गांव में एक ही कसाई है, भैंस के मीट के लिए पूरा गांव उसी के भरोसे रहता है. एक दिन आमतौर पर भैंस को काटने के रिवाज़ पर बाधा पड़ती है क्योंकि भैंस रस्सी तोड़ कर भाग जाती है. भैंस अपने आपको बचा रही है. पूरे गांव वाले उसे पकड़ने पर लगे हुए हैं. पुलिस इस मामले में कुछ नहीं कर सकती हैं क्योंकि भैंस को गोली मारना कानूनी तौर पर ग़लत है. अब शुरू होता है भैंस को पकड़ने का सिलसिला, खुद को बचाने के लिए भैंस भाग रही है, उससे गांव में उथल पुथल मच गई है. कई जगह टूट फूट भी हुई है. सारा गांव इसके लिए कसाई को दोष देता है. औऱ वो एक शूटर को बुलाते हैं. जिसका गांव से पहले से नाता रहा है और कसाई से उसकी दुश्मनी थी. दिन से रात हो जाती है. गांव के लोग तरह तरह के हथकंडे अपनाते हैं. लेकिन भैंस पकड़ में नहीं आती है.
इस पूरे प्रकरण के दौरान कई लोग घायल भी हो जाते हैं. जिसका दोष भैंस पर मढ़ा जाता है. भैंस एक पुल को पार करती है, पूरा गांव उसके पीछे भागता है, सबसे आगे कसाई है, एक जगह दलदलनुमा जगह पर जाकर भैंस फंस जाती है, कसाई उसके पास पहुंचता है और लगातार उसे चाकू गोदता जाता है. और मारने के बाद उसे उसका श्रेय लेता है जो गांववाले देना नहीं चाहते हैं. फिर एक दिल दहलाने वाला दृश्य सामने आता है. पुल को पार करते हुए पूरे गांव वाले एक एक करके मरी हुई भैंस की तरफ दौड़ रहे हैं. सब उसका हिस्सा चाहते हैं, और वो भैंस पर कूदते जाते हैं. धीरे धीरे करके वहां लोगों को एक पहाड़ सा बन जाता है. जिसके नीचे उसे मारने वाला कसाई दबा हुआ है. उसके चेहरे से निकलती हुई चीख और भाव, भैंस को मारने औऱ खुद के मरने दोनों के मिले जुले हैं. यह कहानी है भारत की तरफ से इस बार ऑस्कर के लिए आधिकारिक एंट्री जल्लीकट्टू की.
जल्लीकट्टू फिल्म की खूबसूरती बगैर किसी भाषण के, इंसान के अंदर मौजूद राक्षस को दिखाती है. फिल्म बताती है कि किस तरह इंसान जानवरों को बस एक उत्पाद समझता है.
मज़ेदार बात है कि पूरी फिल्म के दौरान इंसान जिस भैंस को पकड़ने की कोशिश कर रहे हैं, उसे महिष या राक्षस से संबोधित करते हैं. जबकि पूरी फिल्म में भैंस किसी को मार नहीं रही होती है बस खुद को बचा रही होती है. और खुद के बचाने की प्रक्रिया में लोग घायल होते जाते हैं. ऐसा वाकया लॉकडाउन के दौरान असलियत में देखने को मिला था. जब एक दोपहर को बहुत ज़ोर से शोर सुनाई दिया, अचानक उठे शोर से उठी आशंकाओं ने मुझे शोर की तरफ बढ़ा दिया. शोर के करीब पहुंचा तो सामने जो दिखा उसने मुझे अंदर तक हिला कर रख दिया. घर के पास एक खाली पड़े मैदान में एक गाय के पैरों में एक औरत पड़ी हुई थी. गाय के खुरों ने उसे लहुलुहान कर दिया था. लोग उस गाय को पत्थर मार रहे थे. लेकिन वो गाय वहां से हिल नहीं रही थी बल्कि लगातार उस औरत पर अपना थूथन लगा कर उसे देख रही थी.
एक नज़र से ऐसा लग रहा था जैसे कोई अपने शिकार की जिंदगी को जांच रहा हो ( जानवर अपने शिकार की मौत का अंदाज़ा ऐसे ही लगाते हैं, हमने तमाम किताबों, कहानियों, फिल्मों औऱ वैज्ञानिक धारावाहिकों में यही मीमांसा तो देखी है.) उसकी हर बार की हरकत उसके पैरों में पड़ी औरत को और मारती जा रही थी. बाहर खड़ी भीड़ अब अंदर जा चुकी थी, किसी के हाथ में डंडा था, किसी के हाथ में सीढ़ी थी. कोई पत्थर बरसा रहा था. पचास लोग मिलकर एक गाय को संभाल नहीं पा रहे थे. ये वही गाय थी जिसका दूध अकेले एक आदमी निकाल लेता है.
गाय ने पैर उठाया, वो उस औरत के मुंह पर पड़ने वाला था, मेरी आंखे बंद और धड़कने तेज हो चुकी थी, और मेरे मुंह से एक घुटी हुई चीख निकली की बचालो मर जाएगी. अचानक एक आदमी ने गाय को धकेला और दूसरे ने नीचे से औरत को खींचा औऱ बाहर निकाल लाए. हैरानी की बात ये है कि जब लोगों ने औरत को गाय के नीचे से निकाला तो गाय उसके पीछे मारने के लिए दौड़ी नहीं. बल्कि वो वहीं खड़ी उसे देखती रही. उसके चेहरे पर कोई दरिंदगी का भाव नहीं था. ठीक उसी तरह जिस तरह जल्लीकट्टू की भैंस मरने के दौरान एकदम शांत नज़र आ रही होती है. उसके चेहरे पर शुरू से आखिर तक कहीं भी कोई राक्षसी भाव नज़र नहीं आता है, जबकि उसे राक्षस या महिष बताने वाला इंसान खुद को मासूम बताने की कोशिश में लगा रहता है.
दरअसल हम इंसान जिस तरह से मीट की तरफ भाग रहे हैं. उसने ऐसे हालात पैदा कर दिए हैं कि हमारे अंदर की क्रूरता ने एक स्थायित्व का रूप ले लिया है. पूरी दुनियाभर में मीट को लेकर ऐसे हालात पैदा हो गए हैं कि ऐसा लगता है कि उसके बिना अब हमारा गुज़ारा मुश्किल हो गया है. इसका नतीजा ये है कि हमने जंगली जानवरों के विलुप्त होने की कगार पर ला खड़ा कर दिया है. और उसकी जगह पर पालतू और उन जानवरों ने ले ली है, जो हमारी भूख और प्यास मिटा सकते हैं.
युवाल नोआ हरारी अपनी किताब ह्यूमन ड्यूस में बताते हैं अगर हम आज की तारीख में अफ्रीकन भैंसे की बात करें, तो इसकी संख्या महज़ 9 लाख के करीब बची है, वहीं गायों की संख्या 150 करोड़ से ऊपर पहुंच चुकी है.
वहीं चिकन की गणना करें तो इनकी संख्या 2000 करोड़ के करीब बैठेगी. नोवाल बताते है कि 1980 में यूरोपीय जंगली पक्षियों की संख्या 200 करोड़ के आसपास थी जो 2009 तक घटकर 160 करोड़ रह गई है. इसी दौरान यूरोप ने मीट और अंडे के लिए 190 करोड़ चिकन का उत्पादन किया. पिछले 70 हज़ार सालों में इंसानों ने धरती की पूरी इकोल़ॉजी को बदल कर रख दिया है.
हमने किसी को असभ्य और आसामाजिक बताने के लिए जानवर शब्द को गढ़ा. लेकिन हकीकत ये है कि जल्लीकट्टू में भैंस के पीछे भागता इंसान जो लगातार खुद को मासूम और निरीह बताने की कोशिश में महिष का शिकार कर रहा है. उसे देखकर आप कह सकते हैं कि इंसान की तरह बर्ताव करना बंद करो.
(यह लेखक के निजी विचार हैं.)ब्लॉगर के बारे मेंपर्यावरण और इससे जुड़े मुद्दों पर लेखन. गंगा के पर्यावरण पर 'दर दर गंगे' किताब प्रकाशित।
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