संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक जो हम कर रहे हैं उसमें अगर बदलाव नहीं किया तो समुद्री जीवन को ऐसा नुकसान होगा जिसकी भरपाई मुश्किल होगी.
Source: News18Hindi Last updated on: November 30, 2020, 7:14 pm IST
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2050 तक समुद्र में मछलियों से ज्यादा प्लास्टिक होगा. (प्रतीकात्मक तस्वीर: Pixabay)
अमेरिका में एक सबमरीन किसी अंजान समुद्री हलचल की वजह से पानी की गहराइयों में खो जाता है, उसे ढूंढने के लिए फिर दूसरे खोजदलों की सहायता ली जाती है. और इस खोज में एक नई खोज होती है. एक ऐसी दुनिया जो है तो हमारे साथ ही लेकिन हम उस तक कभी पहुंच ही नहीं पाते हैं. उस दुनिया के लोग जिसे आप एलियन भी कह सकते हैं वो हमारी दुनिया के एक किरदार को बताते हैं कि किस तरह धरती पर आई सुनामी या दूसरे समुद्री तूफान उनकी ही देन है. जब धरती का बाशिंदा ऐसा करने के पीछे की वजह जानने की कोशिश करता है, तो दूसरी दुनिया के लोग प्रथम विश्व युद्ध से लेकर उस दौर (1989) तक की मानवीय गलतियों को दिखाते हैं. जो ये साबित करती है कि इंसानों को धऱती औऱ यहां मौजूद किसी भी चीज़ की कोई कद्र नहीं है. वो बस अपने भले के लिए धरती पर मौजूद हर एक कण का लाभ लेना चाहता है. कुल मिलाकर दूसरी दुनिया के लोग ये बताते हैं कि इंसान यहां रहने के योग्य ही नहीं हैं.
1989 में आई एबिस फिल्म की इस कहानी का आज हम विस्तृत रूप देख रहे हैं. मज़ेदार बात ये है कि एबिस का हिंदी में अर्थ रसातल होता है. जिसे हम अक्सर नकारात्मक रूप में इस्तेमाल करते हैं. दरअसल हम इंसान जिस किसी बात की थाह नहीं ले पाते हैं उसे नकारात्मक बना देते हैं. समुद्र भी ऐसा ही ही जिसकी थाह लेना आज तक हमारे लिए संभव नहीं हो पाया है. हम अभी भी कोशिश मे ही लगे हुए हैं.
हमारी पौराणिक कथाएं भी जिस समुद्र मंथन की बात करती हैं वो दरअसल यही बताने की कोशिश करती हैं कि अमृत (शायद मीठा पानी) और विष ( शायद अन्य रासायनिक गंदगी) सब कुछ समुद्र की ही देन है. आप अपने इर्द गिर्द जो ऊंचे-ऊंचे पहाड़ देखते हैं. वो सभी समुद्र की गहराईयों से ही निकले हैं. अब आप चाहें तो इसे समुद्र मंथन की कथा से समझे या टेक्टोनिक मूवमेंट से समझें. लेकिन हकीकत ये है कि सब कुछ समुद्र ही था.
यहां तक कि जीवन की उत्पत्ति का प्रथम स्रोत भी समुद्र ही माना जाता हैं, यही वजह है कि मां के गर्भ में पल रहा बच्चा जिस तरल पदार्थ में तैर रहा होता है वो समुद्र के पानी के समान ही रासायनिक विविधता लिए हुए होता है.
लेकिन उसके बावजूद हम लगातार बस समुद्र की गहराई नापने में लगे हुए हैं, हम बस उस रसातल तक पहुंचना चाहते हैं. और इस कोशिश में हम पौराणिक कथाओं से लेकर अब तक समुद्र का लगातार मंथन किए जा रहे हैं. उससे लिए जा रहे हैं.
समुद्र का आभारी होना ज़रूरी
जबकि हम इंसानों को समुद्र का आभार मानना चाहिए. ये समुद्री जीवन ही इस धऱती की 70 फीसद ऑक्सीजन पैदा करता है. विश्व की 90 फीसद माल ढुलाई जहाजों के ज़रिये समुद्री मार्ग से ही होती है. समुद्री पर्यटन औऱ इनसे निकली दवाइयों की दम पर अकेले अमेरिका हर साल 9.29 लाख करोड़ रूपए की कमाई करता है. यहां तक कि जिस कोरोना ने पूरी दुनिया में उथल पुथल मचा कर रखी दी है. उस वायरस के परीक्षण के लिए जिस एंजाइम का इस्तेमाल किया गया वो सागर में पाए जाने वाले बैक्टीरिया से लिया गया था.
समुद्र एक विराट एयर कंडीशनर
समुद्र धऱती के लिए एक विशाल एयरकंडीशनर की तरह काम करता है. ये कितना विराट है इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि बीते 100 सालों में इस धऱती पर कार्बन उत्सर्जन से जो भी गर्मी फैली, उसका 93 फीसद समन्दर ने अपने अंदर समेट लिया. ब्रिटेन की यार्क यूनिवर्सिटी के मैरीन बायोलॉजिस्ट कैलम रॉबटर्स कहते हैं कि अगर समुद्र यह गर्मी नहीं सोखता तो पूरी दुनिया, धऱती की सबसे गर्म जगह कैलिफोर्निया की डैथ वैली के समान हो चुकी होती.
इसके बदले में हम क्या दे रहे हैं
माहौल में कार्बन डाय ऑक्साइड के बढ़ते स्तर की वजह से समुद्र लगातार तेजाबी होते जा रहे हैं, जिससे पानी गर्म हो रहा है और उसका सीधा असर समुद्री जीवन पर पड़ रहा है. दुनियाभर के सागर में हर साल 80 लाख टन कचरा डाला जाता है. इसके बाद खेती और उद्योगों का जहर अलग. कोरोना काल के बाद इसमें एक कड़ी और जुड़ गई बायोमेडिकल वेस्ट का अंबार.
हम ये काम जिस गति के साथ कर रहे हैं मान कर चलिए 2050 तक समुद्र में मछलियों से ज्यादा प्लास्टिक होगा.
यही नहीं हम साथ ही साथ समुद्री जीवन को अपने स्वाद के लिए भी लगातार छीन रहे हैं. मछलियों को खाने और बेजा मारने की हमारी गति में कोई लगाम ही नहीं लग रही है. समुद्र में फैलाए जा रहे प्रदूषण की आड़ में हम लगातार समुद्र के जीवन, मछलियों और दूसरे जीव जंतुओं को निकाले जा रहे हैं औऱ इसके बारे में बात भी नहीं की जा रही है.
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक जो हम कर रहे हैं उसमें अगर बदलाव नहीं किया तो समुद्री जीवन को ऐसा नुकसान होगा जिसकी भरपाई मुश्किल होगी. अंटार्कटिका की नज़दीकी समुद्र दुनिया सबसे दुर्लभ, अहम और नाज़ुक इको सिस्टम का घर हैं. यहीं से बहने वाला ठंडा पानी दुनियाभर के तटीय इलाकों में रहने वाली मछलियों के जीवन का आधार होता है. लेकिन लगातार बढ़ते तापमान ने इस सिस्टम को खतरे में डाल दिया है. और इस धऱती पर या प्रकृति में सभी कुछ एक दूसरे से इस कदर जुड़ा हुआ है कि एक तार हिला की सब कुछ डांवाडोल हो जाता है.
और हम इंसानो की करनी किस कदर नुकसान पहुंचा रही है इसे न्यूयॉर्क के वैज्ञानिकों के अध्ययन से समझा जा सकता है, जो बताता है कि बीते 50 सालों में अंटार्कटिका में पाए जाने वाले पेंगुइन का मुख्य भोजन केकड़ों के आधे रहवास खत्म हो चुके हैं. धरती पर मौजूद आहार श्रंखला में इन प्राणियों की अहम भूमिका है.
विशेषज्ञों का मानना है कि अगर समुद्र को बचाना है तो उसमें डाले जा रहे कचरे को कम तो करना ही होगा साथ ही हमें कम से कम करीब 30 फीसद समुद्र को मछलियों के शिकार औऱ दूसरे शोषण से दूर रखना होगा. लेकिन बहुत से देश ऐसे हैं जो समझौते के बावजूद इस शर्त को मानने के लिए तैयार नहीं हो रहे हैं. समुद्रों में सुरक्षित क्षेत्र बनाने के लिए यूरोपियन यूनियन, अर्जेंटीना, चिली और ऑस्ट्रेलिया ने जो प्रस्ताव रखे थे उसे चीन और रूस ने रोक दिया है. भारत में भी अब नीली क्रांति की घोषणा की जा चुकी है.
क्या है नीली क्रांति
किसानों की आय दुगुनी करने के लिए, मछली औऱ समुद्री उत्पादों को पकड़ने के कार्य को प्रोत्साहित करने का सरकार प्रयास ही नीली क्रांति हैं. इसका संबंध मत्स्यपालन उद्योग में तेजी से विकास लाने से है. सरकार ने अपने प्रयासों के एक भाग के रूप में, समुद्री खाद्य उत्पादन और निर्यात बढ़ाने और मत्स्यपालन को प्रोत्साहित करने का प्रायोजन रखा है. इसके लिये सरकार ने एक स्वतंत्र मत्स्यपालन मंत्रालय भी गठित किया है. 2019-20 के बजट में सरकार ने नवगठित मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय के लिए लगभग 3,737 करोड़ रुपये का आवंटन किया है. कुल मिलाकर एक पैकेज प्रोग्राम के ज़रिए मछली और समुद्री उत्पादों में विकास को तेज करना नीली क्रांति कहलाता है.
नीली क्रांति की शुरुआत चीन से हुई थी . यहां प्राचीन काल से मछली पकड़ने का कार्य चला आ रहा है. वज़न के हिसाब से देखें तो दुनियाभर में जितना मत्स्य उत्पादन होता है, उसका दो-तिहाई अकेले चीन करता है. बाज़ार मूल्य के हिसाब से चीन का हिस्सा लगभग आधा है. विश्वभर में वर्तमान में मत्स्य उत्पादन 50 मिलियन टन पहुँच गया है, जो कि वर्ष 1950 में केवल 2 मिलियन टन था. यानि बीते 70 सालों में उत्पादन की गति में 50 गुना वृद्धि हुई. इसमें एशियाई देशों पर नज़र डालें तो ये विश्व भर के मत्स्यपालन में 90 प्रतिशत का योगदान देते हैं जिसमें अकेले चीन चीन का योगदान 70 प्रतिशत से अधिक है.
इस तरह हम समुद्र के दोहन में लगे हुए हैं, औऱ हम लगातार ये भूलने की कोशिश कर रहे हैं कि जिस एबिस या रसातल तक हम पहुंचना चाहते हैं, वहां पर समुद्र की अथाह खामोशी है. और समुद्र की खामोशी का हम फायदा उठा रहे हैं, लेकिन यही खामोशी जब तूफान के रूप में लौटती है तो हमारे पास कहने के लिए कुछ नहीं रह जाता है. वैसे भी किसी शायर ने कहा है.
कह रहा है शोर-ए-दरिया से समुंदर का सुकूत
जिस का जितना ज़र्फ़ है उतना ही वो ख़ामोश है
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi उत्तरदायी नहीं है.)