‘मेरे प्यारे डर्टोनियन, मैं आपका इस बचाव दिवस पर स्वागत करता हूं, सेवक पानी चालू करने वाला पवित्र चक्र तैयार करो, वक्त आ चुका है मेरे दोस्तों, वो शुभघड़ा आ चुकी है, जिसका हम सभी को बेसब्री से इंतजार रहता है, वो पवित्र समय, हमारे भाग्य के खुलने का समय, हमारे बचाव का वक्त, ये वक्त है हमारे गलों के तर होने का’ मेयर बना कछुआ अपने इस भाषण के बाद इशारा करता है और शहरवासियों के लिए पानी दिए जानी वाली टंकी का वॉल्व घुमाया जाता है. लेकिन जब वॉल्व घूमता है तो पानी नहीं उसमें से कीचड़ की बड़ी सी बूंद बाहर निकलती है. ये दृश्य है रैंगो फिल्म का जो हर नल जल की कल्पना और सूखती धाराओं के बीच का सच है.
इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित खबर के मुताबिक इस बार के बजट में केंद्र सरकार एक प्रमुख कार्यक्रम – जलजीवन मिशन-अरबन की घोषणा कर सकती है. ये योजना हर घर, हर नल जल पहुंचाने की सरकार की महत्वाकांक्षी सपने को पूरा करने के लिए होगा. इस योजना के तहत 2026 तक वो सारे शहर जिनकी जनसंख्या 1 लाख से ऊपर है, वहां पीने के लिए हर घर में नल और अलग से सीवर कनेक्शन की व्यवस्था की जाएगी. खबर की मानें तो इस पंचवर्षीय योजना के लिए सरकार 2,79,500 करोड़ की मंजूरी देने वाली है. देश में वर्तमान में करीब 3500 शहर ऐसे हैं जहां नल से पेय जल और सीवर से जुड़ी किसी तरह की कोई योजना नहीं पहुंच सकी है. इसलिए केंद्रीय शहरी विकास मंत्रालय के तहत अलग से एक योजना का क्रियान्वयन किया जाएगा. जिसके तहत 2026 तक हर शहरी घर तक नल से जल पहुंचाने की योजना है. जिससे सभी 4000 शहरों तक पीने का पानी उपलब्ध हो सके. जल जीवन मिशन का लक्ष्य वो 2.68 करोड़ परिवार हैं जिनके यहां नल नहीं है. साथ ही ऐसे 2.64 करोड़ घरों को भी लक्ष्य बनाया गया है जिनके यहां सीवरेज की सुविधा नहीं है.
सरकार की योजना वाकई में काबिल-ए-तारीफ है. देश के हर बाशिंदे को पीने का शुद्ध जल मिले इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता है. लेकिन सवाल ये खड़ा होता है कि ऐसा होगा कैसे. लगातार सूखती नदियों और भूगर्भ जल स्तर के नीचे जाने के बाद हर नल जल पहुंचेगा कैसे. जबकि ये कोई छिपी बात नहीं है कि देश ही नही दुनिया के भूगर्भ जल और सतही जल की क्या स्थिती है.
हाल ही में नीति आयोग की रिपोर्ट में भी बताया गया है कि 2030 तक 40 फीसदी लोगों को पीने का पानी तक नहीं मिल पाएगा. महज एक दशक पहले देश में 15 हजार नदियां थीं, जिसमें से करीब 4500 नदियां सूखकर बरसाती नदी बन कर रह गई है. भू-जल का भंडार 72 प्रतिशत से ज्यादा खाली हो चुका है. इस वक्त भारत में केवल सतही जल का संकट नहीं है, गिरता भू-जल भी सबसे बड़ा संकट बन गया है.
भूजल खाली होने के कारण पानी का संकट और गहरा होता जा रहा है. देश के करीब 365 जिले और 17 राज्य पानी के संकट से जूझ रहे हैं.
जल शक्ति मंत्रालय के आंकड़ों की मानें तो 2008 से 2017 तक पंजाब में 84 और उत्तर प्रदेश में 83 प्रतिशत कुओं के जलस्तर में कमी देखी गई. जम्मू कश्मीर में यहीं आंकड़ा 81, हिमाचल में 76, हरियाणा में 75, दिल्ली में 76, मध्य प्रदेश में 59 और तमिलनाडु में 59 फीसद हो जाता है. देश के 14 हजार 243 कुएं की जांच की गई. इनमें सामने आया कि देशभर के 52 प्रतिशत कुओं के पानी में कमी देखने को मिली है.
एक रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है 2025 में पानी की मांग आज के हिसाब से 18.75 प्रतिशत बढ़ जाएगी. इसमें से सिंचाई के लिए 10 प्रतिशत, पीने के पानी में 44 प्रतिशत, उर्जा क्षेत्र में 73 प्रतिशत और उद्योग क्षेत्र में 80 फीसदी पानी की मांग बढ़ेगी. वर्तमान में तमाम क्षेत्रों के लिए सालाना 1137 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी उपलब्ध है. इसमें 427 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी अतिरिक्त है. यही अतिरिक्त पानी 2025 में घटकर 294 बिलियन क्यूबिक मीटर पर आ जाएगा.
नीति आयोग की एक रिपोर्ट बताती है कि धाराओं के सूखने का व्यापक असर पड़ रहा है. भारतीय हिमालय क्षेत्र की बात करें तो ये करीब 2,500 किलोमीटर लंबे और 250 से 300 किमी चौड़े क्षेत्र में फैला हुआ है, इसमें करीब 60,000 गांव हैं, और लगभग 5 करोड़ लोग रहते हैं. जम्मू एवं कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड और त्रिपुरा इसके दायरे में आते हैं. असम और पश्चिम बंगाल भी आंशिक रूप से इसके तहत ही आते हैं. यहां की करीब 60 प्रतिशत आबादी जल संबंधी जरूरतों के लिए धाराओं पर निर्भर है.
'रिपोर्ट ऑफ वर्किंग ग्रुप इनवेंट्री एंड रिवाइवल ऑफ स्प्रिंग्स इन द हिमालयाज फॉर वाटर सिक्योरिटी' के अनुसार, संपूर्ण भारत में 50 लाख धाराएं हैं जिनमें से 30 लाख अकेले भारतीय हिमालय क्षेत्र (आईएचआर) में हैं. इन 30 लाख धाराओं में से आधी बारहमासी धाराएं सूख चुकी हैं या फिर मौसमी धाराओं में तब्दील हो चुकी हैं.
क्या है नदियों के सूखने का कारण
नदियों के सूखने की अहम वजह नदी कछार में भूजल का लगातार बढ़ता दोहन है. इसी का असर है कि नदी कछार के भूजल स्तर में लगातार गिरावट देखने को मिल रही है. और भूजल का स्तर तेजी से नीचे उतरने लगा है. उसके नदी तल के नीचे उतरने से नदी को भी पानी मिलना समाप्त हो रहा है और नदी सूखती जा रही हैं.
देश की तमाम नदियों से अलग अलग उपयोगों और प्रयोगों के लिए पानी को खींचकर निकाला जाता है. कई नदियों से नहरें निकाली जाती हैं और उसके माध्यम से बसाहटों के लिए पीने का पानी और सिंचाई के लिए जल उपलब्ध करवाया जाता है. नदी से जब पानी को पम्प करके या नहरों के माध्यम से निकाला जाता है तो उससे नदी के प्रवाह में कमी हो जाती है. बुरे हाल तब हो जाते है जब इसमें भूजल का अति दोहन भी जुड़ जाता है, इस तरह नदियां सूखने लगती हैं.
बात यहीं खत्म नहीं होती है, विकास की नाव पर सवार सरकार को नदी मार्गों पर बाँध भी बनाना है. बांधों के बनने के कारण नदी का मूल प्रवाह केवल खण्डित नहीं होता बल्कि नदी के निचले मार्ग में घट भी जाता है.
इसी तरह छोटी नदियों पर बड़ी संख्या में स्टापडेमों का बनना भी एक वजह है. ऐसा उदाहरण गंगा पर बने नरोरा बैराज पर देखने को मिलता है, जहां गंगा का 90 फीसद पानी लोअर गंग नहर में डाल कर कासगंज से आगे एटा, फर्रूखाबाद जैसे कई जिलों में सिंचाई होती है. मज़ेदार बात ये है कि यहां भूमिगत जल की स्थिति अच्छी है और गंगा-यमुना दोआब होने से ज़मीन भी बहुत उपजाऊ है. इसलिए ऐसा कोई कारण नहीं बनता है कि गंगा का सारा पानी मुख्य धारा से निकाल कर नहर में डाल दिया जाए. देश में किसी भी राजनीतिक सत्ता और आंदोलन के पास इतनी ताकत नहीं है कि वो इस नहर से पानी कम करने की सोचे भी. बस सत्ता घोषणा करने की सोचती है. लेकिन उसके दूरगामी प्रभाव पर नज़र डालने से सभी बचते हैं. अच्छी बात है कि हर घर तक पीने का पानी पहुंचे लेकिन उसके पहले ज़रूरी ये भी है कि हम नदियों को, हमारे भूमिगत स्रोतों को प्यासा नहीं छोड़ें. नहीं तो जब जल ही नहीं होगा तो नल में से जल नहीं हवा निकलेगी.
(यह लेखक के निजी विचार हैं.)