‘गंगा को गंगा रहने दो, गंगा को अविरल बहने दो’आज से लगगभ तीन दशक पहले इस नारे के साथ कहलगांव की एक महिला ने अपने साथियों के साथ मिलकर गंगा को पानीदारों से मुक्त करवाया था. उस महिला का नाम था फेकिया देवी, गांव का नाम था कहलगांव औऱ बस्ती थी कागजी टोला. और आंदोलन था, ‘गंगा मुक्ति आंदोलन’
शुरू से शुरू करते हैं…
देश आज़ाद हुआ तो साथ में ज़मीदारी भी खत्म हुई, देश की ज़मीने मुक्त हुई. किसानों को लगान यानी टैक्स से मुक्त मिली. हालांकि इसकी शुरुआत आजादी से पहले ही होने लगी थी. गंगा के आस-पास भी इसका असर देखने को मिला. लेकिन सुल्तानगंज से लेकर पिरपैंती तक के 80 किलोमीटर के क्षेत्र में जो गंगा बहती है. उस पर 1991 से पहले पानीदारी चला करती थी. जैसी ज़मीदारी वैसी पानीदारी. ये ज़मीदारी मुगलकाल से चली आ रही थी. इस 80 किलोमीटर के पानीदार थे. महाशय घोष और मुसर्ऱफ हुसैन प्रमाणिक. सुल्तानगंज से बरारी के बीच बहती गंगा पर महाशय घोष टैक्स वसूलते थे और पिरपैंती से लेकर सुल्तानगंज तक की गंगा का हिस्सा मुसर्रफ हुसैन प्रमाणिक के पास जाता था. दिलचस्प बात ये है कि हिस्सा भले ही प्रमाणिक और घोष बाबू के परिवार को जाता था. लेकिन 1930 से गंगा पथ पर मछुआरों से मछली पकड़ने के एवज में जो टैक्स वसूला जा रहा था वो देवी-देवताओं के खाते में जाता दिखाया जा रहा था. दरअसल पानीदारों ने श्री श्री भैरवनाथ जी, श्री श्री ठाकुर वासुदेव राय, श्री शिवजी जैसे तमाम ट्रस्टी बना दिए थे. और पानीदार खुद बस ट्रस्ट के सेवादार थे.
क्या करते थे पानीदार?
ये पानीदार मछुआरों से सालाना टैक्स वसूला करते थे. 1982 से पहले तक ये टैक्स सालाना 1500 रूपए तक था. जो सिर्फ गंगा में नाव उतारने भर का था. उसके बाद हर जाल पर अलग टैक्स देना होता था. जितने जाल उतना टैक्स. बात यहीं पर खत्म नहीं होती है, मछुआरे जो मछली पकड़ते थे उस पर पानीदारों का हिस्सा भी होता था. जितनी ज्यादा मछली उतना ज्यादा टैक्स. और टैक्स नहीं दिया तो नाव ज़ब्त. मछुआरों के साथ मारपीट करना, उनकी महिलाओं को तंग करना. सब कुछ सामान्य था. मछुआरे इसे अपनी नियति मान कर चल रहे थे. देश को आज़ाद हुए भले ही 30 साल से ज्यादा गुज़र चुके थे लेकिन यहां पर शोषण बदस्तूर जारी था.
हालांकि 1961 में भागलपुर के तात्कालीन डिप्टी कलेक्टर ने पानीदारी को खत्म कर मछली बंदोबस्ती की जवाबदेही सरकार पर डाली, मई 1961 में पानीदारों ने इसके खिलाफ उच्च न्यायालय में अपील की और अगस्त 1961 में पानीदारों को स्टे ऑर्डर मिल गया. 1961 में फैसला भी पानीदारों के हक में गया. क्योंकि जलकर के अधिकारी मुगल बादशाह ने दिए थे और जलकर के अधिकार का सवाल ज़मीन के सवाल से अलग था. यूं कहें कि इसके बारे में संविधान लिखने वालों ने भी नहीं सोचा था तो कानून ही नहीं था. यानी शोषण था तो लेकिन समाधान कानून के हाथ में नहीं था. मछुआरों की हालत दयनीय होती जा रही थी. लेकिन अति का अंत होता ज़रूर है. और अगर महिला किसी काम को हाथ में ले ले तो अंजाम तक ज़रूर पहुंचा देती है.
गंगा मुक्ति आंदोलन और फेकिया देवी
कहलगांव के कागज़ी टोले में एलसीडी और कालीघाट के पास करीब पांच सौ परिवार रहा करते थे. जिनका रोज़गार मछली मारना ही था. और मछुआरों की मछली पर दबंगों का अधिकार होता था. लेकिन 1982 में इसी कागज़ी टोले की फेकिया देवी ने इस शोषण को सहन ना करने की ठानी और विरोध करना शुरू कर दिया. शुरू में उनके साथ महज़ पांच महिलाएं थी. दूसरी तरफ जयप्रकाश आंदोलन से निकले संगठनों का कागजी टोले को समर्थन मिला और एकजुटता के साथ ये आंदोलन गंगा मुक्ति आंदोलन बन कर उभरा. इस आंदोलन का एक ही ध्येय था, गंगा को कर मुक्त करना और पूरा आंदोलन अंहिसा के रास्ते तय करना.
फेकिया देवी महिला गुट का प्रमुख चेहरा थी और इस तरह लगातार संघर्ष करके इस आंदोलन की वजह से गंगा टैक्स मुक्त हुई. फेकिया देवी के इस प्रयास की बदौलत कागजी टोले के परिवारों को रोज़गार मिला और सब चीज़े ठीक हो गई.
कागजों में ही ठीक हुए कागजी टोले के हाल
2007 के बाद तस्वीर फिर बदल गई, इस बार दलित मछुआरों को दबाने वाले पानीदार नहीं दंबग थे. यानी अब गंगा पर उसकी मछली पर उसकी ज़मीन पर ठेकेदारों का कब्जा था. 2007 में होली का दिन था, बस्ती के 10 लोग मछली मारने गए और फिर नहीं लौटे, उन्हें मार कर वहीं दियारे में गाड़ दिया गया. वजह ये थी कि वो अपनी नांव को खेते हुए एलसीडी घाट से बरारी तरफ गहरे में पहुंच गए थे. क्योंकि उस तरफ पानी गहरा होने की वजह से मछली ज्यादा थी. लेकिन साथ ही वहां पर दंबगों की ठेकेदारी थी और वहां से निकलने वाली मछली पर पहला हक उनका था.
गाद की बात
फेकिया देवी अब 60 वर्ष से ज्यादा की हो चुकी हैं. इस बार मिली तो बीमार थी. लेकिन जज्बे में कोई कमी नहीं थी. वो एलसीडी घाट के दूसरी तरफ गंगा के बीच एक चट्टान पर बने मंदिर को दिखाती है. ये वो चट्टान है जिसे एक वक्त यहां के लोग एकलव्य पहाड़ घोषित करवाना चाहते थे. लेकिन ये नहीं हो सका. ज्यादा नहीं आज से 10 साल पहले काली या एलसीडी घाटे से नाव में सवार होकर इस पहाड़ तक जाने पर समुद्र का अहसास होता था. पूरे बिहार में गंगा यहीं सबसे ज्यादा गहरी हुआ करती थी. अब आलम ये है कि पहाड़ पर बने मंदिर पर जाने के लिए मल्लाहों को 50 रूपए आने जाने के मिल पाते हैं. जो चट्टान कभी आधी पानी में डूबी रहती थी. अब उसके चारों तरफ रेत के टापू उभर चुके हैं. किसी-किसी जगह तो स्थानीय बच्चे पैदल गंगा को पार कर लेते हैं. मछलियां वैसे ही कम थी. कुछ को कपड़ा जाल ने छीन लिया और कुछ फरक्का की वजह से नहीं रही. अब अगर कुछ है तो बस गाद.
फेकिया देवी मंदिर के पास उभरे टापू की ओर इशारा करके कहती हैं कि बहुत मेहनत की थी गंगा को करमुक्त करने की. सफल भी हुए. लेकिन नदी में पानी ही नहीं होगा तो मछुआरे करेंगे क्या? क्या मतलब रह जाता है हमारे आंदोलन का? बीमार फेकिया निराश होकर कहती हैं कि ‘हमने इतनी लंबी लड़ाई लड़ी ताकि हमारे बच्चे किसी के आगे नहीं झुके लेकिन करने वालों ने ऐसा काम कर दिया कि हम फिर उसी जगह पर आकर खड़े हो गए.’
दरअसल फरक्का बैराज बनने के बाद उत्तर बिहार में गंगा किनारे दियारा इलाके में बाढ़ स्थाई हो गई हैं क्योंकि गंगा में भराव होने की वजह से पानी का फैलाव ज्यादा हो गया. इसी इलाके में रहने वाले किशोर जायसवाल बताते हैं कि पहले तीन दिन के भीतर गंगा की बाढ़ का पानी उतर जाता था. लेकिन अब बरसात के बाद पूरे दियारा और टाल क्षेत्र में पानी जमा रहता है. फरक्का बांध बनने के बाद मुंगेर, नौगछिया, कटिहार, पूर्णिया, सहरसा और खगड़िया जिलों में इसका बुरा असर देखने को मिला.
आज फेकिया देवी जो बगैर किसी से डरे, बगैर किसी की परवाह किए, बगैर ये सोचे की समाज क्या सोचेगा, एक आंदोलन का हिस्सा बनी थी. और जिन्होंने अपनी बस्ती के लोगों को लिए वो काम किया जिसकी वजह से आज भी उन्हें सम्मान से देखा जाता है. वही फेकिया देवी गंगा की तरफ इशारा करती हुई कहती हैं. अब तो सही गंगा मुक्ति आंदोलन की ज़रूरत है. गंगा भी उस औरत की तरह हो गई है जो लगातार बंधनों से मुक्त होते हुए बंधनों में बांधी जाती है. (यह लेखक के निजी विचार हैं.)
पर्यावरण और इससे जुड़े मुद्दों पर लेखन. गंगा के पर्यावरण पर 'दर दर गंगे' किताब प्रकाशित।
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