मदर इंडिया में बिरजू का बाप अपने दूध पीते बच्चे और जवान बीवी को छोड़ कर चला गया और बाद में उसका बेटा जब कुछ नहीं कर पाया तो डाकू बन गया. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि बिरजू के बाप ने जिससे कर्जा लिया था वो देश का कोई बैंक नहीं था बल्कि गांव का सुक्खीलाला था। ऐसा इसलिए भी हुआ क्योंकि मदर इंडिया के दौर में किसान बड़ा वोटर नहीं बन पाया था. ऐसा इसलिए भी हुआ क्योंकि हरित क्रांति ने देश में कदम नहीं रखा था. ऐसा इसलिए भी हुआ क्योंकि उस वक्त तक अनुकंपा, अधिकार नहीं बन पाई थी.
यह उसी दौर की बात है जब शंभू अपनी दो बीघा ज़मीन को छुड़ाने के लिए गांव छोड़कर कोलकाता (उस समय का कलकत्ता) में रिक्शा घसीटने के लिए चला गया था. तमाम प्रकार के झंझावतों के बाद भी उसकी ज़मीन उसके पास नहीं रह पाई थी. दरअसल इस देश की सरकारों ने कभी भी बिरजू या शंभू की परेशानी को समझा नहीं. वो बिरजू के भूख से अकड़ते पेट पर चंदन का लेप लगाते रहे। उन्होंने शंभू के खेतों में उपज रहे अनाज को स़ड़ने के लिए छोड़ दिया, बाद में उस पर कर्जा माफी जैसे सुंदर कपड़ा ओढ़ा दिया.
बीते 70 सालों में किसानों के विकास के मामले में दो तरह के काम हुए पहला कर्ज माफी, जिसे नेता उस मार्केटिंग की तरह इस्तेमाल करते हैं जिसमें किसी सामान की कीमत को 999 रू बताकर हज़ार के आंकड़े का डर छिपा लिया जाता है, साथ ही ये सुनने में भी आकर्षक लगता है. दरअसल ये सुनने का जो आकर्षण है यही नीति का निर्माता है. सरकार वो नीतियां बनाती है जो सुनने में आकर्षक हों. इस देश की किसानी का सत्यानाश इससे सुनने के आकर्षण से हुआ. हरित क्रांति भी वही कर्णप्रिय क्रांति थी जिसने यूरिया डाल डाल कर नीचे ज़मीन और ऊपर वातावरण का मटियामेट कर दिया।
दरअसल हमने कभी भी किसान की समस्या के निराकरण के बारे में सोचा ही नहीं. हमने बस ये सोचा कि किस तरह किसान का मुंह बंद रहे. कोरोना के दौर में हमें ये समझने की बेहद ज़रूरत हो गई है कि हमारे किसानों को बरगला कर हमने जिस तरह उसके खेतों को खराब किया है. जिस तरह उसे मिट्टी और प्रकृति से दूर किया. जिस तरह से हमने खेती के नाम पर भ्रम फैलाए हैं. अब ज़रूरत है कि पीछे मुड़ कर देखा जाए और उन सभी दिक्कतों को दूर किया जाए.
लेखक अंकिता जैन की किताब ‘ओह रे किसान’ किसानों से जुड़े हर पहलुओं को बड़ी ही सहजता के साथ समझाती है. ‘ओह रे किसान’ कई किसानों से की गई बातचीत, शोधग्रंथों और पत्र-पत्रिकाओं में छपे आलेंखों का एक संकलन है. जहां लेखक ने सभी को एकजुट करके किसानों की व्यथा और कथा को बांचने का प्रयास किया है. लेखक लोक मुहावरों की मेड़ पर चलते हुए किसानों की जिंदगी की सूखी ज़मीन से गुज़रती हैं, साथ ही वो ये बताने का प्रयास भी करती नज़र आती हैं कि आखिर क्या वजह है कि भारत का किसान पगडंडियों से ही गुज़र रहा है. जबकि प्रकृति का सबसे नज़दीकी साथी वही है. और उसी की वजह से हमारी थाली कभी खाली नहीं रहती है. मसलन
मेंदनी, मेंढक, भइस किसान, मोर पपीहा, घोड़ा धान, बाढी मच्छ, लता लपटानी, दसौं खसी जब बरखै पानी, मतलब जब अच्छी वर्षा होती है तो धरती, मेंढक, भैंस, किसान, तथा मोर, पपीहा, घोड़ा, मछली और लता ये दसों बहुत खुश होते हैं. ये दसों प्रकृति के सबसे करीब मित्र हैं. प्रकृति के इन मित्रों की एक बड़ी तादाद गांवों में बसती है,
इसी तरह किताब महिला किसानों के हालात पर भी सवाल खड़े करती है. जैसे एक महिला किसान कहती है ‘धान का रोपा हो या मिर्चा टूटे, खेतों में खटते हुए सबसे ज्यादा औरतें दिख जाएंगी’.आगे लेखक बताती हैं कि विशेषज्ञ मानते हैं कि यदि कृषि में स्त्रियों को बराबरी का दर्जा मिले तो खेती-बाड़ी में उनकी बढ़ती सहभागिता से उत्पादन में बढ़ोत्तरी हो सकती है. भूख और कुपोषण की समस्या दूर हो सकती है. पर अंकों के आधार पर देखा जाए तो यह दुखद ही है कि खेत में बराबरी से काम करती महिलाओं के पास भारत में ज़मीन का मालिकाना हक न के बराबर है. 2010-11 की कृषि जनगणना के अनुसार वर्तमान में भारत में केवल 12.78 प्रतिशत कृषि जोत ही महिलाओं के नाम पर है.
किताब में अंकिता वैज्ञानिक समर्थ के प्रयासों का भी ज़िक्र करती हैं जो छत्तीसगढ़ के जशपुर जैसे दूर-दराज के इलाके में रह कर लगातार किसानों की उन्नति के लिए प्रयास कर रहे हैं. हाल ही में उन्होंने कोरोना काल में महुआ से अल्कोहल निकाल कर उससे सेनिटाइज़र बनाया, जिसे अब वहीं की महिलाएं बना कर बाज़ार में दे रही हैं. इसके अलावा वो किसानों के लिए लगातार रसायनमुक्त खाद बनाने का काम भी कर रहे हैं. इसी खाद के असर को समझने के अपने अनुभव साझा करते हुए वैज्ञानिक बताते है कि किस तरह किसान भेड़ चाल में चलते हुए अपना नुकसान कर रहे हैं.
वह बताते हैं कि छत्तीसगढ़ में किसानी मतलब धान उगाना होता है.कुछ ही किसान होंगे जो थोड़ी-बहुत सब्जी भी लगा लेते थे. कुछ किसान ऐसे भी है जो मिर्च की खेती कर रहे हैं. इन 20-22 किसानों में से दो या तीन किसानों को छोड़कर बाकी सभी ऐसे थे जिन्होंनें एक दो साल पहले ही मिर्च लगाना शुरू की थी. इसके पहले यह किसान भी धान ही उगा रहे थे. अब जब इन लोगों ने दूसरी फसल लगाना शुरू किया तो दूसरे किसान भी बगैर किसी ठोस तकनीकि जानकारी के मिर्च लगाने लगे. जब एक किसान से पूछा गया कि वो पहले मिर्च की खेती क्यों नहीं करते थे तो उनका जवाब था, क्योंकि पहले कोई दूसरा नहीं करता था. और जब उनसे ये पूछा गया कि वो अब खेती क्यों कर रहे हैं तो उनका कहना था कि क्योंकि पड़ोसी लगा रहा हो हम भी लगा रहे हैं.
इस तरह किसान देखा-देखी वाली खेती करके खुद का नुकसान करता है और दूसरों को भी प्रेरित करता है. जैसे ऊपर दिए गए उदाहरण में किसान को ये पता ही नहीं है कि मिर्च की देख-रेख कैसे करनी है, कितना पानी देना है. नतीजा ये होता है कि वो कम पैदावार ले पाता है. इसी तरह किताब किसानो के दवा लेने की फितरत पर भी प्रकाश डालती है और बताती है कि किस तरह हमारे किसान और उनके इर्द गिर्द के लोग खेतों को बरबाद कर रहे हैं. जैसे खाद-बीज वाले शुरू से ही इन लोगों को इतनी तरह की गैर-ज़रूरी दवाइयां भी दे देते हैं कि पौधा कमज़ोर हो जाता है. उनमें फल-फूल तो आता है लेकिन पौधे की क्षमता घट जाती है.
कुल मिलाकर जैसे हमने इंसानों को एंटीबायोटिक देकर उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता को कमज़ोर कर दिया ठीक उसी तरह का काम हम गैर जरूरी दवाए देकर खेतों के साथ कर रहे हैं. किताब से पता चलता है कि किस तरह खेतों के लिए दवा बेचने वाले भी प्रशिक्षित नहीं है मसलन एक दवाई 500 रुपए में बिकती है. 125-130 रुपए प्रति स्प्रे किसान को पड़ती है. असल में उस दवा की ज़रूरत शुरू से आखिर तक फसल को है ही नहीं, फिर भी दुकानदार के कहने पर किसान उसे शुरू में डाल देता है. दुकानदार उसे बेच रहा है क्योंकि उसे 500 रू की दवा में 400 रुपए का मुनाफा मिल रहा है. वहीं कोई कारगर दवा दुकानदार इसलिए नहीं बेचता है क्योंकि उसमें मुनाफा कम होता है. दवाओं के नाम को लेकर लेखक ने बड़ा ही दिलचस्प तरीके से किसानों की नादानी को समझाया है.
किसानों से पूछने पर कि पिछले सीजन में आपने कौन-सी दवा डाली थी, वे कहते है ‘चन्दा’. अगले सीजन में कहते हैं ‘सूरज’. उन्हें ये पता ही नहीं होता कि अगले सीजन तक चन्दा को ही सूरज की पैकिंग में बेचा जा रहा है. इन दवाइयों की पैकिंग पर उनके कम्पोजिशन नहीं लिखे होते हैं. सिर्फ कंपनी का नाम और पता लिखा रहता है.
इसी तरह रासायनिक खेती के बजाए जैविक खेती क्यों करना चाहिए उसे भी किताब में बड़ी ही खूबसूरती के साथ समझाया है ‘एक पुरानी कहावत है, यदि आप किसी नए स्थान पर जाते हैं और यदि आपको वहां कि स्थानीय बीमारी लगती है तो उस बीमारी का देसी इलाज उस स्थान के कुछ ही किलोमीटर में उपलब्ध होता है. उस क्षेत्र में उस बीमारी से बचाने वाली जड़ी-बूटी, पौधे, पत्ते आदि उपलब्ध होंगे. यही बात जैविक खेती पर भी लागू होती है. स्थानीय बीज से तैयार हुई फसल को किसी बीमारी से बचाने के लिए इलाज भी वहीं उपलब्ध होता है. ’
आगे वो उपाय भी बताते हैं कि छत्तीसगढ़ क्षेत्र में कीटनाशक बनाने के लिए नीलगिरी, रतनजोत, सेंध्वायर, तंबाकू नीम आदि का प्रयोग कर सकते हैं. इन सबके प्रयोग से खर्च तो घटेगा ही , साथ ही छिड़काव के समय यदि ये सांस के ज़रिये किसान के शरीर में भी चले जाएं तो इनके दुष्प्रभाव नहीं होंगे.
इस तरह ‘ओह रे किसान’ किसानों से जुड़े तमाम पहलुओं को समेटने का प्रयास करती है. किताब में जानकारी और शोध नज़र आता है हालांकि किताब लेखन के मामले में थोड़ी खटकती है. लेखक किताब की शुरूआत एक कहानी के तौर पर करती हैं लेकिन ऐसा महसूस होता है जैसे दो पेज के बाद ही वो उस कहानी को संभाल नहीं पाती हैं और अचानक लेखन रिपोरर्ताज में बदल जाता है. इसी तरह कहीं पर साक्षात्कार को सीधे लिखना और लेखक का बार-बार स्वंय का ज़िक्र करना भी खटकता है. इसी तरह कई जगह लेखन में किसी अंग्रेजी पुस्तक से सीधे तौर पर किए गए हिंदी अनुवाद जैसा आभास होता है, इसकी वजह कुछ शब्दों का चयन है जिनका इस्तेमाल आमतौर पर अकादमिक या सरकारी पुस्तकों में किया जाता है.
किताब चूंकि किसानों के बारे में लिखी गई है इसलिए उसकी सहजता और वाक्य विन्यास में उसका पुट होना बेहद ज़रूरी हो जाता है. हालांकि जिस तरह पुस्तक में शोध ग्रंथों और तमाम कृषि संबंधी जानकारियां समेटी गई हैं वो एक उल्लेखनीय प्रयास है. बस लेखन के तौर पर शायद इसमें और गुंजाइश हो सकती थी. कुल मिलाकर ‘ओह रे किसान’ एक सराहनीय प्रयास है जो किसानों की कहानी और उनकी समस्याओं को ईमानदारी से बयान करती है. ये किताब किसानों की है पर किसानों से इतर दूसरे लोगों की ज्यादा है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)
पर्यावरण और इससे जुड़े मुद्दों पर लेखन. गंगा के पर्यावरण पर 'दर दर गंगे' किताब प्रकाशित।
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