मैडमैक्स फ्यूरी फिल्म में एक कथित भगवान है. उसने तमाम जनता को अपना गुलाम बना लिया है क्योंकि पानी पर उसका कब्जा है. कथित भगवान तक किसी की पहुंच नहीं है. वो एक ऊंची गुफा में रहता है. जनता बस नीचे से उसे देख सकती है. वक्त –वक्त पर जनता को थोड़ा सा पानी मिलता है, जिसके एवज में उन्हें काम करना पड़ता है. भगवान जानता है कि पानी जिसका है, राज उसका है. भारत में सत्ता पर बैठे लोग नदियों को नियंत्रित करने में लगे हुए हैं, वे जनता को संदेश पहुंचा रहे हैं कि नदियां मिलती नहीं मिलाई जाती हैं. जैसे राजनीति में गठजोड़ करके सत्ता चलाई जाती है, सत्ता पर बैठे लोगों का मानना है कि नदियो का गठजोड करके विकास की नहर बहाई जा सकती है.
इस तरह 22 मार्च को विश्व जल दिवस के दिन मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश के मुख्यंमंत्रियो ने केन-बेतवा लिक परियोजना को लागू करने के लिए एक समझौते ज्ञापन पर हस्ताक्षर कर दिए. ये योजना इसलिए भी अहम हो गई है क्योंकि इसके बाद उन 30 नदियों के गठजोड़ के रास्ते खुल जाएंगे जो प्रस्तावित है. इनमें से 15 हिमालयी भाग से हैं और 16 प्रायद्वीपीय भाग से आती है. केन-बेतवा परियोजना में कुल 7 बांध बनने वाले हैं और 1 बांध से 10 हज़ार हेक्टेयर ज़मीन डूब क्षेत्र में आएगी. इसक बाद पन्ना टाइगर रिज़र्व, केन घड़ियाल अभ्यारण्य का खत्म होना तय है.
जब बात नहीं बन सकी थी
19 अप्रैल 2011 की बात है, तात्कालीन वन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने लाख कोशिश के बाद भी केन-बेतवा लिंक परियोजना को अनापत्ति प्रमाण पत्र देने से इंकार कर दिया था. जबकि इसके डीपीआर पर ही करीब 22 करोड़ रुपए खर्च किए जा चुके थे. इससे पहले 2005 में ही इस परियोजना को आकार देने के लिए म.प्र और उ.प्र के साथ केंद्र सरकार की रजामंदी दे दी गई थी. दोनों राज्यों की मुख्यमंत्रियों ने इस रिपोर्ट पर हस्ताक्षर कर दिया था. लेकिन इस योजना के बाद पन्ना टाइगर नेशनल पार्क पर क्या प्रभाव पड़ेगा, उस खतरे को जयराम रमेश भांप चुके थे. इसलिए तमाम रजामंदियों के बावजूद ये योजना आकार नहीं ले सकी.
इतने सालों तक पानी की हिस्सा बांटी को लेकर दोनों राज्य में ठनी भी हुई थी. लेकिन केंद्र सरकार ने दोनों राज्यों को मना लिया और समझा दिया कि देश में विकास कितना ज़रूरी है. और विकास के लिए नदियों का ठहराव और नहरों का बहाव ज़रूरी है. इस तरह दोनों राज्यों ने भी मान लिया कि विकास ज़रूरी है. और नदियों के गठजोड़ की स्क्रिप्ट फाइनल कर दी गई . हालांकि इस स्क्रिप्ट के पहले भी कई ड्राफ्ट लिखे गए. पर्यावरण को लेकर होने वाले नुकसान की जानकारी सामने आई, लेकिन विकास होना था और नदियों को नियंत्रित करने का फैसला होना था तो हो गया.
वैसे केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय नदी विकास अभिकरण, नेशनल काउंसिल फॉर एप्लायड इकोनॉमिक रिसर्च को नदी के जोड़ से होने वाले सामाजिक आर्थिक और कृषि पर पड़ने वाले प्रभाव के सर्वेक्षण की ज़िम्मेदारी सौंपी थी. उन्होंने इसके बारे में अध्ययन भी किया और एक विस्तृत रिपोर्ट भी भेजी. इस अध्ययन से जो तथ्य निकल कर सामने आए थे, उसके मुताबिक ये भविष्य में होने वाली जल त्रासदी की शुरूआत हो सकती है. यही नहीं बुंदेलखंड के उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश के आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र वाले 19 गांवों का विस्थापन भी होगा जिससे कितनी जनसंख्या प्रभावित होगी इसका आंकड़ा तो किसी एजेंसी के पास मौजूद ही नहीं है.
नदी पर बांध और नहर
इस परियोजना में जो बांध बनाए जाने हैं, उसमें ग्रेटर गगंउ बांध काफी अहम है. 212 किलोमीटर लंबी कंकरीट युक्त नहर के माध्यम से इस लिंक के ज़रिये केन नदी के पानी को झांसी जिले के बरुआसागर अपस्ट्रीम में मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ जिले में बेतवा नदी पर प्रस्तावित एक दूसरे बांध में डाला जाएगा. परियोजना क्षेत्र में संरक्षित वन क्षेत्र पन्ना टाइगर रिज़र्व पार्क का दक्षिणी हिस्सा भी इसी लिंक की सीमा में आता है. इस अभ्यारण्य के अंदर 73.40 मीटर ऊंचा औऱ 1468 मीटर लंबा बांध बनाया जाएगा. इस बांध से 231.45 किलोमीटर लंबी एक नहर निकाली जाएगी, जो परीछा से पहले बेतवा में मिलाई जाएगी. इससे 1020 क्यूबिक मिलियन पानी बेतवा को दिया जाएगा. इन नहरों से पन्ना राष्ट्रीय उद्यान की कितनी जमीन दलदली होगी, इसका सिर्फ अनुमान ही व्यक्त किया जा सकता है। यहां डूब में आने वाले गांवो में से चार गांव तो पहले ही खाली करवाए जा चुके हैं. इसके अलावा 77 मीटर लंबा और 2 किमी चौड़ा दौधन बांध और 230 किमी लंबी नहर के निर्माण का कार्य शामिल है.
पर इन तमाम आंकड़ों से कुछ विशेष प्र्भाव पड़ना नहीं है क्योंकि सत्ताधीशों ने आम जनता को ये समझा दिया है कि दो नदियों को एक नहर के माध्यम से इसलिए जोड़ा जा रहा है ताकि ज्यादा पानी वाली नदी कम पानी वाली नदी को पानी दे सके, अब ये बात और है कि केन-बेतवा के संदर्भ में इसका मतलब है, एक विशाल बांध और भी कई सारे बांध और ढेरों नहरें
केन और बेतवा का व्यवहार
जैव विविधता और फ्लोरा फॉना के लिहाज से समझें तो प्राकृतिक तौर पर दोनों ही नदियों का व्यवहार करीब-करीब एक जैसा ही है. जब गर्मी आती है तो दोनों ही नदियों में पानी कम हो जाता है और बरसात में दोनों ही नदियां एक जैसी उफान पर होती हैं. बस एक फर्क है, क्योकि केन का अधिकांश हिस्सा पन्ना राष्ट्रीय उद्यान से होकर गुजरता है. इसलिए ये लोगों के संपर्क में आने से बच जाती है, इसलिए इसका पानी दूसरी नदियों की तुलना में साफ है. वहीं अगर बेतवा को देखें तो शहरों से गुजरने की वजह से इस पर प्रदूषण का अच्छा खासा प्रभाव नज़र आता है.
सरकार की नज़र साफ पानी पर
सरकार जंगल से गुजरने वाले साफ पानी पर नज़र गाड़े हुए है. सरकार के हिसाब से वैसे भी जो पानी इंसानों के काम नहीं आ रहा है वो व्यर्थ जा रहा है. इसलिए उसे नहरों और बांधों के माध्यम से इंसानों के काम में लाया जाएगा. यही वजह है कि सत्ता पर बैठे लोगों ने ये सोचने में एक मिनिट भी नहीं गंवाया कि निचले हिस्से में जानवरों को पानी कैसे मिलेगा. वैसे भी जानवर या तो खाने के काम आते हैं या काम करवाने के काम लाए जाते हैं.
हालांकि सरकारी कागज कहते हैं कि नदियों को जोड़ने से राष्ट्रीय उद्यान का बाहरी हिस्सा ही डूब में आएगा, इसलिए जानवरों पर भी कोई असर नहीं पड़ेगा. पर्यावरणजीवी ( आंदोलनजीवी की तर्ज पर) महज़ शोर मचा रहे हैं. क्योंकि नीति निर्धारक के दस्तावेज मानते हैं कि नहरों और बांधो के निर्माण से उसके आसपास की ज़मीन दलदली नहीं होती है.
बांध, बजट और बाघ
पर्यावरणजीवी कह रहे हैं कि इसके बाद यहां बाघों की संख्या पर भी बुरा असर पड़ेगा. ये वो बाघ हैं जो अवैध शिकार के चलते यहां पहले ही न के बराबर बचे हैं. वहीं इसके उलट सरकार यहां बाघों को बसाने की शुरूआत कर चुकी है. इसमें जो खर्च आएगा उसको परियोजना बजट जोड़ा नहीं गया है. इसके बाद भी परियोजना का बजट है कि ‘वॉल मी’ फिल्म में धरती पर इकट्ठे हुए कचरे की तरह बढ़ता जा रहा है. शुरुआत में 1994-95 के मूल्य स्तर पर इसकी लागत 1,998 करोड़ रुपए रखी गई थी. वर्ष 2015 में यह करीब 10,000 करोड़ रुपए पहुंच चुकी थी और महज पांच साल बाद अनुमान लगाया जा रहा है कि इस परियोजना की लागत 28,000 करोड़ रूपए होगी.
परियोजना के दूसरे चरण में मध्यप्रदेश चार बांध बनाकर रायसेन और विदिशा जिलों में नहरे बिछाकर सिंचाई के इंतज़ाम करेगा. लेकिन मज़ेदार बात ये है कि पूरी प्रक्रिया और दस्तावेजीकरण में ये कहीं नहीं बताया गया कि नदियों में पास इतना पानी आएगा कैसे, और क्या नदी के पास इतना पानी है भी ?
खैर सत्ता ने सोच लिया है कि नदी का संगम कराकर रहेगी तो वो होकर रहेगा. आने वाले दिनों में हो सकता है कि देवप्रयाग, विष्णुप्रयाग, तीर्थराज यानि प्रयागराज जैसे तीर्थ की जगह मानवनिर्मित प्रयाग ले लें. तब तक पर्यावरणजीवी की बातों पर ध्यान ना दें.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)
पर्यावरण और इससे जुड़े मुद्दों पर लेखन. गंगा के पर्यावरण पर 'दर दर गंगे' किताब प्रकाशित।
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