हमारे यहां भोजन को हमेशा से जश्न की तरह लिया जाता था. यही नहीं भारत में खान-पान का रवैया बताता है कि वो किस तरह इकोसिस्टम से जुड़ा हुआ था. हर त्यौहार पर बनने वाले व्यंजन, हर क्षेत्र में बदलते मौसम के साथ बनने वाला खाना, उसमें पाई जाने वाली विविधता एक भोजन संस्कृति को समझाती है. ये संस्कृति और इसका आचार विचार पूरी दुनिया में कहीं देखने को नहीं मिलता है.
Source: News18Hindi Last updated on: January 23, 2021, 10:43 pm IST
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किचन सेल्फ में गैस स्टोव के पीछे वाले हिस्से और सिंक को रोजाना साफ करें.
कुछ दिनों पहले एक वीडियो वायरल हुआ था, रसोड़े में कौन था. सास बहु की साज़िश बताने वाले डेली सोप का मज़ाक उड़ाने वाला इस वीडियो में एक ज़रूरी बात भी थी. आपका किचिन. दरअसल अगर हम अपने किचिन को नहीं साध पा रहे है इसलिए कोरोना जैसी बीमारियों के घेरे में आ रहे हैं. खास बात ये हैं कि भले ही कोरोना की वैक्सीन निकल गई है लेकिन इससे अभी भी बचाव की बात कही जा रही है. औऱ बचाव के लिए ज़रूरी है उचित खान-पान.
ये उचित खान-पान ही भारतीय भोजन की आत्मा है. भारत में भोजन की एक लंबी और प्राचीन परंपरा है. हमारे यहां खाना जीवन जीने के लिए नहीं रहा, हमारे यहां खाना जिंदगी जीने का एक तरीका है. यहां भोजन प्रकृति के साथ मिलजुल कर, उसके साथ प्यार करके तैयार किया गया है. यही वजह है कि भारत में भोजन की पूरी परंपरा ऋतुचर्या से जुड़ी रही है. लेकिन जिस तरह से खाने पर बाज़ार हावी हुआ, हमने अपनी प्रकृति से नाता तोड़ा और 12 महीने संरक्षित, संवर्धित खाना खाना सीखा तभी से हमारी जिंदगी में तूफान आना शुरू हुआ.
हमारे यहां भोजन को हमेशा से जश्न की तरह लिया जाता था. यही नहीं भारत में खान-पान का रवैया बताता है कि वो किस तरह इकोसिस्टम से जुड़ा हुआ था. हर त्यौहार पर बनने वाले व्यंजन, हर क्षेत्र में बदलते मौसम के साथ बनने वाला खाना, उसमें पाई जाने वाली विविधता एक भोजन संस्कृति को समझाती है. ये संस्कृति और इसका आचार विचार पूरी दुनिया में कहीं देखने को नहीं मिलता है. लेकिन बाज़ार के घेर मे आकर हम इसी संस्कृति से दूर होते चले गए. औऱ आज ये आलम है कि कोरोना जैसे काल में जब हम इम्यूनिटी की बात कर रहे हैं तो आपके आस-पास के लोग आपको कीवी खाने की सलाह दे रहे होते हैं. जबकि सर्दियों के मौसम में आऩे वाले अमरूद की तरफ हम नज़र ही नहीं डालते हैं. अमरूद में जो रोग-प्रतिरोधक क्षमता होती है, उसमें इसके सामने सेब जैसा फल भी नहीं टिकता है, जिसे लेकर ‘एक सेब रोज खाओ, डॉक्टर को दर भगाओ’ जैसी कहावत कही जाती है. अमरूद एकमात्र ऐसा फल है जिसे लगाने के लिए किसी तरह के कीटनाशक या दवाई की ज़रूरत नहीं पड़ती है. ये अपनी रक्षा खुद कर लेता है, और इसके पत्ते, छाल, लकड़ी औऱ फल हर एक चीज़ किसी ना किसी तरह से शारीरिक क्षमता का विकास करती है. इस पर अगर विस्तार से लिखा जाए तो एक ग्रंथ तैयार हो सकता है.
अगर हम अपने वेदों औऱ ग्रंथों पर नज़र डालें तो हमें समझ आता है कि किस तरह भारत जो खाद्य संस्कृति में विविधता समेटे हुए था. वो अब एकल विधा में सिमट गया है. पूरा देश, चाहे वो उत्तर का रहने वाला हो या दक्षिण का, पूर्व में रहता हो या पश्चिम में, समान तरीके से बर्गर खा रहा है, या फिर पनीर की सब्जी ( इस तरह हमने सब्जी के सब्ज यानि हरे रंग की भी परिभाषा बदल दी औऱ दूध से बना पनीर पूरे भारत में एक सुर में सब्जी बन गया है).
दरअसल भारत का खान-पान बताता है कि हम प्रकृति से किस कदर जुड़े रहे हैं. जिस तरह से भारत में क्षेत्रीय स्तर पर खेती की जाती है, औऱ खान पान को अपनाया जाता है वो बताता है कि हमारे पूर्वज, अपने इर्द गिर्द के मौसम, और उससे पड़ने सेहत पर पड़ने वाले असर को लेकर किस कदर जागरुक थे.
स्वदेशी खान-पान पूरी तरह से हमारी रोजमर्रा की जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए था. उसमें वो औषधीय गुण हुआ करते थे जो हमें मौसम से जुड़ी बीमारियों से बचाते थे. लेकिन बाजार की ताकत के आगे इस परंपरा ने घुटने टेक दिये. अब खाना एक बाज़ारी उत्पाद बन कर रह गया है. हम हमारे खान-पान को अपने क्षेत्र, अपनी सेहत के हिसाब से नहीं बाजार और दूसरों से प्रभावित हो कर तय कर रहे हैं. धीरे-धीरे हमारी मानसिकता में ऑर्गेनिक जैसी शब्दों को डाला जा रहा है, हमें बताया जा रहा है कि किसी भी क्षेत्रीय फल के बनिस्बत ड्रेगन फ्रूट कितना ज्यादा ताकतवर है. शुरू से दलिया, ज्वार, मक्का, चना, बाजरा जैसा मोटा अनाज खाने वाला समाज अब किनोआ, ओट्स, म्यूसिली,कॉर्न फ्लेक्स से दोस्ती करने में जुटा हुआ है. बाज़ारी ताकत लगातार टीवी और दूसरे सोशल मीडिया के माध्यमों से दिमाग में हथौड़ें चला रही हैं और समझा रही है कि लोकल पर वोकल होने से कुछ भी हो जाए सेहतमंद नहीं हो पाओगे.
पहले आपको घरों में गर्म तासीर का खाना, ठंडी तासीर, मौसम के हिसाब से खाना जैसे बाते सुनने को मिलती थी, लेकिन हम मौसमी खाना जैसा कुछ नहीं रह गया, अब आप जो भी चाहें वो पूरे साल भर उपलब्ध है. जबकि मौसम में उपलब्ध खाने को लेकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण था. क्योंकि मौसम में ऊगी फल, सब्जी या अनाज उस मौसम से लड़ने की ताकत रखते थे, उस मौसम में पनपते थे, इसलिए वो सेहत के लिए बेहतर होते हैं. मसलन आप गर्मियों में ड्राय फ्रूट्स नहीं खाते इन्हें सर्दियों में खाने का रिवाज़ है क्योंकि इसकी गर्मी आपको सर्दी से बचाए रखती है, वहीं गर्मी में इसे खाने से हाजमा खराब हो जाता है. लेकिन अब आपको गर्मियों में भी कोई नामचीन शख्सियत ड्राय फ्रूट्स खाने की सलाह देता नज़र आ जाएगा. हम पर सामाजिक दबाव इतना है कि हम उन बातों को नकार देते हैं जिसके साथ हम बड़े हुए हैं.
इसी तरह से मीट इंडस्ट्री और एनिमल फार्मिंग जिस तेजी से बड़ी है उसने पूरे जंगल औऱ पर्यावरण की हालत खराब कर के रख दी है. यही नहीं जिस तरह से इंसानों में मीट के सेवन को लेकर बढोतरी हुई है, उसने हमारी सेहत पर बहुत बुरा असर डाला है. वक्त आ गया है कि हमें अपनी और वातावरण की सेहत के लिए संतुलन स्थापित करना चाहिए. और दुनियाभर में मीट उत्पादन पर लगाम कसी जानी चाहिए साथ ही इंसानों को वनस्पति जनित खाद्य पदार्थों के सेवन को बढाना चाहिए.
आयुर्वेद के अनुसार खाना हमारी शारीरिक, मानसिक और हमारी प्रवृति को निर्धारित करता है. इसलिए संतुलित और सेहतमंद भोजन बेहद ज़रूरी होता है. हमारे यहां खाने को तीन श्रेणियों में बांटा गया. पहला ‘सात्विक’ जिसमें सब्जी, दूध, फल और शहद जैसे पदार्थ शामिल हैं, दूसरा होता है ‘तामसिक’ जिसमें ऐसा खाना शामिल होता है जो हमारे स्वभाव में उग्रता लाता है जिस्म ज्यादा मसालेदार भोजन, मीट, लहसुन जैसे पदार्थ शामिल होते हैं. तीसरा होता है ‘राजसिक’ जिसमें तेल, वसा शामिल होता है जिससे हमें रोजमर्रा में ज़रूरी एनर्जी प्राप्त हो ती है.
खाने में बदलाव से क्या होगा ?
मीट औऱ डेयरी उद्योग इस धरती पर मौजूद पानी का एक तिहाई इस्तेमाल करता हैं. अगर हम अपने खान-पान में थोड़ा सा बदलाव ले आएं तो इसके असर को कुछ इस तरह से समझ सकते हैं कि अकेले अगर अमेरिका जानवरों से ज़ुड़े उत्पाद या जानवर को खाने में आधी कटौती कर दें, तो दुनिया भर के 37 फीसद लोगों को प्रतिदिन पानी की एक उचित मात्रा उपलब्ध हो जाएगी.
कृषि से 30 फीसद ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन होता है, इसमें से 14.5 फीसद अकेले जानवरों के चारे से पैदा होती है. वनस्पति आधारित भोजन को बढ़ाने से प्रति व्यक्ति कार्बन फुटप्रिंट को 70 फीसद तक कम किया जा सकता है. अगर अकेले अमेरिका का हर नागरिक अपने हर हफ्ते के मीट उपभोग में एक बार की कमी कर दे तो जितनी कार्बन डाय ऑक्साइड की बचत होगी वो सड़क पर दौड़ रही 5 लाख कारों के बराबर होगी.
कुल मिलाकर बात इतनी होती है कि पुरानी कहावत है जैसा खावें अन्न वैसा होगा मन. बाकि डेनिस लेयरी ने तो कहा ही है “मीट नहीं खाना एक फैसला होता है, औऱ खाना प्रवृत्ति”
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi उत्तरदायी नहीं है.)