डॉक्यूमेंट्री ‘ईयर्स ऑफ लिविंग डेंजरसली’ जो मौसम में हो रहे बदलावो पर बारीकी से निरीक्षण करती है उसमें बताया गया है कि किस तरह से विश्व के अमेज़न के जंगल जिन्हें बुरी तरह से साफ किया जा रहा है. वहां एक खोज से पता चला कि महज दस दिनों के भीतर ही वहां के 351 एकड़ जंगलों का सफाया हो गया. बीते कुछ सालों में ही यहां का एक बड़ा हिस्सा जंगल से मैदान में तब्दील हो चुका है. इस तरह से जंगल तेजी से काटे जाने की वजह भी बड़ी चौंकाने वाली है. दरअसल ब्राजील विश्व के सबसे बड़े बीफ एक्सपोर्टर में से एक है. अमेरिका और चीन के साथ बाज़ार में प्रतियोगिता कर रहा ब्राजील बीफ के एक्सपोर्ट को बढ़ावा देने के लिए तेजी से जंगलों को साफ कर रहा है जिससे वहां जंगल का मैदान बनाया जा सके और मवेशी वहां चारा खा सकें. इससे न सिर्फ जंगलों को नुकसान पहुंच रहा है बल्कि वहां रहने वाली कई प्रजातियां भी इसकी चपेट में आकर खत्म होती जा रही हैं.
जहां घने जंगल वहीं पर्यावरण पर खतरा
इधर हाल ही में आईआईटी-मंडी, गुवाहाटी और आईआईएससी-बेंगलुरू ने पहली बार राज्यों का क्लाइमेट वल्नेरबिलिटी इंडेक्स यानि पर्यावरण संवेदनशील सूचकांक तैयार किया है. इसका मतलब ये है कि ये भारत के वो राज्य हैं, जो पर्यावरण की वजह से होने वाले दुष्परिणामों की जद में ज्यादा हैं. इन राज्यों में झारखंड, मिजोरम, ओडीशा, छत्तीसगढ़, असम, बिहार, अरुणाचल प्रदेश और पश्चिम बंगाल राज्य शामिल हैं. यही नहीं जो 100 अव्वल जिले हैं, उनमें ज्यादातर असम, बिहार, और झारखंड के हैं. और दोनों तरह की सूची में झारखंड देश का सबसे संवेदनशील राज्य है. गौर करने वाली बात ये है कि ये वो राज्य हैं जहां भारत के सबसे घने जंगल पाए जाते हैं.
विकास चहुं ओर
विकास की एक बानगी और देखते हैं. मध्यप्रदेश में सागर से 21 किलोमीटर दूर सड़ान-सतगढ़ सिंचाई परियोजना के तहत 24 मीटर ऊंचा बांध बनाया जा रहा है. इसमें खानपुर सहित 9 गांव का 746 हेक्टेयर क्षेत्र डूब में आ रहा है. खानपुरा के पास के पहाड़ों पर 13 ऐसी चट्टानें हैं, जहां आदिमानव ने चित्र उकेरे थे. उनमें से कुछ शैलचित्र ऐसे भी हैं, जो आज से करीब 7000 साल पुराने हैं. इसका मतलब हुआ ये वो शैलचित्र हैं जिससे सिंधु घाटी सभ्यता से भी 2000 साल पुरानी सभ्यता के प्रमाण मिलते हैं. अब विकास के बांध की वजह से इस सभ्यता के अवशेष पूरी तरह से खत्म हो जाएंगे. क्योंकि बांध बनते ही ये सभी शैलचित्र पूरी तरह से नष्ट हो जाएंगे. लेकिन इन्हें संरक्षित करने की कोई पहल ही नहीं की गई है गोया हमें कोई फर्क ही नहीं पड़ता है. दैनिक भास्कर में छपी खबर के मुताबिक डॉ हरीसिंह गौर केन्द्रीय विवि के प्राचीन इतिहास विभाग के एचओडी प्रो. नागेश दुबे और शैलचित्र विशेषज्ञ डॉ. प्रदीप शुक्ल के अनुसार इन चट्टानों पर मध्य पाषाण काल के शैलचित्र में मानव के समूह शिकार, भाला, तलवार, और ढाल लिए चित्र बने हैं. जानवरों में मोर, जंगली भैंसा, सूअर, सांभर, बंदर, घोड़ा, योद्धा, अश्वारोही, जुलूस, नृत्य बहंगीवादक जैसे शैलचित्र के दृश्य ऐतिहासिक काल की ओर इशारा करते हैं. गांव के आसपास नाहरखोह, हाथी दरवाजा और सतगढ़ नाम की पहाड़ियों में अधिक संख्या में शैलचित्र मिलते हैं. यही नहीं खानपुर गांव के आसपास मौजूद जंगलों में चंदेल और कल्चुरी शासन काल की एक हज़ार साल पुरानी प्रतिमाएं तक बिखरी पड़ी हैं. ये सभी बहुमूल्य खजाना बांध से महज़ 800 मीटर की दूरी पर है.
अब इस इतिहास और जंगलों को खोकर हम पाएंगे क्या?
इसके एवज में बनने वाले बांध से 12 हज़ार हेक्टेयर ज़मीन को सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध होगा. ये जो होगा शब्द है ना इसमें भी एक अजीब तरह का आकर्षण है. ये आमतौर पर हुआ में बदलता नहीं है. ये होता ही रहता है और जो कुछ होता है उससे मिलने वाले नतीजे में, विकास की बाढ़ में जंगल बहता है, ज़मीन दलदल बनती है, गांव लुटते हैं, और इतिहास तबाह होता है. और इस तरह की बात लिखने वाले या बताने वाले को विकास विरोधी करार दिया जाता है.
इंसान सबसे बड़े परजीवी
हम इंसान जो खुद को आहार श्रंखला में सबसे ऊपर रखते हैं। कायदे में हमसे बड़ा परजीवी कोई नहीं है. हमने हमेशा दूसरे की हक को हड़प कर या उससे लेकर खुद का गुजारा किया है. यही नहीं वेदों में भी इस बात का उल्लेख मिलता है कि धरती पर पहले जीवन का अनुपात 1 के सामने 100 का था यानि एक करोड़ इंसान थे तो सौ करोड़ मवेशी औऱ दूसरे जीव थे। प्रकृति ने इन्हें इसी तरह बनाया था, लेकिन कालांतर में हम सौ गुना हो गए औऱ बाकि जीव सिमट गए. हमारी संख्या बढ़ी तो जंगल घटे, प्रकृति के दूसरे संसाधनों पर हमारे कब्ज़े से उन संसाधनों के असली हकदार जीवों को नुकसान पहुंचा. और धीरे-धीरे हमने सबको हड़प लिया, आज हम उसी का नतीजा भुगत रहे हैं। खास बात ये है कि अब हम इंसानो का पेट भरने के लिए मवेशियों का उत्पादन कर रहे हैं और इसका भार भी हमारे जंगल उठा रहे हैं.
जिन्हें इस तरह पेड़ों का काटा जाना कोई बड़ी बात नहीं लगती, या जो ये सोचते हैं कि नए पौधे लगाकर वो इसकी भरपाई कर लेंगे , उन्हें यह समझाना जरूरी है कि अगर इसी तरह पेड़ों को खोते जाएंगे तो हम उस एयरकंडीशनिंग को खत्म कर देंगे जो इस पूरे पृथ्वी ग्रह को ठंडा रखता है. प्रकृति की एक बड़ी ही अनूठी प्रक्रिया है यहां कुछ भी व्यर्थ नहीं जाता है. किसी एक का त्यागा गया दूसरे के लिए उपयोगी बन जाता है. इसे ही पारस्परिक सांमजस्य कहा जाता है.
बुनियादी सुविधाओं के नाम पर चुनाव लड़ने और जीतने वाले देश के नुमाइंदो को ये अहसास कराना जरूरी है कि सबसे पहले हम उसे संभाले जिस पर हमारी बुनियाद टिकी हुई है. जिस तरह दिल्ली के द्वारका या मुंबई के आरे जंगल या अरावली के पहाड़ों को बचाने के लिए जनता एकजुट हुई वैसा एकजुट होना बेहद ज़रूरी हो गया है. अब प्रगति के विचार को बदलने की ज़रूरत है. पांच साल मे एक भी बार शक्ल नहीं दिखाई या हमारे इलाके में विकास के नाम पर क्या हुआ, जैसे सवालों से बढ़कर अब स्थानीय स्तर पर हर नागरिक को ये सवाल पूछना चाहिए कि हर छोटी बड़ी परियोजनाओं के एवज में विकास के नाम पर सरकार ने पर्यावरण की सेहत को कितना नुकसान पहुंचाया है.
बाकी सही तरह से गूगल कीजिएगा तो पता चलेगा कि पहली बार 1970 में पृथ्वी दिवस मनाया गया था. लेकिन इसकी नींव 1962 में रख दी गई थी जब राशेल कार्सन की किताब साइलेंट स्प्रिंग की 24 देशों में 5 लाख प्रतियां बिकी और इसे न्यूयॉर्क बेस्ट सेलर का सम्मान हासिल हुआ. दरअसल इस किताब की बदौलत लोगों में प्राणियों और पर्यावरण के प्रति जागरुकता बढ़ी और प्रदूषण और सेहत का क्या लेना देना होता है ये समझ आया. खास बात ये है कि तब जिस बात को लेकर पृथ्वी दिवस की नींव पड़ी थी हम आज भी उसी बात को लेकर पृथ्वी दिवस मना रहे हैं. पृथ्वी दिवस भी सठिया गया है लेकिन चुनाव की तरह हमारे वादे और दावे नहीं बदले. (डिस्क्लेमर: यह लेखक के निजी विचार हैं.)
पर्यावरण और इससे जुड़े मुद्दों पर लेखन. गंगा के पर्यावरण पर 'दर दर गंगे' किताब प्रकाशित।
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