हर एक चीज़ का होता है एक ना एक दिन अंत, 12 महीने नहीं रहता बसंत. इन पंक्तियों में बसंत के खुशगवाह होने और उसके हमेशा रहने की ख्वाहिश झलकती है. लेकिन अपने रवैये से हमने 12 महीने तो छोड़िये 1 महीने का बसंत को भी ठीक से रहने नहीं दिया है. दरअसल बसंत होने के लिए प्रकृति का होना अनिवार्य शर्त है. और प्रकृति का हमने क्या हाल किया है ये बात तो किसी से छिपी नहीं है. एक फिल्म के दृश्य से इस बात को समझते है.
2011 में आई फिल्म कोंटेजियन वक्त से पहले बनी फिल्म है. फिल्म बनाने वाले ने कभी नहीं सोचा होगा कि वो अपनी फिल्म को साक्षात होते देखेगा. लेकिन ऐसा हुआ और जिस फिल्म को 2011 में किसी ने पूछा नहीं औऱ जो यू ट्यूब पर मुफ्त में उपलब्ध थी. वो आज सबसे चर्चित फिल्मों में से एक है. पूरी फिल्म एक वायरस के फैलने औऱ उससे जुड़ी तमाम तरह की थ्योरियों को समझने में निकलती है. जब दर्शक पूरी फिल्म देख चुके होते हैं औऱ फिल्म का अंत मान लेते हैं तभी उन्हें एक बुलडोज़र नज़र आता है. जो आगे बढ़ता है और दो पेड़ों को काट देता है. पेड़ पर बैठी हुई चमगाद़ड़ परेशान और बेघर होकर उड़ जाती है. दूर मौजूद एक सुअरों के बाड़े पर जाकर बैठ जाती है. इन सुअरों की फार्मिंग की जा रही है ताकि इनके मीट का स्वाद इंसान ले सकें. चमगादड़ यहां पर एक केले को खाती है औऱ बचा हुआ केला गिर जाता है. इस गिरे हुए केले को एक सुअर खाता है. फिर सुअर को एक रेस्टोरेंट में ले जाया जाता है. जहां एक बावर्ची उसे काट रहा होता है तभी एक गेस्ट उससे मिलने की इच्छा ज़ाहिर करती है. वो अपने हाथों को अपने अप्रोन से पोंछता है और लड़की से हाथ मिलाता है. काले स्क्रीन पर लिखा हुआ आता है. डे 1.
क्या आपने कभी इस तरह का दृश्य किसी भी फिल्म में अनाज खाने के बाद होते हुए देखा है. शायद नहीं. क्योंकि हम इंसानों में जो भी बीमारियां फैली वो तभी फैली जब हमने जंगल औऱ उसके अंदर की जिंदगी के साथ छेड़खानी की. ऐसा नहीं है कि इंसान ने मांस खाया इसलिए परेशानी पैदा हुई, ऐसा इसिलिए हैं क्योंकि इंसान अब ये मान कर चल रहा कि सिर्फ मांस खाना ही सेहतमंद है. हमने मीट को प्रोटीन का एकमात्र पर्याय माना जबकि निघंटु (खान-पान से संबंधित भारतीय प्राचीन शास्त्र) में बताया गया है कि उड़द की दाल में मीट के बराबर प्रोटीन मौजूद होता है. यही वजह है कि शहर में रहने वाला, कम मेहनती औऱ बैठ कर काम करने वाला उड़द की दाल पचा नहीं पाता है.
खड़ा अनाज, दाल, बादाम, अखरोट, फली, बीज, सब्जी जैसे वनस्पति जनित उत्पाद जितने पोषक होते हैं उतना ही पर्यावरण के लिए भी अच्छे होते हैं. शोध बताती है कि मीट को जिस पोष्टिकता के लिए जाना जाता है, जिसकी वजह से दुनियाभर में इसका उपभोग बढ़ा है, वो सभी कुछ पोष्टिकता से भरपूर पौधों में भी पाया जाता है. बस एक विटामिन बी-12 ही है जो पौधों में नहीं पाया जाता है, तो जो लोग शाकाहारी हैं वो इसे सप्लीमेंट के तौर पर भी ले सकते हैं. यही नहीं मीट, खासकर रेड मीट में पाया जाने वाला सेचुरेटेड फेट यानि संतृप्त वसा, कोलेस्ट्रॉल, औऱ दूसरे तत्व दिल से जुड़ी दिक्कतों में इज़ाफा करते हैं. जबकि अगर रेड मीट की जगर वनस्पति जनित प्रोटीन का सेवन किया जाए तो उससे बेड कोलेस्ट्रॉल को भी कम किया जा सकता है औऱ दिल की बीमारी से भी बचा जा सकता है. पौधों को सीधा खाना, उन्हें जानवरों को खिलाकर जानवरों को खाने से कई मामलों में बेहतर है. आमतौर पर हम जानवरों से दो तरीके से भोजन लेते हैं. एक तो उनसे निकले डेयरी उत्पादों के ज़रिये, दूसरा मीट के रूप में. अगर मीट उत्पादों को जिसमें रेड मीट और दूसरा मीट शामिल है, उसे हफ्ते में एक बार लिया जाता है औऱ पोल्ट्री, मछली औऱ अंडों को हफ्ते में दो बार भी लिया जाता है तो फिर भी ठीक है. लेकिन अगर ये मात्रा इससे ज्यादा बढ़ती है. तो स्वभाविक है कि ये ना तो पर्यावरण के लिहाज से ठीक होगा और ना ही वैश्विक खाद्य उत्पादन की सेहत के लिए अच्छा होगा.
वर्तमान की जनसंख्या के हिसाब से आकलन लगाया जाए तो 2050 तक दुनिया की जनसंख्या दस अरब को पार कर चुकी होगी. जितना आज हमारा मीट का उपभोग है और उसके उत्पादन के लिए जिस तेजी से जंगल काटे जा रहे हैं. ताकि जानवरों के लिए चारागाह और अनाज तैयार किया जा सके. तो इसमें कोई दो राय नहीं है आने वाले वक्त में ग्रीन हाउस गैसों में इज़ाफा, फर्टिलाइज़र से ज़मीन औऱ वातावरण को होने वाला नुकसान, औऱ मौसम परिवर्तन और ज्यादा देखने को मिलेगा.
ईट-लेंसेंट की शोध के मुताबिक जहां भूमध्यसागर के आसपास के देश जैसे तुर्की, इज़राइल जहां वनस्पति जनित भोजन के मामले में दुनिया में सबसे बेहतर काम कर रही हैं, वहीं दक्षिणी एशियाई देश जैसे वियतनाम, जापान इस मामले में सबसे पिछड़े हुए हैं. भारत के कई हिस्से जो अपने खान-पान औऱ सेहतमंद तरीकों के लिए दुनियाभर में मशहूर थे वहा भी अब धीरे-धीरे मीट खाने वाले औऱ दूसरे स्टार्च जनित उत्पादों की तादाद बढ़ती जा रही है. यहां पर औद्यौगिक खाद्य पदार्थों के उपभोग में तेजी से इज़ाफा देखने को मिला है, जिससे व्यक्तिगत तौर पर औऱ धरती दोनों की सेहत पर बुरा असर पड़ रहा है. वहीं अगर चीन की बात करें तो रेडमीट के सेवन के मामले मे ये देश अब अमेरिका को पछाड़ने की तैयारी में है. इसकी वजह से जहां डायबिटीज, मोटापा, रक्तचाप जैसी लाइफस्टाइल बीमारियां दिन पर दिन बढ़ती जा रही है, वहीं पर्यावरण के क्षरण में भी उल्लेखनीय इज़ाफा देखने को मिल रहा है. हालांकि चीन ने आधिकारिक तौर पर रेडमीट के उपभोग को कम करने की नीति का पालन करने की बात कही है जिसे लेकर कहा जा रहा है कि इससे सेहत औऱ आर्थिक दशा दोनों पर बुरा असर पड़ेगा, हालांकि ऐसा बिल्कुल भी ज़रूरी नहीं है कि रेडमीट के उपभोग से आर्थिक सुधार हो सकता है. लेकिन इससे जुड़ा एक बड़ा उद्योग औऱ बाज़ार इस तरह की बातों को प्रचारित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है. इन उद्योगों का सामाजिक और सरकारी तौर पर एक बड़ा दबाव है. अमेरिका में भी ऐसे ही हाल देखने को मिल रहे हैं. हालांकि वहां पर कुछ समूह ऐसे हैं जो लोगों को व्यक्तिगत तौर पर इस बात के लिए शिक्षित कर रहे हैं कि वनस्पति जनित खाद्य पदार्थ ना सिर्फ इंसानों के लिए बल्कि धरती के लिए भी लाभकारी हैं. दुनिया भर में सोया जनित उत्पादों में होने वाली बढ़ोतरी इस बात की ओर इशारा करती है कि लोगों में धीरे-धीरे जागरुकता आ रही है.
आंकड़ों की ज़ुबान
करीब डेढ़ एकड़ ज़मीन से जहां महज़ 170 किलो मीट पैदा होता है, वहीं इतनी ही ज़मीन से करीब 1700 किलो तकवनस्पति जनित खाद्य पदार्थ उगाया जा सकता है. यानि मांसाहार के लिए शाकाहार की तुलना में 18 गुना ज्यादा ज़मीन की ज़रूरत पड़ती है.
दुनियाभर की 85 फीसद जंगली जानवर जिसमें हाथी से लेकर मक्खी तक औऱ पौधों की प्रजातियांशामिल हैं, लुप्त होने की कगार पर पहुंच चुकी हैं, क्योंकि मीट उत्पादन के लिए लगातार जंगलों को काटकर चारागाह में तब्दील किया जा रहा है.
औद्योगिक खेती 85 फीसद जंगलों के काटने के लिए ज़िम्मेदार है, अगर मीट औऱ डेयरी उत्पादों में कमी लाई जाए तो खेती से जुड़ी ज़मीन के उपयोगों में 75 फीसद तक कमी की जा सकती है. ये पूरे अमेरिका, चीन, यूरोप और ऑस्ट्रेलिया के बराबर होगा. खास बात ये है कि उसके बाद भी दुनिया में कहीं भी भोजन की कमी नहीं रहेगी, मीट औऱ डेयरी 83 फीसद खेती की ज़मीन का उपयोग करते हैं, खेती से पैदा होने वाली करीब 60 फीसद ग्रीन गाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार होती हैं. ओर इसके बदले में पूरी दुनिया को महज़ 18 फीसद कैलोरीज मिल पाती है.
दुनिया की तीन चौथाई प्रजातियां खतरे में हैं क्योंकि उनका घर खेती की ज़मीन में तब्दील हो रहा है. 62 फीसद प्रजातियां गैरटिकाऊ कृषि गतिविधियां जिसमें खाद्य उत्पादन, चारा और दूसरे जानवर के खाने की चीजें शामिल है उनकी वजह से खतरे में पड़ गई हैं.
भूमि परिवर्तन के बाद उनके खेती योग्य ज़मीन में बदलाव की वजह से 4.600 तरह की प्रजातियां जिसमें चीता, नाक पर बाल वाला ऊदबिलाव, ह्यूमुल हिरण, फ्रेज़नो कंगारू चूहा, और अफ्रीकन जंगली कुत्ते शामिल है, सभी लुप्त होने की कगार पर पहुंच गई है. इसके अलावा 1091 तरह की पक्षियों की प्रजातियां भी खतरे में है, जिसमें व्हाइट क्लाउन्ड स्पैरो, बर्फ का उल्लू, शामिल है.
कोरोना जैसी ज़ूनोटिक बीमारियों के आने की वजह भी भूमि में होने वाला बदलाव है, जिसकी वजह से जंगली जीवन और इंसान के बीच जो एक उचित दूरी बनी हुई थी वो कम होती जा रही है.
हमारा आयुर्वेद भी कहता था कि इंसानों के रोज़मर्रा के भोजन में छह तरह के स्वाद का शामिल होना ज़रूरी है. लेकिन खाद्य बाज़ार के बढ़ने की वजह से ये स्वाद एक या दो स्वाद में तब्दील होता जा रहा है. यही नहीं जब 1905 में अलबर्ट हार्वड नाम के वनस्पति विज्ञानी को ब्रिटेन से भारत किसानों की हाल बदलने के लिए भेजा गया तो यहां पर आकर उन्हें कुछ और ही देखने को मिला. अलबर्ट ने इस बात को स्वीकार किया कि ‘दरअसल हमें भारतीय किसानों को सिखाने की बजाए इनसे सीखने की ज़रूरत है. जिस तरह से प्राचीन भारतीय कृषि विज्ञान में पूरे पारीस्थितिकीय तंत्र और जैवविविधता का ख्याल रखा जाता है, उसे देखकर लगता है कि हमें भारतीय किसानों को सिखाने की ज़रूरत नहीं है बल्कि गुरू बनाने की ज़रूरत है.’
उन्होंने भारत के छोटे छोटे खेतिहर मजदूरों और किसानों से बातचीत करके अपने अनुभव लिखे और कृषि विज्ञान पर काम किया. उनका इसकाम को अक्सर ‘आधुनिक ऑर्गेनिक खेती की बाइबल’ के नाम से पुकारा जाता है. आपको इस आधुनिक ऑर्गेनिक खेती की बाइबल को पढ़ने की ज़रूरत नहीं है, बस आपको स्वंय और अपने प्रिय को वनस्पति से प्यार करने की ज़रूरत है. बसंत का अंत कभी नहीं होगा अगर हम उसे खुद मे सहेज कर रखेंगे. (यह लेखक के निजी विचार हैं.)
पर्यावरण और इससे जुड़े मुद्दों पर लेखन. गंगा के पर्यावरण पर 'दर दर गंगे' किताब प्रकाशित।
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