं मिलता. पर्यावरण मंत्रालय नए नियम बनाकर यह प्रावधान करे कि जहां पेड़ काटे जाएंगे उसके एक-दो किलोमीटर की परिधि के अंदर ही पौधारोपण करना पड़ेगा. आम, पीपल और नीम जिसका भी पेड़ कटे तो उसके बदले उसी का पौधा लगाया जाए.
पर्यावरण पर हम सबकी चिंता क्या सिर्फ दिखावा है?
देश के ज्यादातर शहरों में लोग जहरीली हवा में सांस ले रहे हैं. तो दूसरी ओर विकास योजनाओं के नाम पर पिछले चार साल में लगभग 95 लाख पेड़ काट दिए गए. जबकि यही पेड़ हमारे पर्यावरण को शुद्ध रखने का काम करते हैं. हमें ऑक्सीजन देते हैं. 95 लाख तो सरकारी आंकड़ा है, असल में कितने पेड़ काटे गए इसका कोई रिकॉर्ड नहीं. सवाल ये है कि क्या पर्यावरण को लेकर हमारी और सरकारों की चिंता सिर्फ दिखावा है.

हम हर साल नवंबर से दिसंबर तक प्रदूषण की चिंता में डूबे रहते हैं. फिर अचानक चुप हो जाते हैं. क्यों? क्या यह समस्या खत्म हो जाती है? नहीं, हमारे ज्यादातर शहर साल भर प्रदूषित रहते हैं. पर्यावरण मंत्रालय की एक रिपोर्ट बताती है कि दिल्ली-एनसीआर सहित देश के 122 शहर प्रदूषण की मार झेल रहे हैं. इन गंभीर चुनौतियों के बावजूद हम पेड़ों की बलि चढ़ाने से बाज नहीं आ रहे. बस हमने अपनी गलतियों का ठीकरा दूसरों पर फोड़ना अच्छी तरह से सीख लिया है.
केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय (Ministry of Environment, Forest and Climate Change) की रिपोर्ट के मुताबिक 2015-2016 से 2018-2019 तक देश में 94,98,516 पेड़ काट दिए गए. सबसे ज्यादा पेड़ काटने वाले राज्यों में तेलंगाना, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ , आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश और हरियाणा शामिल हैं. बेरहम विकास के नाम पर तेलंगाना में 15 और महाराष्ट्र में 13.42 लाख पेड़ काट दिए गए. हालांकि, केंद्र सरकार कह रही है कि इसके बदले हम ज्यादा पेड़ लगवा रहे हैं. पर्यावरण राज्य मंत्री बाबुल सुप्रियो का कहना है कि जितने पेड़ काटे गए हैं उसकी भरपाई के लिए 10.32 करोड़ पौधे लगाए गए हैं. पेड़ों को तभी काटा जाता है जब बहुत जरूरी हो. देश में वन क्षेत्र बढ़ रहा है.
पर्यावरण से जुड़े कुछ सवाल
-सरकार दावा कर रही है कि देश में वन क्षेत्र बढ़ रहा है तो क्या आबादी नहीं बढ़ रही? क्या प्रदूषण बढ़ाने वाले कारण नहीं बढ़ रहे? क्या बढ़ता वन क्षेत्र बढ़ती आबादी की जरूरतें पूरी करने के लिए पर्याप्त है? क्या 40-50 साल पुराने पेड़ों की भरपाई नए पौधे कर सकते हैं, जो पौधारोपण किया जाता है क्या वो सारे पौधे पेड़ बन जाते हैं, क्या 40 से 50 साल पुराने बेशकीमती पेड़ों को काटने की बजाय उन्हें ट्रांसप्लांट करना बेहतर विकल्प नहीं है?
पेड़ों के बारे में यह भी जानिए
-विशेषज्ञों के मुताबिक 18 फीट परिधि का 100 फीट ऊंचा पेड़ हर साल 260 पाउंड ऑक्सीजन देता है. इतना बड़ा पेड़ बनने में कितने साल लगेंगे इसका अंदाजा आप खुद लगाईए. दो छायादार पेड़ चार परिवार को जीवन भर ऑक्सीजन दे सकते हैं.
-एन. शिवकुमार कहते हैं कि नए पौधों को पेड़ बनने में कम से कम 25 साल लगते हैं. इतने दिनों में कैनोपी बनती है. कैनोपी ही प्रदूषण रोकती है और छाया देती है. एक पीढ़ी की जवानी निकल जाएगी तब जाकर उन्हें उसका फायदा मिलेगा.

फॉरेस्ट एरिया और फॉरेस्ट कवर में अंतर क्या है?
वनावरण (Forest Cover): भारतीय वन सर्वेक्षण के मुताबिक फॉरेस्ट कवर भूमि की कानूनी स्थिति की परवाह किए बिना भू-भाग पर आच्छादित वन क्षेत्र को परिभाषित करता है. ‘वनावरण' शब्द में वे वृक्ष खंड शामिल हैं जिनका छत्र घनत्व (Canopy Density) 10% से अधिक है और आकार में 1 हेक्टेयर या उससे अधिक हैं, भले ही उनकी कानूनी स्थिति और प्रजातियों की संरचना कैसी भी हो.
वन क्षेत्र (Forest Area): वन क्षेत्र शब्द का प्रयोग ऐसी सभी भूमियों के लिए किया जाता है, जिन्हें किसी सरकारी अधिनियम या नियमों के अंतर्गत वन के रूप में अधिसूचित किया गया हो, इस क्षेत्र में वनावरण हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है.
आप दिल्ली और उससे लगते यूपी व हरियाणा का वन क्षेत्र देखेंगे तो पाएंगे कि प्रदूषण फैलाने के लिए यहां की सरकारें खुद जिम्मेदार हैं, जिन्होंने विकास की अंधी दौड़ (Development) में वन क्षेत्रों को तहस-नहस कर डाला है. उत्तर प्रदेश और हरियाणा उन 10 कुख्यात राज्यों में शामिल हैं, जिनमें सबसे ज्यादा पेड़ काटे गए हैं.

मैनपुरी में किसान का कॉलर पकड़कर खींचता पुलिसकर्मी, तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल है.
इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट 2019 के मुताबिक यूपी में 33 फीसदी की जगह सिर्फ 6.88 और हरियाणा में 3.53 परसेंट ही फॉरेस्ट एरिया है. दोनों प्रदेशों के एनसीआर में आने वाले जिलों में फॉरेस्ट कवर भी नाम मात्र का ही रह गया है. इसके बावजूद पर्यावरण से संबंधित सरकारी नाकामी पर परदा डालकर दोनों सरकारों के अधिकारी प्रदूषण के लिए सिर्फ किसानों को जिम्मेदार मान रहे हैं. उन पर एफआईआर दर्ज कर रहे हैं.
राष्ट्रीय किसान महासंघ के संस्थापक सदस्य बिनोद आनंद ने सवाल उठाया है कि प्रदूषण में जब पराली का योगदान औसतन 20 फीसदी के आसपास ही है तो सिर्फ किसानों (Farmers) पर ही एफआईआर क्यों की जा रही है. कंस्ट्रक्शन (निर्माण कार्य) जैसे जो इसके दूसरे बड़े कारक हैं उसके लिए जिम्मेदार लोगों पर एफआईआर क्यों नहीं? क्या किसान सरकार के लिए सॉफ्ट टारगेट हैं?
2019 में सिर्फ दो दिन अच्छी थी दिल्ली की हवा, जिम्मेदार कौन?
कोरोना लॉकडाउन के समय को छोड़ दें तो राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली (Delhi) में आबोहवा साल में एक-दो दिन ही बहुत अच्छी रहती है. साल 2019 में 17 और 18 अगस्त को ही दिल्ली की हवा बहुत अच्छी थी. इस दौरान एयर क्वालिटी इंडेक्स को ‘गुड’ मार्क मिला था. जबकि अन्य दिनों में ट्रांसपोर्ट, इंडस्ट्री और धूल से प्रदूषण कायम रहा. इसके बावजूद राज्य सरकारों और बिल्डरों की लालच ने दिल्ली के आसपास के फॉरेस्ट कवर को निगल लिया है. पेड़ों को काटकर कंक्रीट के जंगल खड़े किए जा रहे हैं. यहां तक कि दिल्ली के लिए 'फेफड़े' का काम करने वाली अरावली (Aravali) के जंगल को भी सरकार की मिलीभगत से बिल्डरों ने छलनी कर दिया है. जबकि सुप्रीम कोर्ट ने अरावली में निर्माण पर रोक लगाई हुई है.
इसे भी पढ़ें: वैज्ञानिकों ने दी बड़ी सौगात! सिर्फ 5 रुपये के कैप्सूल से खत्म हो जाएगी ये समस्या
आबादी बढ़ रही है, वाहन बढ़ रहे हैं, कंस्ट्रक्शन बढ़ रहा है लेकिन पेड़ घट रहे हैं. पौधारोपण रस्म अदायगी भर रह गया है. नतीजा यह है कि यहां की हवा और जहरीली हो गई है. जब हम फेफड़ों (Lungs) को ही खत्म कर देंगे तो फिर प्रदूषण कैसे रुकेगा? क्या पेड़ों के बिना हमें साफ हवा मिलेगी?

इस तरह तो कम नहीं होगा प्रदूषण
पर्यावरणविद एन. शिवकुमार कहते हैं कि साल 1952 में बनी फॉरेस्ट पॉलिसी के मुताबिक 33 फीसदी वन का प्रावधान किया गया था. ताकि लोगों को अच्छी हवा मिले. पर्यावरण संतुलन बना रहे. जब यह तय किया गया था तब न इतनी गाड़ियां थीं और न इतना कंस्ट्रक्शन. 21वीं सदी की शुरुआत से अब तक अंधाधुंध निर्माण और वाहनों की भीड़ में फॉरेस्ट एरिया और कवर बढ़ने की बजाय और कम होता गया.
शिवकुमार कहते हैं कि अरावली पर्वत श्रृंखला (Aravalli Mountain Range) दिल्ली के लिए फिल्टर या फेफड़े की तरह काम करती है. जब हम इसे ही छलनी करेंगे तो हमारे हिस्से में जहरीली हवा ही आएगी. विकास के नाम पर पेड़-पौधे काटे जा रहे हैं, लेकिन उसके बदले क्या कोई नया वन क्षेत्र बनाया जा रहा है? अगर अरावली को इसी तरह तहस-नहस किया जाता रहा तो आने वाले वर्षों में दिल्ली के हालात और खराब हो सकते हैं.
अगर दिल्ली, गुरुग्राम, सोनीपत, गाजियाबाद, नोएडा, ग्रेटर नोएडा, रेवाड़ी और मेवात में 33 फीसदी वन क्षेत्र होता तो प्रदूषण का असर दिल्ली पर इतना नहीं होता, जितना कि अब दिख रहा है.
इन जिलों में पेड़-पौधों की सबसे खराब स्थिति
इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट के मुताबिक पेड़-पौधों को लेकर सबसे खराब हालात एनसीआर के पलवल, रेवाड़ी, सोनीपत, गाजियाबाद, गौतम बुद्ध नगर और मेरठ के हैं, जहां पर 4 फीसदी भी फॉरेस्ट कवर नहीं बचा है. जबकि इनमें से कई बड़े औद्योगिक शहर हैं, जहां पेड़ पौधों की जरूरत कहीं ज्यादा होती है. इन शहरों के योजनाकारों से इस बारे में सवाल जरूर पूछा जाना चाहिए कि शहर की जरूरत के हिसाब से पेड़-पौधे क्यों नहीं लगाए गए?

2019 में दिल्ली वालों को सिर्फ दो दिन अच्छी हवा नसीब हुई. इसके लिए किसान तो कसूरवार नहीं है.
वरना और बुरे होते हालात?
अरावली को खोखला करने के काम में हर पार्टी के नेता, ब्यूरोक्रेट, कुछ बाबा और बिल्डर शामिल हैं. सत्ता के नजदीक रहने वाले कुछ लोग समय-समय पर अरावली को और तहस-नहस करने की कोशिश करते रहे हैं, लेकिन कुछ पर्यावरण हितैषी लोगों की वजह से उनकी मंशा पर कभी-कभी पानी भी फिरा है. ऐसे कुछ उदाहरण मौजूद हैं.
-हरियाणा सरकार ने एनसीआर प्लानिंग बोर्ड में फरीदाबाद क्षेत्र की 17,000 एकड़ भूमि को 'वन भूमि' के दायरे से बाहर निकालने का प्रस्ताव दे दिया था. जिसे बोर्ड ने दिसंबर 2017 के पहले सप्ताह में रद्द कर दिया. साथ ही कहा कि अरावली का दायरा हरियाणा के गुरुग्राम और राजस्थान के अलवर तक ही सीमित नहीं होगा. इसका दायरा पूरे एनसीआर में माना जाएगा. अरावली वन भूमि का सीमांकन बोर्ड के फैसले और पर्यावरण मंत्रालय की अधिसूचना के मुताबिक होगा. बोर्ड के इस निर्णय से अरावली और छलनी होने से बच गई. वरना इस जमीन पर और हाईराइज बिल्डिंगें तैयार होतीं.
इसे भी पढ़ें: 50 की जगह 999 हुआ दिल्ली का AQI, आंखों में हो सकता है अल्सर!
>> मांगर (फरीदाबाद-गुरुग्राम के बीच) के आसपास 23 गांवों की 10,426 हेक्टेयर जमीन पर हुड्डा सरकार ने मांगर डेवलपमेंट प्लान-2031 बनाया था, लेकिन वन क्षेत्र को बचाने के लिए एनसीआर प्लानिंग बोर्ड ने इसकी मंजूरी देने से मना किया.
>> हरियाणा सरकार ने मांगर क्षेत्र में एक डच कंपनी को 500 एकड़ भूमि पर यूरोपियन टेक्नॉलोजी पार्क बनाने की मंजूरी दे दी थी. इस पर केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने रोक लगाई.

दिल्ली के प्रदूषण में पराली का योगदान (रिपोर्ट-SAFAR)
पीएलपीए में संशोधन से किसे फायदा पहुंचाना चाहती है सरकार?
वरिष्ठ पत्रकार सौरभ भारद्वाज कहते हैं कि हरियाणा, देश में सबसे कम वन क्षेत्र वाले सूबों में शामिल है, इसके बावजूद सरकार अरावली के जंगलों को नष्ट करने पर आमादा है. सरकार ने 27 फरवरी 2019 को पंजाब भूमि संरक्षण एक्ट (पीएलपीए) 1900, में संशोधन को पास कर दिया. इस संशोधन ने एक तरह से एक्ट को ही निष्प्रभावी बना दिया है क्योंकि इससे 74,000 एकड़ जंगल शहरीकरण, खनन और रियल स्टेट के विकास की भेंट चढ़ जाएंगे.
भारद्वाज कहते हैं कि अरावली में एक व्यक्ति ने होटल बनाया. वहां जो पेड़ काटे गए उसके बदले उसने ढाई सौ किलोमीटर दूर पौधारोपण किया. एक पेड़ काटने के बदले कहीं 2 तो कहीं 10 पेड़ लगाने का नियम है लेकिन यह कहीं नहीं लिखा है कि कहां लगाएंगे. काटने वाला इसे कहीं भी लगा सकता है. ऐसे में जिन लोगों के आसपास के पेड़ काटे गए हैं उन्हें तो दस गुना पेड़ लगाने का फायदा नहीं मिलता. पर्यावरण मंत्रालय नए नियम बनाकर यह प्रावधान करे कि जहां पेड़ काटे जाएंगे उसके एक-दो किलोमीटर की परिधि के अंदर ही पौधारोपण करना पड़ेगा. आम, पीपल और नीम जिसका भी पेड़ कटे तो उसके बदले उसी का पौधा लगाया जाए.
पर्यावरण पर हम सबकी चिंता क्या सिर्फ दिखावा है?
देश के ज्यादातर शहरों में लोग जहरीली हवा में सांस ले रहे हैं. तो दूसरी ओर विकास योजनाओं के नाम पर पिछले चार साल में लगभग 95 लाख पेड़ काट दिए गए. जबकि यही पेड़ हमारे पर्यावरण को शुद्ध रखने का काम करते हैं. हमें ऑक्सीजन देते हैं. 95 लाख तो सरकारी आंकड़ा है, असल में कितने पेड़ काटे गए इसका कोई रिकॉर्ड नहीं. सवाल ये है कि क्या पर्यावरण को लेकर हमारी और सरकारों की चिंता सिर्फ दिखावा है.

पेड़ काटने वाले कुख्यात राज्य
हम हर साल नवंबर से दिसंबर तक प्रदूषण की चिंता में डूबे रहते हैं. फिर अचानक चुप हो जाते हैं. क्यों? क्या यह समस्या खत्म हो जाती है? नहीं, हमारे ज्यादातर शहर साल भर प्रदूषित रहते हैं. पर्यावरण मंत्रालय की एक रिपोर्ट बताती है कि दिल्ली-एनसीआर सहित देश के 122 शहर प्रदूषण की मार झेल रहे हैं. इन गंभीर चुनौतियों के बावजूद हम पेड़ों की बलि चढ़ाने से बाज नहीं आ रहे. बस हमने अपनी गलतियों का ठीकरा दूसरों पर फोड़ना अच्छी तरह से सीख लिया है.
केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय (Ministry of Environment, Forest and Climate Change) की रिपोर्ट के मुताबिक 2015-2016 से 2018-2019 तक देश में 94,98,516 पेड़ काट दिए गए. सबसे ज्यादा पेड़ काटने वाले राज्यों में तेलंगाना, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ , आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश और हरियाणा शामिल हैं. बेरहम विकास के नाम पर तेलंगाना में 15 और महाराष्ट्र में 13.42 लाख पेड़ काट दिए गए. हालांकि, केंद्र सरकार कह रही है कि इसके बदले हम ज्यादा पेड़ लगवा रहे हैं. पर्यावरण राज्य मंत्री बाबुल सुप्रियो का कहना है कि जितने पेड़ काटे गए हैं उसकी भरपाई के लिए 10.32 करोड़ पौधे लगाए गए हैं. पेड़ों को तभी काटा जाता है जब बहुत जरूरी हो. देश में वन क्षेत्र बढ़ रहा है.
पर्यावरण से जुड़े कुछ सवाल
-सरकार दावा कर रही है कि देश में वन क्षेत्र बढ़ रहा है तो क्या आबादी नहीं बढ़ रही? क्या प्रदूषण बढ़ाने वाले कारण नहीं बढ़ रहे? क्या बढ़ता वन क्षेत्र बढ़ती आबादी की जरूरतें पूरी करने के लिए पर्याप्त है? क्या 40-50 साल पुराने पेड़ों की भरपाई नए पौधे कर सकते हैं, जो पौधारोपण किया जाता है क्या वो सारे पौधे पेड़ बन जाते हैं, क्या 40 से 50 साल पुराने बेशकीमती पेड़ों को काटने की बजाय उन्हें ट्रांसप्लांट करना बेहतर विकल्प नहीं है?
पेड़ों के बारे में यह भी जानिए
-विशेषज्ञों के मुताबिक 18 फीट परिधि का 100 फीट ऊंचा पेड़ हर साल 260 पाउंड ऑक्सीजन देता है. इतना बड़ा पेड़ बनने में कितने साल लगेंगे इसका अंदाजा आप खुद लगाईए. दो छायादार पेड़ चार परिवार को जीवन भर ऑक्सीजन दे सकते हैं.
-एन. शिवकुमार कहते हैं कि नए पौधों को पेड़ बनने में कम से कम 25 साल लगते हैं. इतने दिनों में कैनोपी बनती है. कैनोपी ही प्रदूषण रोकती है और छाया देती है. एक पीढ़ी की जवानी निकल जाएगी तब जाकर उन्हें उसका फायदा मिलेगा.

इसलिए जरूरी हैंं पेड़
फॉरेस्ट एरिया और फॉरेस्ट कवर में अंतर क्या है?
वनावरण (Forest Cover): भारतीय वन सर्वेक्षण के मुताबिक फॉरेस्ट कवर भूमि की कानूनी स्थिति की परवाह किए बिना भू-भाग पर आच्छादित वन क्षेत्र को परिभाषित करता है. ‘वनावरण' शब्द में वे वृक्ष खंड शामिल हैं जिनका छत्र घनत्व (Canopy Density) 10% से अधिक है और आकार में 1 हेक्टेयर या उससे अधिक हैं, भले ही उनकी कानूनी स्थिति और प्रजातियों की संरचना कैसी भी हो.
वन क्षेत्र (Forest Area): वन क्षेत्र शब्द का प्रयोग ऐसी सभी भूमियों के लिए किया जाता है, जिन्हें किसी सरकारी अधिनियम या नियमों के अंतर्गत वन के रूप में अधिसूचित किया गया हो, इस क्षेत्र में वनावरण हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है.
ब्लॉगर के बारे में
ओम प्रकाश
लगभग दो दशक से पत्रकारिता में सक्रिय. इस समय नेटवर्क-18 में विशेष संवाददाता के पद पर कार्यरत हैं. खेती-किसानी और राजनीतिक खबरों पर पकड़ है. दैनिक भास्कर से कॅरियर की शुरुआत. अमर उजाला में फरीदाबाद और गुरुग्राम के ब्यूरो चीफ का पद संभाल चुके हैं.
First published: November 8, 2020, 12:00 PM IST