दीपावली की अगली सुबह अक्सर थोड़ी अलसाई हुई होती है, पर इस बार कुम्लहाई और घबराई हुई सी थी. धुंहरे (स्मॉग के लिए हिंदी में ऐसा कुछ लिखा जा सकता है) की चादर ओढ़ी हुई सुबह थोड़ी सी खांसती हुई और दम फूलती हुई सी भी थी. दरवाज़े की घंटी बजी, देखा रोहन खड़ा हुआ है. रोहन सफाई वाला है. रोज़ घर से कूड़ा लेने आता है. रोज़ाना ही उससे नमस्कार चमत्कार होती है. हाल चाल लिए जाते हैं. उसी परंपरा के तहत जब रोहन से दीपावली कैसे मनी जैसा सवाल पूछा, तो उसने बड़ी ही सहजता के साथ बताया कि दीपावली अच्छी मनी. अगला सवाल पत्रकार और पर्यावर्णीय मन से निकला. ‘और रोहन पटाखे-वटाखे छोड़े की नहीं’? रोहन ने अपनी सहजता कायम रखते हुए ही भोले मन से जवाब दिया, ‘जी भैया, इस बार अच्छे से पटाखे छोड़े, आसानी से मिल भी गए थे, पिछली बार तो पटाखे मिलने में बड़ी मुश्किल हुई थी.’.
उसके जवाब के बाद अंतर्मन में रफी गुनगुना रहे थे. बरबादियों का शोग मनाना फिज़ूल था, बरबादियों का जश्न मनाता चला गया, हर फिक्र को धुएं में उड़ा...
दिल्ली का एक बड़ा तबका बधाई का पात्र है, इस बार उनके प्रयासों की बदौलत दिल्ली ने पिछले 4 सालों का रिकॉर्ड तोड़ दिया. ब्लैंककेट बैन जैसे शब्दों को धता बताते हुए. इस बार दिल्लीवालों ने जमकर पटाखे भी छोड़े और दिल्ली के दूसरे लोग जो दीपावली को दीपों का त्यौहार मानने जैसा अधार्मिक काम करते हैं, उन्हें खांसी और दम फूलना, तोहफे में दिया. ये बात और है कि पटाखे छोड़ने वालों के घर धुहरे से बचे नहीं होंगे, लेकिन अपने त्यौहार, औऱ उससे जुड़ी धार्मिकता को बचाने के लिए कुछ त्याग तो करना ही पड़ता है. तो सबने अपने-अपने शगुन के पटाखे छोड़े और अपना धर्म निभा लिया. खास बात ये है कि इन पटाखों को छोड़ने में उन्होंने भी महती भूमिका निभाई जो पूरा साल दमा का रोना रोते रहते हैं. अगली सुबह बहती हुई नाक पर रुमाल रखे हुए कई लोग अपने शौर्य का बखान करते दिखे.
साथ ही हमने ये भी साबित कर दिया कि कोई भी पहल , किसी का भी फैसला हमारे और त्यौहारों के बीच में रोड़ा नहीं लगा सकता है. हम अपनी संस्कृति (पता नहीं पटाखे फोड़ने का उल्लेख का कहां और कौन से शास्त्र में है) को बचाने के लिए अपनी और आने वाली पीढ़ी की जिंदगी को भी दांव पर लगा सकते हैं. दिल्ली के एक कोने से लेकर पंजाब की सरहद तक फैला धुंहरा यानि धुएं और धुंध का संगम और हरियाणा से लेकर पंजाब के हाइवे के किनारे से लगे हुए खेतों से उठता हुआ धुंआ हमारी देश की जनता की बहादुरी का अफसाना गढ़ रहा है. ये वो अफसाना है जिसमें लिखा गया है कि हमने एक ज़िद ठान ली है कि हम इस दुनिया को खूबसूरत नहीं रहने देंगे। हम हमारी बच्चों को मास्क पहना कर ही बाहर निकालकर छोड़ेंगे.
दिल्ली की सड़कों पर जब रात में लोग पटाखे फोड़ रहे थे तो उनके चेहरों पर एक अजीब सी जीत का जश्न नज़र आ रहा था. गोया वो बताने की कोशिश कर रहे हो कि न्यायालय कौन होता है हमारे धार्मिकता को रोकने वाला. ये बात एक कहानी की याद दिलाता है. एक गांव में एक कई सालों पुराना मंदिर हुआ करता था. उस मंदिर की हालत जर्जर हो चुकी थी. लोगों को मंदिर के अंदर जाकर पूजा करने में भी डर लगता था क्योंकि उन्हें लगता था कि कहीं किसी दिन मंदिर उन पर भरभरा कर न गिर पड़े. फिर एक दिन धर्म को संभालने वाले, धर्म को पालने वाले और धर्म को ढालने वालों ने मिलकर इस बात का फैसला किया कि हमें मंदिर का जीर्णोद्धार करना चाहिए. फिर किसी ने सलाह दी कि इतना पुराना मंदिर है, हमारी पहचान है हम इसे यूं ही तोड़ नहीं सकते है तो मंदिर के दरवाज़ों और खिड़कियों को वैसा ही निकाल कर दोबारा लगाया जाएगा.
एक गुट ने सलाह दी कि हमें मंदिर से निकली हुई ईंट पत्थरों को ही दोबारा दीवार बनाने में इस्तेमाल करना चाहिए. किसी ने सलाह दी कि इस मंदिर की नींव तो खोदी ही नहीं जा सकती है तो उसी नींव पर दोबारा मंदिर खड़ा करना सही रहेगा. इस तरह से तमाम सलाह मशविरों के बाद मंदिर के निर्माण का फैसला कर दिया गया. उस गांव में वो मंदिर आज भी अपने गिरने का इंतज़ार कर रहा है. आज भी गांव का बाशिंदा अंदर पूजा करने से डर रहा है. हम दरअसल ऐसे ही अपनी जीर्ण शीर्ण होती मानसिकता औऱ आडंबरो की दीवारों के अंदर अपने धार्मिकता को बचाने में लगे हुए हैं.
लैंसेट जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक भारत में 2015 से लेकर अब तक वायु, जल, और दूसरे तरह के प्रदूषण की वजह से दुनिया में सबसे ज्यादा मौत हुई है। प्रदूषण की वजह से इन सालों में कइयों को अपनी जिंदगी गंवानी पड़ी. शोधकर्ताओं ने बताया है कि इनमें से ज्यादातर मौतें प्रदूषण की वजह से होने वाली दिल की बीमारियों, स्ट्रोक, फेफड़ों के कैंसर और सांस की गंभीर बीमारियों की वजह से हुई है. इस अध्ययन के अनुसार इसमें सबसे अधिक मौतों की वजह वायु प्रदूषण हैं.
ऐसा नहीं है कि सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया था, लेकिन अभी शायद जनता के मन में मौत का डर नहीं समाया है, अभी वो पंजाब हरियाणा के किसानों की तरह ये मान रहे हैं कि इससे हमारा तो कुछ नहीं होगा. हमारे अकेले के करने से क्या होता है और एक अकेला मैं करूंगा तो उससे क्या नुकसान होगा. ये वो मानसिकता है जो थोड़ा थोड़ा करके इस धरती को तबाह कर रहा है.
वैसे ही इस साल कोरोना ने दुनिया के चेहरों से त्यौहारों का उत्साह और खुशी छीन ली थी. उस पर भी हम समझने को तैयार नहीं है. हम बस बरबादी की आग में हवा देने का काम कर रहे हैं.
साथ में अफसोस के साथ राजेन्द्र कृष्ण के बोल गुनगुना रहे हैं. एक वो भी दीवाली थी, एक ये भी दीवाली है, उजड़ा हुआ गुलशन है, रोता हुआ माली है. बाहर तो उजाला है, मगर दिल में अंधेरा, समझो ना इसे रात, ये है ग़म का सवेरा, क्या दीप जलाएं हैं. तकदीर ही काली है... उजड़ा हुआ गुलशन है.. रोता हुआ माली है.
(यह लेखक के निजी विचार हैं.)ब्लॉगर के बारे मेंपर्यावरण और इससे जुड़े मुद्दों पर लेखन. गंगा के पर्यावरण पर 'दर दर गंगे' किताब प्रकाशित।
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