1984 में गौतम घोष की फिल्म ‘पार’ एक बंगाली कहानी ‘पारी’ को आधार बनाकर बनाई गई. फिल्म की कहानी मज़दूरों के शोषण और ज़मीदारी को उकेरती है. फिल्म बिहार के एक सुदूर गांव से शुरू होती है, जहां पर एक गांव के अध्यापक को ज़मींदार मरवा देता है क्योकि वो अध्यापक मज़दूरों के हक की बात करता है. आगे चलकर गांव का एक मज़दूर नोरंगिया बगावत करता है और ज़मींदार के भाई को मार डालता है. पुलिस से बचने के लिए उसे अपनी पत्नी रमा के साथ गांव छोड़कर कोलकाता (उस वक्त का कलकत्ता) जाना पड़ता है. जहां वो जीने के लिए तमाम तरह के संघर्ष करते हैं लेकिन किसी भी तरह से उनकी जिंदगी में कोई सुधार नहीं आता है. एक दिन वो घर लौटने का फैसला लेते हैं. लेकिन घर लौटने के लिए भी पैसे चाहिए. उन्हें एक काम मिलता है. सुअरों के एक झुंड को नदी के एक किनारे से दूसरे पार ले जाना है. नौरंगिया काम के लिए हामी भर देता है. लेकिन उसे इस काम में अपनी पत्नी का साथ चाहिए जो इस काम को करने के लिए राजी नहीं होती है क्योंकि वो गर्भवती है. उसे डर है कि इतना तैरने के बाद कहीं उसका बच्चा ना मर जाए. लेकिन नौरंगिया उसे जबर्दस्ती लेकर जाता है. इस तरह काफी संघर्ष के बाद दोनों उस पार पहुंचते हैं. नौरगिया अपनी बीवी के पेट पर कान रखकर बच्चे की आहट को सुनता है.
मज़दूर हमेशा अपनी जिंदगी में बस उस पार जाने की जद्दोज़हद में ही रहता है. कोलकाता का मजदूरों से पुराना नाता रहा है. अंग्रेजों के ज़माने से कोलकाता में उद्योंगों के विकास और पड़ोसी राज्य बिहार में गरीबी की वजह से यहां पर मजदूरों का जमावड़ा रहा. मजदूरों की वजह से ही यहां वामपंथ ने जड़ें जमाई. 34 साल तक राज करने के बाद बस इतना ही किया कि कोलकाता में खाना, आवागमन और बुनियादी साधन मंहगे नहीं हुए. लेकिन उसके साथ ही वहां रहने वाले मज़दूरों का जीवन स्तर भी नहीं बढ़ा. उसके बाद तृणमूल कांग्रेस के साथ दीदी ने पदार्पण किया. थोड़ा बहुत विकास तो दिखा. मगर मज़दूरों के जीवन स्तर पर कितना फर्क पड़ा इसकी बानगी आपको कोलकाता से डायमंड हार्बर के रास्ते पर देखने को मिल सकती है.
नदी को सलाम करता चिमनी का धुआं
कोलकाता से काकद्वीप के रास्ते पर जाते हुए, गंगा के किनारे सैकड़ों धुआं उगलती चिमनियां दिखती हैं. एक सीध में बनी हुई ये चिमनियां और इनसे उठता धुआं आसमान में विकास की तस्वीर बनाता है. दरअसल ये गंगा की मिट्टी या सिल्ट से बनने वाले ईंट के भट्टे हैं. फाल्ता रोड पर आगे बढ़ते हुए ये चिमनियां बढ़ती जाती हैं.
इन्हीं भट्टियों में से एक में गीली मिट्टी के ढेर के पास खेलता हुआ वाहिद मिल गया. वाहिद कक्षा 2 में पढ़ता है. इन दिनों स्कूल खुल नहीं रहे हैं तो यहीं रहता है. उसकी मां भट्टी में मज़दूरी करती है. और पिता भी इसी भट्टी में काम करते हैं. पहले वाहिद के पिता एक होटल में काम करते थे लेकिन कोरोना के चलते होटल बंद हुआ और वाहिद के पिता की मज़दूरी शुरू हो गई. वाहिद यहीं पैदा हुआ है. उसके माता-पिता पिछले 10 सालों से मज़दूरी कर रहे हैं. वाहिद के दादा झारखंड में रहते है. उसके पिता काम-धंधे की तलाश में यहां आए. उसका एक साथी इसी ईंट भट्टे में काम करता है, उसी ने वाहिद के पिता को यहां पर आने की सलाह दी थी. तब से वाहिद का परिवार यहीं पर रह रहा है. दस सालों में वाहिद का परिवार तो बढ़ा लेकिन मेहनत की कीमत?
ईंट भट्टी पर कमाई का गणित
ईंट के भट्टों में काम करने वाले की दिहाड़ी का गणित भी बड़ा ही अनूठा है. कच्ची ईंट को ढोकर भट्टी तक लाने के एवज में दिन भर में मज़दूर औसत 500-600 रुपए कमाता है. वहीं गीली मिट्टी से ईंट को ढालने वाले मज़दूर को दिन भर का 700-900 रुपए मिलता है. ईंट भट्टी में एक जगह पर गीली मिट्टी रखी जाती है, जिससे ईंट ढालने वाला सांचे से ईंटों को ढालता है. इन गीली ईंटों को अपने सिर पर रखकर मज़दूर करीब 200-300 मीटर दौड़ कर भट्टी पहुंचता है. वहां पर वो ईंट रखकर फिर तेजी से वो ईंट उठाने के लिए भागते हैं. इस काम को करने वालों की संख्या में महिला मज़दूरों की संख्या ज्यादा होती है.
अपनी ताकत और क्षमता के हिसाब से महिलाएं या पुरुष 5-10 ईंट उठाकर लाते हैं. मज़दूरों को हर चक्कर का पैसा मिलता है. पैसा देने का गणित भी अनूठा है. मज़दूर जब गीली ईंट लेकर आता है तो उसके बदले में उसे एक टोकन दिया जाता है. इस टोकन को कौड़ी कहा जाता है. (संभवत: पहले मज़दूरों को कौड़ी दी जाती रही हो तो उनकी जगह टोकन ने ले ली लेकिन नाम वही रहा). ये टोकन अलग-अलग रंग के होते हैं. ईंटों की संख्या के आधार पर टोकन दिया जाता है. मसलन गुलाबी रंग का टोकन 10 ईंटों के लिए होता है. तो 8 ईंट वाले को नीला टोकन दिया जाता है. इसी तरह जो 5 ईंट उठाकर लाता है उसे एक बोल्ट दिया जाता है. और अगले चक्कर में जब वो दोबारा 5 ईंट लाता है तो उससे बोल्ट वापस ले लिया जाता है और उसे गुलाबी टोकन दे दिया जाता है. कुछ पुरुष मज़दूर हाथगाड़ी में ईंट लाते हैं, इसके एवज मे उन्हें लाल टोकन मिलता है. हाथ गाड़ी में 50 ईंट होती है.
खास बात ये है कि कई मज़दूर के पास इतना वक्त भी नहीं होता है कि वो टोकन लेने के लिए रुके, इसलिए वो टोकन देने वाला ही अपनी कुर्सी के पास मज़दूर की एक जगह बनाकर वहां टोकन फेंकता जाता है. इस पूरे काम में टोकन देने वाले से लेकर मज़दूर तक सभी के बीच एक विश्वास काम करता है. यहां गौर करने वाली बात ये है कि 10 ईंट की कीमत जहां मज़दूर 2.50 रुपए बताते हैं वहीं मैनेजर 5 रूपए बताता है. ये तो मज़दूरों के शोषण की बात हुई, आइए अब ज़रा गंगा की बात कर ली जाए.
गंगा की मिट्टी और ईंट का विज्ञान
इन ईंट के भट्टों का अपना विज्ञान है. दरअसल फरक्का बैराज बनने के बाद गंगा में सिल्ट का जमाव लगातार बढ़ता गया है. यही वजह है कि यहां पर गंगा विस्तार ले लेती है, और कई धाराओं में बदलती जाती है. कोलकाता में दुर्गा प्रतिमा से लेकर ईंट तक सभी कुछ इसी चिकनी मिट्टी से बनता है. कोलकाता से लॉट 8 की तरफ जाने पर चारों तरफ जो भी गांव पड़ते हैं, वहां पर गंगा के पानी से हर गांव के लिए कई ‘खाल’ (नहर) निकाली गई है. ये खाल दरअसल गंगा में आने वाले ज्वार की वजह से बढ़ने वाले पानी को संतुलित करने के लिए निकाली गई हैं. जब ज्वार आता है तो गंगा के पानी के साथ वो गाद भी ले आता है. ईंट भट्टे बनाने वालों ने ‘खाल’ (नहर) के पास एक गड्ढा बना रखा है, इसे स्थानीय भाषा में ‘पोलीखाद’ कहते हैं जहां पोली यानि मिट्टी और खाद यानि गड्ढा है.
पोलीखाद का संपर्क खाल से होता है. जब पानी बढ़ता है तो संपर्क को खोल कर नहर का पानी गड्ढे में भर लिया जाता है. इस तरह जब तक नहर ओवर फ्लो होती रहती है उसका पानी पोलीखाद में आता रहता है. पानी भरने की इस पूरी प्रक्रिया में 4-6 महीने लगते हैं. एक बार पानी भर जाने के बाद खाल से पानी आने वाले रास्ते को बंद कर दिया जाता है और कुछ दिन तक पानी को पोलीखाद में रहने दिया जाता है. उसके बाद पानी को मशीन के ज़रिये वापस खाल में डाल दिया जाता है. कई बार खाल में पानी उतरने पर खुद ब खुद पोलीखाद से पानी उसमें चला जाता है. पानी निकल जाने के बाद उसमें गाद रह जाती है. इस गाद को सूखने के लिए छोड़ दिया जाता है. जब गाद पूरी तरह सूख जाती है, तो भट्टों की ही ज़मीन पर उसका अलग से ढेर लगा दिया जाता है. इस तरह पोलीखाद से निकली गीली मिट्टी में सूखाई गई मिट्टी मिला कर ईंट तैयार की जाती है. पोलीखाद को पूरा भरने में करीब दो साल लग जाते हैं. लेकिन ये प्रक्रिया लगातार चलती रहती है, इसलिए दो साल सुनने में जितना ज्यादा लगता है, उतना ही यहां की व्यस्तता देखकर लगता है कि दो साल कुछ नही है.
देखा जाए तो वामपंथ काल से लेकर दीदी काल तक बंगाल की गंगा से लेकर मज़दूरों तक ने जितना विकास देखा है, उसके हिसाब से देखा जाए तो इतने साल कुछ भी नहीं है. तमाम सरकारों ने गंगा में उसी तरह गाद को जमने दिया, जिस तरह मजदूरों के ज़हन में शोषण जम गया है. और शोषण की भट्टी में गंगा की मिट्टी लगातार जल रही है. (डिस्क्लेमर: यह लेखक के निजी विचार हैं.)
पर्यावरण और इससे जुड़े मुद्दों पर लेखन. गंगा के पर्यावरण पर 'दर दर गंगे' किताब प्रकाशित।
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