अंतिम संस्कार की बात इसलिए क्योंकि कोरोना काल में लोगों की मौत होने के बाद दुनियाभर में लाखों लोगों का अंतिम संस्कार पूरे विधि विधान से नहीं हो सका. कोई कितना भी विख्यात हो या अंजान उसकी अंतिम यात्रा अकेले ही निकली. यहां तक कि कोरोना ने लोगों को इस कदर भयभीत कर दिया कि अपने के अंतिम संस्कार में शामिल ना हो पाने का दुख मनाने वाला समाज, करीबियों की अस्थियां तक लेने श्मशान घाट नहीं पहुंचे.
Source: News18Hindi Last updated on: November 22, 2020, 11:26 pm IST
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कोरोना के कारण 24 मार्च से लगे लॉकडाउन के बाद लंबे समय तक लोग घरों में बंद रहे, कोरोना के कारण लगातार मौतें होती रहीं, अभी भी ये सिलसिला चल ही रहा है. (सांकेतिक तस्वीर)
अंतिम संस्कार वो परंपरा है जिसके आगे बड़े से बड़ा तार्किक व्यक्ति भी झुक जाता है. भले ही उस इंसान ने अपने जीवन में कभी भी किसी परंपरा को नहीं माना हो, भले ही वो अंतिम संस्कार के दौरान लकड़ियों को जलाने का विरोध और इलेक्ट्रिक मशीन के ज़रिए अंतिम संस्कार की पैरवी करता रहा हो, उसे भले ही लगता हो कि अंतिम संस्कार के बाद बची अस्थियों को नदियों में प्रवाहित करने की क्या तुक है. इन सभी बातों को मानने वाला शख्स भी अपने किसी के जाने के बाद कहीं ना कहीं एक अनजान दबाव में आ जाता है औऱ अगर कोई बड़ी मजबूरी नहीं हो तो वो अंपने की अंतिम यात्रा में शामिल हो कर सारी परंपराओं का निर्वाह भी करता है.
वाराणसी जिसे अंतिम यात्रा के लिए सबसे मुफीद जगह या यूं कहें की मुक्ति का प्रवेश द्वार माना जाता है. वहां पर तो मुक्ति पाने वालों के लिए बाकायदा एक होटल भी है( वर्तमान में होटल के अस्तित्व को लेकर जानकारी नहीं मिल पाई है) इस होटल का नाम है, ‘मुक्ति भवन’. मिली जानकारी के मुताबिक अब तक इस होटल में करीब 15 हजार के आसपास लोग रहकर मुक्ति पा चुके हैं. बनारस में गिरजाघर चौराहा के पास मौजूद इस होटल को विष्णु बिहारी डालमिया नाम के शख्स ने 1958 में ये होटल बनवाया था.है. 10 से 12 कमरे वाले इस होटल को बनाने का उद्देश्य ऐसे लोगों को ठहराना होता था जिन्हें लगता था कि अब उनका अंतिम समय आ गया है और वो वाराणसी के किनारे ही मरकर मोक्ष पाना चाहते हैं. यहां पर रहने वाले को मरने के लिए 15 दिन का वक्त मिलता था. तब तक होटल में उनका ख्याल रखा जाता था. अगर फिर भी वो जिंदा रह गए तो आगे वो देख लें. इस विषय पर मुक्ति भवन नाम से आदिल हुसैन अभिनीत फिल्म भी बन चुकी है.
श्मशान घाटों में लगता रहा अस्थियों का ढेर
अंतिम संस्कार की बात इसलिए क्योंकि कोरोना काल में लोगों की मौत होने के बाद दुनियाभर में लाखों लोगों का अंतिम संस्कार पूरे विधि विधान से नहीं हो सका. कोई कितना भी विख्यात हो या अंजान उसकी अंतिम यात्रा अकेले ही निकली. यहां तक कि कोरोना ने लोगों को इस कदर भयभीत कर दिया कि अपने के अंतिम संस्कार में शामिल ना हो पाने का दुख मनाने वाला समाज, करीबियों की अस्थियां तक लेने श्मशान घाट नहीं पहुंचे. देशभर के कई श्मशान घाटों में अस्थियों का ढेर लगता रहा. कोरोना के कारण 24 मार्च से लगे लॉकडाउन के बाद लंबे समय तक लोग घरों में बंद रहे, कोरोना के कारण लगातार मौतें होती रहीं, अभी भी ये सिलसिला चल ही रहा है. इस दौरान कुछ लावारिस लाशें भी आईं और कुछ सामान्य मौतें भी हुईं. मौत के बाद शरीर से संक्रमण नहीं फैले, इस कारण कोरोना संक्रमित शव का निगम-प्रशासन ही अंतिम संस्कार करवाता रहा. कई लोग मजबूरीवश और कई लोग भयवश अस्थियां लेने भी नहीं पहुंचें. ये अस्थियां लंबे समय से मुक्तिधाम के लॉकर में रखी थीं।
बीते दिनों इंदौर के रामबाग मुक्तिधाम में मार्च से अक्टूबर महीने तक इकट्ठा हुई करीब एक क्विंटल अस्थियों को नर्मदा में प्रवाहित कर दिया गया. खास बात ये है कि अस्थियां विसर्जित करने के लिए तमाम तरह की विधि-विधान का ख्याल रखा गया. लेकिन इस बात पर किसी ने भी ध्यान नहीं दिया कि क्या बायोमेडिकल वेस्ट के साथ जला दिए गए इन शवों को नदी में प्रवाहित करना नदी के स्वास्थ्य के लिए ठीक होगा. बात ठीक है कि देश के महान नदी ने जिस तरह से सगर के पुत्रों का तारा था, उसी तरह नदी सभी को तार देती है. हम मान सकते हैं कि शायद सगर जो एक राजा थे और राजा अपने प्रजा को पुत्रतुल्य ही मानता रहा है, तो हो सकता है कि उस दौरान भी कोई महामारी फैली हो और उससे इस तरह की मौत हुई हो, जिसे गंगा ने अपने अंदर समाहित कर लिया हो. उस दौर से आज तक हमारे सोच में एक परंपरा सेट हो गई है कि नदी हम इंसानों को ही मिली है, औऱ एक प्रवाह तंत्र है जिसमें कुछ भी प्रवाहित किया जा सकता है. बस हमारी सोच में इतना बदलाव हुआ कि नदियों को सहेजने वाली मानसिकता उसके पूर्ण दोहन तक आ पहुंची.
हो सकता है कि ये बात हमारी हजारों सालों से चली आ रही एक सुदृढ़ सोच को आघात पहुंचाए. लेकिन कोरोना ने हमें कई बातों पर पुनर्विचार करने का मौका दिया है.
कोरोना से पहले नदी में कुछ भी प्रवाहित करना था सहज
कोरोना से पहले जब हम गंगा या नर्मदा या किसी अन्य नदी में अपने किसी की अस्थियां ये सोचकर प्रवाहित कर रहे थे कि हमारा अपना इसके बाद मोक्ष पाकर बैकुंठ पहुंच जाएगा. क्या वाकई में वो पहुंच भी रहा था. जिस तरह देश की तमाम नदियों को मुहाने से अंतिम छोर तरह हर कोस पर रोक दिया गया है और बांध बना दिए गए हैं. हो सकता है कि हमारे अपने कि अस्थियां पहले ही किसी बैराज के गेट पर अटक गई हों. किसी गाद का हिस्सा बन गई हो. किसी शहर या उद्योग के नाले के साथ मिलकर नदी का रंग बदल रही हों.
कोरोना काल से पहले तो हमने इस तरह से सोचा ही नहीं होगा. क्योंकि उस दौरान हमारे लिए नदी में कुछ भी प्रवाहित करना आसान और सहज था. लेकिन कोरोना ने हमें मौत का जो डर दिखाया उसके बाद हमने अपने मन को समझा लिया कि मरने के बाद कुछ नहीं बचता है. और जो बचा है उसको बचाना ज़रूरी है. इस तरह वो अंतिम संस्कार औऱ अस्थि विसर्जन जो हमारे लिए सामाजिक दबाव के चलते या अपने से प्रेम के चलते बेहद ज़रूरी और अनिवार्य था. हमने उसे यूं ही छोड़ देना भी स्वीकार लिया.
दरअसल कोरोना ने हमें बताया कि परंपाएं समाज को जीवित रखऩे और स्वस्थ रखने के लिए होती है. और
किसी भी तरह की परपंरा या रिवाज जो जीवित प्राणी के लिए नुकसानदायक है उसमे बदलाव होना ही चाहिए. आज से महज़ दस साल पहले तक क्या हम सोच सकते थे कि मूर्ति विसर्जन किसी नदी के बजाए घर के पास बने किसी कुंड में होगा, बल्कि मूर्ति विसर्जन ही नहीं होगा, वो मूर्ति एक पौधे में बदल जाएगी और आपके घर की हवा को शुद्ध करेगी. क्या एक साल पहले तक आप सोच सकते थे कि बिहार औऱ उत्तरप्रदेश का सबसे बड़ा पर्व छठ लोग अपने घरों की छतों पर मनाएंगे. सामूहिकता का संदेश देने वाला पर्व जिसे किसी घाट पर किया जाना अऩिवार्य माना जाता था. अपने-अपने घरों की छतों तक सिमट कर रह जाएगा.
हजारों किलो राख से बन रहीं मूर्तियां और हस्तशिल्प का सामान
आज से कुछ साल पहले तक मंदिरों या मजारों से निकली राख को नदी में प्रवाहित करने के अलावा हम उसके बारे में कुछ दूसरा सोच भी नहीं सकते थे. लेकिन आज उत्तरप्रदेश के खाजपुर गांव के 20 वर्षीय आकाश सिंह हर महीने मंदिर, मज़ारों से करीब 8 हज़ार किलो राख, नारियल का कचरा उठा कर उससे मूर्तियां औऱ हस्तशिल्प के आइटम तैयार करवा रहे हैं. खास बात ये है कि इस काम में उन्होंने जेल के कैदियों को जोड़ा है और वो उनके साथ मिलकर ये संरचनात्मक काम कर रहे हैं. बीटेक आकाश ने बचपन से घर के पास के तालाबों में मंदिर के पुजारियों को राख डालते देखा है. धीरे धीरे लोग बढ़े, और तालाब-नदियां घटी जिसकी वजह से नदी तालाबों में प्रदूषण बढ़ता गया और भगवान के लिए की गई अर्चना की राख से हम उसके ही बनाए दूसरे जीवों को जो पानी में, पानी के भरोसे जीवित थे उनको मारने लगे.
आकाश को भी ये बात बुरी लगी औऱ उसने इस राख से मूर्ति बनाना शुरू कर दिया.दो साल पहले शुरू हुई आकाश की कंपनी आज दिल्ली –एन सीआर के करीब 160 मंदिर औऱ दरगाहों से राख जुटाती है. इस राख से जो उत्पाद तैयार होते हैं उन्हें अलग अलग माध्यमों से बेचा जाता है. लोग इसे खरीद भी रहे हैं, मंदिर औऱ दरगाह राख दे भी रहे हैं. इस तरह हजारों साल से चली आ रही परंपरा बिखरी नहीं बस उसका स्वरूप बदल गया.
दरअसल आकाश की कहानी या कोरोना के दौरान हमारी सदियों से चली आ रही सोच में जो विराम लगा है वो हमे यही समझाने की कोशिश कर रहा है कि वक्त बदल रहा है तो परंपराए भी बदलनी होंगी, क्योंकि इंसान से परंपराएं हैं परंपराओं से इंसान नहीं है. और सबसे बड़ी परंपरा प्रकृति के साथ तारतम्य बनाना है.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi उत्तरदायी नहीं है.)