बारह साल की चारुल कि आंखों से आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे. वह एकटक तेज़ कोलाहल पैदा करती भागीरथी को देख रही थी. चारुल का नाज़ुक मन इस बात को समझने को तैयार नहीं हो पा रहा था कि पापा चले गए हैं. इस बात को चौबीस घंटे भी नहीं बीते थे, यहीं इसी जगह पर जहां चारुल अपने पापा के साथ खेला करती थी, जहां लोगों की चिल्लपों सुबह से गूंजने लगती थी. यहीं भागीरथी और अस्सीगंगा के संगम पर, जहां उसका गांव गंगोरी था. वहां अब कुछ मकानों के मलबे के चौके में रखे बर्तन फैले हुए थे. लोगों के चीखने की आवाज़ फैली हुई थी, जिसने माहौल को एक अजीब सी खामोशी दे दी थी.
‘जोशियाड़ा से मुख्य नगर को जोड़ने वाले पुल के समीप तेज़ गर्जना के साथ भागीरथी सब कुछ बहा देने की जिद पर अड़ी थी. संगीता के पति सहित वहां काम कर रहे 19 मज़दूर इस अचानक आई बाढ़ में बह गए थे. हालांकि कंपनी इस बात को मानने को राज़ी नहीं थी. कंपनी का रवैया ऐसा महसूस करा रहा था कि जैसे ठेके पर आए इन मज़दूरों के अस्तित्व को ही भागीरथी ने साफ कर दिया हो. अस्सी गंगा ऊपर डोडीताल से निकलती है. सुनने में आया था कि यहीं डोडीताल में पहाड़ का एक बड़ा हिस्सा टूट कर गिर गया, जिसकी वजह से न जाने कितने गहरे डोडीताल का एक हिस्सा टूटा और तबाही एक विकराल रूप में तेज़ी से नीचे की ओर बहने लगी, जिसकी चपेट में सबसे पहले प्लांट के मज़दूर ही आए.
‘उक्त अंश’ 2013 में लिखी गई पुस्तक ‘दर दर गंगे ’ से लिए गए हैं. इसके ठीक सात साल बाद फिर ऐसा ही मंजर ऋषि गंगा में देखने को मिला. दरअसल नंदादेवी ग्लेशियर टूटने को इसकी वजह बताया जा रहा है. आमतौर पर ग्लेशियर इस तरह से टूटता नहीं है. जब तक कोई भूकंप नहीं आया हो. स्थानीय लोगों का मानना है कि कई दिनों से ऋषि गंगा की ऊपरी धारा से पानी नहीं आ रहा था, इसका मतलब है कि पानी कहीं रुक रहा था. लेकिन इसे सर्दी में ग्लेशियर ना पिघलने की वजह से बहाव का कम होना माना गया और इस तरफ ध्यान नहीं दिया गया. साथ ही इस पूरे इलाके में जिस तरह से एक के पीछे एक कतार में लगी हुई बांध परियोजनाएं चल रही हैं. ऐसे में इस तरह की घटना होना तो तय ही था. यह पहली बार है भी नहीं जब ऐसा कुछ हुआ है. वहां पर लगातार पहाड़ों में किए जा रहे विस्फोट भी इसकी एक वजह हो सकते हैं.
ऋषिगंगा जिसमें बहाव कम होता दिखा वहां पर मौजूद पॉवर प्रोजेक्ट (14 मेगावॉट) पूरी तरह बह गया. यह ऋषि गंगा आगे चलकर धौली गंगा से मिल जाती है. इस प्रयाग को विष्णु प्रयाग कहते हैं. इसी तरह मंदाकिनी नदी जहां अलकनंदा से मिलती है वो जगह रुद्र प्रयाग कहलाती है, जहां पर केदारनाथ हादसा हुआ. पिंडर नदीं जहां अलकनंदा से मिलती है, वो जगह कर्णप्रयाग कहलाती है. इसी तरह ऊपर जाते हुए एक प्रयाग और है जिसका ज़िक्र किताबों से लेकर आम चर्चा तक कहीं मौजूद नहीं है. वो प्रयाग है केशव प्रयाग. यहां अलकनंदा के साथ (कथित) सरस्वती का संगम होता है. इस प्रयाग पर ही अभी तक कोई परियोजना नहीं चल रही है. बाकी जितने प्रयाग मौजूद है, लगभग सभी प्रयाग अब टनल में जा चुके हैं.
पुस्तक में जिस घटना का ज़िक्र किया गया है, वो भागीरथी की थी. वहीं ऋषि गंगा धौली गंगा में मिलती है जो आगे चलकर अलकनंदा में मिलती है. आगे चलकर यही दो नदी ( भागीरथी और अलकनंदा) देवप्रयाग में मिलती हैं और गंगा बनती है. जब ये किताब लिखी गई, उसके ठीक छह महीने बाद केदारनाथ हादसा हुआ. और इस हादसे के दौरान भी इसी तरह आकलन लगाए गए, लेकिन साथ ही परियोजनाएं भी लगती रही. इसका ही परिणाम हमें एक बार और देखने को मिला, जिस दिन ये घटना हुई अगर उस दिन रविवार नहीं होता तो लापता होने और मरने वालों की संख्या इससे कहीं अधिक होती.
ग्लेशियर के टूटने के बाद पानी के साथ मिला मलबा तेजी से आगे बढ़ा और ऋषिगंगा पॉवर प्रोजेक्ट को बहाते हुए आगे बढ़ा और इसने धौलीगंगा पर मौजूद तपोवन विष्णुगाड परियोजना को भी नष्ट कर दिया. इसके बाद भी तबाही रुकी नहीं और पीपलकोटी परियोजना को भी भारी नुकसान पहुंचा. ये सभी प्रोजेक्ट एक सुनने में खूबसूरत लगने वाले ‘रन ऑफ दि रिवर’ संकल्पना के तहत बनाए गए थे.
क्या होता है ‘रन ऑफ दि रिवर’
जब धारा को रोके बिना बिजली बनाई जाती है तो उसे ‘रन ऑफ दि रिवर’ कहा जाता है. इस प्रक्रिया में पानी इकट्ठा ना करके सीधे धारा को टरबाईन में डाला जाता है और बिजली पैदा की जाती है. कुल मिलाकर नदी की धारा को टनल में डालने की इस प्रक्रिया को ही ‘रन ऑफ दि रिवर’ कहा जाता है. सुनने में ये बात जितनी सुखद अहसास कराती है, इसका दुखद परिणाम उतना ही दृश्यमान है. खास बात ये है कि अलकनंदा और धौलीलंगा पर मौजूद विष्णु प्रयाग जहां वर्तमान में हुई घटना के बाद सबसे ज्यादा क्षति हुई या जो पूरी तरह से तबाह हो गए हैं. केदारनाथ हादसे के दौरान इन्हीं परियोजनाओं को किसी नायक की तरह प्रस्तुत किया गया था. उस दौरान ये बताया गया था कि अगर ये बांध नहीं होते तो केदारनाथ हादसे की तबाही और भयावह हो सकती थी.
दिलचस्प बात ये है कि वर्तमान में पूर्व गंगा मंत्री उमा भारती जिस हादसे पर दुख जता रही हैं, और ट्वीट करके कह रही है उन्होंने पहले भी चेतावनी दी थी. वहीं उमा भारती अपने कार्यकाल में इन बांधों की पैरवी करती रही हैं. यही नहीं यही उमा भारती हैं, जिन्होंने केदारनाथ हादसे के पीछे धारी देवी मंदिर को हटाना बताया था. उन्हें मंदिर के पीछे का बांध नहीं दिखा था. अब जब वो पद और कद दोनों ही खो चुकी हैं तो उन्हें बांध नज़र आ रहे हैं. इन्हीं बांधों का विरोध करते करते, सरकार के अहं का शिकार मज़दूर ही नहीं स्वामी सानंद (डॉ जी. डी. अग्रवाल) भी हुए थे.
घटनाओं का क्रम बहुत पुराना
1978 में इस इलाके में पहली बार बाढ़ आई थी. उस दौरान ही भागीरथी ने अपनी नियंत्रण रेखा खींची थी. लेकिन प्रशासन और स्थानीय लोगों ने इस लक्ष्मण रेखा का लगातार उल्लघंन किया. इसके बाद 1991, 2012, 2013 और अब 2021 लगातार विकास होता रहा, लगातार बाढ़ आती रही. लगातार नदी अपनी जगह मांगती रही, लगातार लोग उसकी जगह छीनते रहे. लगातार पहाड़ों के सीने में छेद करके बारूद भरा जाता रहा और लगातार ग्लोबल वार्मिंग के नाम पर आंखों पर पट्टी बांधी जाती रही.
1978 की बाढ़ के बाद से ही हमने कुछ सीखा तो बस यही कि मुआवज़ा कैसे बांटा जाए और मुआवजे के नाम पर ज़मीन के पट्टे कैसे हथियाए जाएं. 1978 की बाढ़ के बाद सबसे ज्यादा पट्टे तिलोथ में निचले क्षेत्र में बांटे गए. लोगों ने जमकर अतिक्रमण भी किया. इसका परिणाम लगातार आगे नज़र आता रहा और आगे भी कब्जा चलता रहा. और विकास होता रहा. हम नहीं मान रहे हैं, लेकिन ये मानकर चलिए कि भविष्य में यह बात ज़रूर दर्ज होगी कि हमने इस विकास की वास्तव में क्या कीमत चुकाई है.
पर्यावरण और इससे जुड़े मुद्दों पर लेखन. गंगा के पर्यावरण पर 'दर दर गंगे' किताब प्रकाशित।
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