लायन किंग का सिम्बा जब अपने पिता की मौत के बाद परिवार को छोड़ कर जंगल के दूसरी पार पहुंच जाता है. तो वहां पर उसके दो दोस्त बनते हैं. तिमोन (दक्षिण अफ्रीकी मंगूस) और पुम्बा (जंगली सुअर). सिम्बा शेर है, लेकिन जब अपने दोस्तों के साथ रहना शुरू करता है, तो उसे जीने के लिए खाने की आदत बदलनी पड़ती है. एक दिन उसके दोस्त उसे एक चट्टान के पास लेकर जाते हैं. और तिमोन उस चट्टान में बने एक छेद में हाथ डालता है. थोड़ी ही देर में उसमें से रंग बिरंगे कीड़े बाहर निकलने लगते हैं. चट्टान से निकले कीड़ों के रंग जब स्क्रीन पर फैलते हैं तो एक आकर्षण पैदा कर देते हैं. पुम्बा उसमें से एक कीड़ा उठा कर सिम्बा को देता है. सिम्बा मुंह बनाता है तो तिमोन उस कीड़े को मुंह में इस तरह डालता है जैसे नूडल्स खा रहा हो. फिर सिम्बा भी कीड़े को इसी तरह से खाने की कोशिश करता है. थोड़ी देर बाद उसे कीड़ों में स्वाद आने लगता है.
जिस तरह ज़रूरत और हालातों की वजह से मांस खाने वाला शेर कीड़े खाने लगता है. हो सकता है आने वाले वक्त में इंसान को भी इस तरफ रुख करना पड़े. वैसे भी जिस तरह दुनिया की आबादी बढ़ रही है और खेती की ज़मीन में लगातार कमी आ रही है. ऐसे में कोई हैरानी नहीं है कि हम कीड़ों की खेती को एक विकल्प की तरह देखें.
खेत के लिए ज़मीन चाहिए
पिछले 40 सालों में दुनिया की तकरीबन एक तिहाई खेती की ज़मीन खत्म हो गई है. जिस तरह से हम ने एनिमल फार्मिंग यानि मांस उत्पादन को एक बड़ा उद्योग बना लिया है. उसका पर्यावरण पर व्यापक असर लगातार नज़र आ रहा है. इन हालातों को देखते हुए विशेषज्ञों का मानना है कि भविष्य में कीट युक्त भोजन ही एक बेहतर विकल्प हो सकता है. मसलन जापान में अंडों के साथ एक विशेष तरह के टिड्डे को भोजन का एक बेहतर विकल्प माना जाता है.
भारत के ही उत्तर पूर्वी इलाकों में टिड्डे, तिलचट्टे खाना सामान्य है. इसी तरह छत्तीसगढ़ के कुछ इलाकों में लाल चींटी की चटनी को बहुत स्वाद लेकर खाया जाता है.
कीड़े खाने का चलन पुराना
इंसान प्राचीनकाल से ही कीड़े खाता रहा है. आज भी ये सिलसिला जारी है. दुनिया भर में कई संस्कृतियां हैं, खासकर आदिवासी इलाकों में जिनके खाने में कीड़ों का इस्तेमाल होता है. मसलन कांगो में जैतून के तेल में तली हुई इल्लियां खाई जाती हैं. ये खाने में सस्ती और प्रोटीन से भरपूर होती है.
हालांकि अब तक कीड़ों को खाने का रिवाज़ ज्यादातर उन इलाकों में देखा गया है, जहां अविकसित देश हैं या जहां गरीबी ज्यादा है. जापान और चीन वियतनाम अपवाद हैं. यूरोप और उत्तरी अमेरिका के इलाकों में कीड़ों को इस तरह खाना चलन में नहीं है. लेकिन जब से पर्यावरणविदों ने कीट भोजन को लेकर उत्साह दिखाया है तब से इसकी लोकप्रियता में इज़ाफा देखने को मिला है.
एनिमल फार्मिंग बनाम कीड़ों की खेती
हम इंसान जो हर बात को नफे नुकसान से मापते हैं. उनके ज़हन में कीटों की खेती को लेकर सबसे पहला सवाल ये पैदा होगा कि इसका लाभ क्या है ? मतलब इसमें ऐसा क्या खास है जो पशुपालन में नहीं है. और क्यों कोई पशुपालन के जमे जमाए व्यवसाय को छोड़ कर कीटों की खेती की तरफ रुख करे ?
अगर हम पशुपालन युक्त खेती को देखें तो उसकी तुलना में कीड़ों की खेती में ज़मीन भी कम लगती है और पानी भी कम इस्तेमाल होता है. इससे भी ज़रूरी बात इस तरह की खेती में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से भी निजात मिल सकती है. कीटों को अपनी परवरिश और विकास के लिए ज्यादा खाने की ज़रूरत नहीं पड़ती है और ये आमतौर पर प्राकृतिक तौर पर ही खुद को विकसित कर लेते हैं. खास बात ये है कि इन्हें जानवरों और मछलियों के खाने के रुप में भी इस्तेमाल किया जा सकता है.
इंडोनेशिया में हाल ही में ‘बाइटबैक’ नाम से एक स्टार्टअप शुरू हुआ जो कीड़ों से जुड़े पौष्टिक आहार के उपयोग को बढ़ावा देने पर काम कर रहा है. इसके पीछे एक वजह ये भी है कि तारपीन के तेल पाल्म ऑइल का इस्तेमाल कम हो सके. दरअसल दक्षिण एशियाई देशों में इस तेल को तैयार करने के तरीके को पर्यावरण के लिए अच्छा नहीं माना जाता है. इसी वजह से काफी समय से इसका विरोध हो रहा है. बाइटबैक इसी के चलते कीड़ों वाले भोजन को एक विकल्प के तौर पर देख रहा है जो पर्यावरण के लिए भी मुफीद हो और प्रोटीन से भरपूर भी हो.
विशेषज्ञों का मानना है कि 2075 तक दुनियाभर में मांस की मांग में 75 फीसद तक इज़ाफा हो सकता है. और इतनी बड़ी मात्रा में उत्पादन के लिए ज़रूरी कृषि भूमि और पशु का उत्पादन करने के लिए हमें एक और धरती की ज़रूरत पड़ेगी.
क्या है एंटोमौफेजी
एंटोमौफैजी एक ग्रीक शब्द है जिसमें ‘एंटोमोन’ यानि कीड़े और ‘फेजी’ मतलब खाना होता है. इंसानों में कीड़ों से जुड़े खाने की प्रक्रिया को एंटोमौफेजी कहा जाता है. वैसे बैक्टीरिया और फंगस खाना तो हमारे चलन में ही, दही और कई फरमेंटेड खाद्य पदार्थ बैक्टीरिया युक्त ही होते हैं. वहीं मशरूम फंगस का एक बड़ा उदाहरण है. वैज्ञानिकों के मुताबिक इंसानों में कीड़ों को खाने की प्रक्रिया को एंथ्रोपो-एंटोमौफेजी कहते हैं. इस तरह के चलन में कीड़ों के अंडे, लार्वा, प्यूपा और वयस्क कीड़ों को खाया जाता है. ये चलन काफी प्राचीन है, माना जाता है कि कीड़ों को खाने की प्रक्रिया 3000 साल पुरानी है. और दुनिया के तमाम इलाकों में कीड़ों को खाने का रिवाज रहा है. अमेरिका की खाद्य एवं कृषि संस्थान ने करीब 1900 खाने योग्य कीटों की प्रजाति को पंजीकृत किया है.
हालांकि वर्तमान में कीडों को खाना अच्छी नज़र से नहीं देखा जाता है. लेकिन धीरे-धीरे ये लोगों के बीच अपनी जगह बना रहा है. कीटों से बना भोजन भविष्य में हमारी खाद्य सुरक्षा में बेहद अहम रोल निभा सकता है. हालांकि अभी इस क्षेत्र में बहुत विकास होना बाकी है. साथ ही इसका चलन में आना भी एक लंबी प्रक्रिया है. इंसान भले ही इसे खाने के लिए तैयार होने में वक्त लगाए लेकिन इसकी फार्मिंग होना बेहद ज़रूरी है. क्योंकि जिस तरह से हमने प्रदूषण और रसायन का इस्तेमाल कर-कर के ज़मीन के अंदर और बाहर से कीड़ों को गायब कर दिया है. ऐसें शायद कीड़ों की खेती से ज़मीन फिर से स्वस्थ बन जाए. वैसे भी कीड़ों की खेती से नुकसान किसी तरह का नहीं है.
(ये लेखक के निजी विचार है.)
पर्यावरण और इससे जुड़े मुद्दों पर लेखन. गंगा के पर्यावरण पर 'दर दर गंगे' किताब प्रकाशित।
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