प्रयागराज से बनारस के बीच में एक ब्लॉक पड़ता है कछवा. इस ब्लॉक में आपको स्कूल से लेकर धर्मशाला तक, तमाम तरह की इमारतों पर रामकिंकर जी का नाम लिखा हुआ मिल जाएगा. दरअसल रामचरित मानस को लोक में प्रचलित करने का श्रेय तुलसीदास के बाद रामकिंकर को ही जाता है. और वो इसी गांव से ताल्लुक रखते हैं. यही वजह है कि यहां की संस्कृति में राम और उनके आचरण घुले हुए मिलते हैं. यहां के किसानो की अच्छी बात ये है कि वो खेती के लिए आधुनिक तरीकों को इस्तेमाल करने में भी काफी सहज होते जा रहे हैं. खास बात ये है कि आपको कई जगह खेती के नए तरीके अपनाते हुए युवा किसान मिल जाते हैं. जो अपने खेतों में खाद डालने से लेकर पानी सींचने तक सारा काम खुद ही कर रहे हैं. यहां मिर्च, टमाटर ,आलू और मटर की खेती बहुतायत में होती है. ये किसान वैसे तो हर बात को लेकर जागरूक होते जा रहे हैं, लेकिन एक बात और है जो आपको चिंता में डालती है. गंगा के किनारे हो रहा भूजल का इस्तेमाल. जो बीते दो दशकों में काफी तेजी से बढ़ा है. जिसकी वजह से यहां के भूजल के स्तर में गिरवट का ये आलम है कि गंगा के किनारे लगी ज़मीन में भी भूजल स्तर 80 फीट तक जा पहुंचा है. जो कभी 40-50 फीट पर हुआ करता था.
भारत ही नहीं दुनिया भर में, 90 फीसद पानी का इस्तेमाल सिंचाई के लिए होता है. दुनिया के कुछ अहम जलक्षेत्रों में भूजल पम्पिंग का स्तर आवश्यकता से अधिक है. इसका असर नदी के प्रवाह में भी देखने को मिलता है.
यह समझना बेहद ज़रूरी है कि सभी नदियों के आधार प्रवाह (बेसफ्लो) को बनाए रखने में भूजल की खास भूमिका होती है. यही भूजल का दोहन और कमी गंगा में पानी की मात्रा और प्रवाह को कम करने में योगदान दे रही है. 1970 के दशक में जब सिंचाई पंपिंग की शुरुआत हुई, तब से गंगा में बेस फ्लो की मात्रा लगभग 60 प्रतिशत कम हो गई है. गंगा के जलभर (एक्वीफर) से लगे हुए भूजल भंडारण में भी हर साल करीब 30 से 40 सेमी की कमी आई है. यही नहीं भूजल स्तर में गिरावट से नदी के प्रवाह पर जो असर पड़ रहा है वो गंगा की कई अन्य सहायक नदियों में भी देखा जा सकता है.
दक्षिण एशिया की ब्रेड-बास्केट हो रही है खाली
'दक्षिण एशिया की ब्रेड-बास्केट के रूप में जानी जाने वाली, दुनिया की सबसे बड़ी नदियों में से एक गंगा के बेसिन का क्षेत्र वर्तमान में सबसे बड़ी और घनी वैश्विक आबादी (दुनिया की जनसंख्या का 10%) को पोसता है. इसका मतलब साफ है कि भूजल की अवैज्ञानिक निकासी से वैश्विक खाद्य उत्पादन को भी खतरा हो सकता है. गंगा नदी के पानी और प्रवाह में कमी से घरेलू और सिंचाई पानी की आपूर्ति, नदी परिवहन, पर गहरा असर पड़ रहा है. जिससे उत्तरी भारतीय मैदानों में घनी आबादी वाले क्षेत्र खतरे में पड़ते जा रहे हैं. और असमय आपदाओं को झेल रहे हैं. दरअसल नदी के पानी की कमी का सीधा असर क्षेत्रीय जल सुरक्षा और खाद्य उत्पादन पर पड़ता है.
सामान्य तौर पर, नदी भूजल से बेसफ्लो के साथ-साथ बेसिन हिंटरलैंड में वर्षा, हिमालयन बर्फ के पिघलने से (~1500 मिमी / वर्ष) से प्रवाहित होती है. जब किसी नदी को बेसफ्लो के ज़रिये बनाए रखा जाता है तब उसे 'गेनिंग' के रूप में परिभाषित किया जाता है.
क्या है नदी का बेसफ्लो
आपने देखा होगा जब सूखा पड़ता है या लंबे वक्त तक कम बारिश होती है, हमें लगता है छोटी नदिया या बड़ी नदियां सूख जाएंगी. कई बार उनके प्रवाह में कमी देखने को भी मिलती है लेकिन नदी की पतली धार ही बहे लेकिन नदी बहती ज़रूर रहती है, ये नदी का बेस फ्लो यानि तले के नीचे का पानी है जो उसके प्रवाह को बनाए रखने में मदद करता है. अगर ये सूख जाए या इसका स्तर गिर जाए तो नदी का प्रवाह बुरी तरह टूट जाएगा. यानि नदी तल के नीचे प्रवाहित जल प्रवाह को बेसफ्लो जल प्रवाह कहते हैं. इस जल प्रवाह की गति का निर्धारण स्थानीय ढाल और नदी-तल के नीचे मौजूद भौमिकी आधार (जियोलॉजी बेड) की पारगम्यता यानि घुसने की क्षमता तय करती है.
जियोलॉजी बेड जितना पारगम्य होगा और ढाल की वजह से जो दाब विकसित होगा उसके असर से नदी को बेसफ्लो जल हासिल होता है. जहां पर नदी में अधिक ढाल होता है, वहां बेस फ्लो जल का दाब अधिक तथा पारगम्य आधार पाया जाता है, ऐसे में नदी को बेसफ्लो जल की ज्यादातर मात्रा मिल जाती है. नदी के प्रारम्भिक चरण में यह मात्रा अपेक्षाकृत कम होती है. जैसे-जैसे नदी डेल्टा की ओर बढ़ती है, और नदी ढ़ाल, घटता जाता है, वैसे वैसे नदी तल के नीचे मिलने वाले कणों की साइज भी कम होती जाती है. छोटे होते हुए कणों की परत की पारगम्यता समानुपातिक रूप से घटती जाती
नदियों के लिए इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि जहां भूजल में सर्वाधिक कमी है, भारत के वही राज्य जल गहन फसल यानि (वाटर इंटेंसिव क्रॉपिंग) प्रथाओं के अधीन हैं. गंगा बेसिन में प्री-मॉनसून सीजन के दौरान कम प्रवाह वाले मौसमों के दौरान तीव्र भूजल पंपिंग के कारण इस तरह के प्रवाह में कमी बेहद चिंताजनक है.
गंगा में प्रवाह की निरंतरता बनाए रखने के लिये बारिश, उपसतह का प्रवाह और हिमनद पानीके मुख्य स्रोत हैं . इसकी 17 मुख्य सहायक नदियों में से यमुना, सोन, घाघरा और कोसी गंगा की वार्षिक जल के आधे हिस्से में योगदान करती हैं. हरिद्वार-बनारस खंड के बीच नदी में प्रवाह की समस्या है. दिसंबर से मई तक गंगा के प्रवाह में कमी देखा जा सकता है। खास बात ये है कि भूजलकी कमी से पर्यावरणीया प्रवाह और मछलियों जैसी जलीय प्रजातियों के पारिस्थितिक परिणामों की शायद ही कभी जांच की जाती हो,जबकि उन पर होने वाले असर से काफी सटीक जानकारी मिल सकती है.
भूजल हमारी नदियों में पर्यावरणीय प्रवाह का एक प्रमुख स्रोत है. जल स्तर में गिरावट के साथ, बारहमासी नदियां मौसमी होती जा रही हैं. गंगा की कई सहायक नदियां हैं जिनमें पिछले पचास वर्षों में प्रवाह में 30 से 60 प्रतिशत की गिरावट आई है. कृषि के लिए भूजल पंपिंग एक प्रमुख कारक है, जो वैश्विक मीठे पानी के पारिस्थितिक तंत्र की गिरावट की वजह बनता है.
हमारे वैज्ञानिकों ने एक शब्द दिया है, इकोसिस्टम, जिसका एक बहुत सरल सा मतलब है, सब कुछ एक दूसरे से जुड़ा हुआ है. अगर भूजल का स्तर गिरेगा तो उससे जुड़ी नदी के पानी में भी कमी आएगी. ये एक बहुत सहज सी बात है लेकिन ना तो सरकारें उस ओर ध्यान देना चाहती है और ना ही किसी को उनका ध्यान इस ओर दिलाने में दिलचस्पी है. दरअसल शोषण विज्ञान में पारंगत हमारी मानसिकता देना तो जानती ही नहीं. हर घर, हर नल जल का नारा देने वालों का पारिस्थितिक संरक्षण के ज्ञान से कोई जुड़ाव नहीं है.
ये लेखक के निची विचार हैं. ब्लॉगर के बारे मेंपर्यावरण और इससे जुड़े मुद्दों पर लेखन. गंगा के पर्यावरण पर 'दर दर गंगे' किताब प्रकाशित।
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