विश्वयुद्ध के दौरान एक ज्यूस बाप को पता चलता है कि हिटलर की सेना उसे कभी भी गिरफ्तार कर सकती है. उसका एक छोटा बेटा है. जो बिन मां का है. अब बाप के सामने ये परेशानी है कि अपने बेटे का क्या करे, जो इन तमाम बातों से अंजाम है. वो एक फैसला लेता है और जिस जेल में गिरफ्तारी के बाद उसे रखा जाना है वो वहां पर अपने बेटे को भी छिपा कर ले आता है. अब रोज़ाना जब उसे युद्धबंदी के तौर पर काम करने जाना होता है, तो वो बैरक में ही अपने बेटे को छिपने को कहता है. लेकिन उसे पता है कि उसका बेटा चूंकि इन बातों से वाकिफ नहीं है, इसलिए हो सकता है कि वो बैरक से बाहर निकल आए. ऐसी सूरत में सैनिक उसे पकड़ कर दूसरे बच्चों के साथ बंद कर देंगे और ना जाने उसका क्या हाल होगा.
कहानियां गढ़ने में माहिर बाप अपने बेटे को एक खेल खेलने के लिए राजी करता है, जिसके तहत उसे दिन भर छिप कर रहना है. इस छिपन-छिपाई खेल का नियम यही है कि बच्चे को किसी को नज़र नहीं आना है. अगर उसने इस खेल को अच्छे से खेल लिया तो जीतने पर उसे एक युद्ध टैंक तोहफे में मिलेगा. फिर एक वक्त ऐसा आता है जब हिटलर की सेना हार की कगार पर पहुंचती है औऱ दूसरे देश की सेना उस पर हमला कर देती है.
सैनिक ज्यूस लोगों को मारने लगते हैं, बाप अपने बेटे को बचाते हुए एक डब्बे नुमा जगह में छिपा देता है और एक गली की तरफ भागता है जहां सैनिक उसे गोली मार देते हैं. बच्चा रात भर डब्बे में बैठा रहता है, सुबह डब्बे की झिरी से उसे एक टैंक नज़र आता है. वो दरवाजा खोलता है तो उसके सामने एक टैंक खड़ा हुआ है जिसे वो अपना तोहफा मानता है.
‘लाइफ इज ब्यूटिफुल’ फिल्म आपको युद्ध की भीषण त्रासदी के स्याह पक्ष से गुज़ारते हुए एक कोमल खुशी की ओर ले जाती है. फिल्म में बुरी तरह परेशान बाप कभी अपना हंसोड़ रवैया नहीं छोड़ता है. फिल्म के अंत में मासूम बच्चे के सामने खड़ा हुआ टैंक जिसे वो अपना तोहफा मान रहा है वो बताता है कि किस तरह हर कुछ जो घट रहा है, उसमें से अच्छा पक्ष कैसे निकल आता है. औऱ जिंदगी बस खूबसूरत होती है.
दरअसल, लगभग तीन हफ्तों से धरने पर बैठे किसानों के आंदोलन से जहां दिल्ली और आस पास का क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित हुआ हैं, वहीं एक पक्ष ऐसा भी है जिसके लिए ये आंदोलन वरदान बन कर आया है. ये वो बच्चे हैं जो नहीं चाहते हैं कि आंदोलन खत्म हो.
टाइम्स ऑफ इंडिया की एक खबर के मुताबिक, सड़को पर रहने वाले कई बच्चे ऐसे हैं जिनके लिए किसान आंदोलन किसी त्यौहार से कम नहीं है. इस आंदोलन की वजह से इन बच्चों को तीनों वक्त का लजीज खाना मिल रहा है. यही नहीं इस कड़कती सर्दी में उन्हें रहने का ठिया भी मिल गया है. इसमें वो बच्चे भी शामिल है, जिनके माता-पिता मज़दूरी करते थे औऱ लॉकडाउन की वजह से उनका काम बंद हो गया.
लॉकडाउन के बाद अनलॉक होने पर तमाम व्यापारिक और दूसकी गतिविधियां तो खुल गई लेकिन स्कूल कॉलेज को सावधानी के तौर पर अभी बंद ही रखा गया है. इस वजह से उन मज़दूरों के बच्चे जो दोपहर के खाने के लिए मिड-डे मील के भरोसे रहते थे, उनके खाने पर बड़ा संकट खड़ा हो गया है.
खबर के मुताबिक कुछ बच्चे इस आंदोलन से बड़े खुश हैं, उनका मानना है कि इसकी वजह से उन्हें सिग्नल पर खड़े होकर भीख नहीं मांगनी पड़ रही है. और तीनों वक्त का बढिया खाना मिल रहा है. एक बच्चा खुश हो कर बताता है कि उसने नाश्ते में आलू,मूली का परांठा खाया, दिन में दाल, कढी, चपाती, चावल खाया औऱ रात में भी बढ़िया सब्जी खाने को मिली. ऐसा खाना तो उसे कभी खाने को नहीं मिला.
छठवीं कक्षा में पढ़ने वाले इस बच्चे के मां बाप भी मज़दूरी करते थे और उनके साथ भी वहीं हुआ जो बाकि पूरे मज़दूर तबके को देखने को मिल रहा है. कितने बच्चे तो ऐसे हैं जो स्कूल बंद हो जाने के बाद कूड़ा बीनने का काम करने लग गए. और ना जाने कितनी कॉलोनियों से इन बच्चों को भगा दिया जाता है.
बीते दिनों ग्लोबल हंगर इंडेक्स की रिपोर्ट जारी की गई थी जिसके मुताबिक भारत की रैंकिंग में सुधार हुआ था लेकिन उसके बावजूद हमसे 93 देश आगे हैं और हमारे पीछे महज़ 13 देश ही हैं.. ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2020 की इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत की रैंकिंग मे सुधार तो आया है लेकिन अब भी भारत कई पड़ोसी देशों से पीछे चल रहा है. इन देशों में नेपाल, श्रीलंका, म्यामांर, पाकिस्तान, बांग्लादेश, इंडोनेशिया जैसे देश शामिल हैं.
भारत 107 देशों की लिस्ट में 94 पायदान पर आया है. सिर्फ 13 देश ही ऐसे हैं जिनसे भारत आगे हैं. ये देश हैं- रवांडा, नाइजीरिया, अफगानिस्तान, लीबिया, मोजाम्बिक और चाड. ग्लोबल हंगर इंडेक्स की रिपोर्ट के मुताबिक 27.2 स्कोर के साथ भारत में भूख के मामले में स्थिति 'गंभीर' है. रिपोर्ट की मानें, तो भारत की करीब 14% जनसंख्या कुपोषण का शिकार है.
2015 से अब तक
2015 में भारत का स्थान 93वां था , वहीं 2016 में 97वें, 2017 में 100वें, 2018 में 103वें और 2019 में भारत 202वें स्थान पर रहा था . इस साल भारत का नंबर 94वे पर है. हालांकि इस साल इस इंडेक्स में कई देशों के नाम शामिल नहीं किए गए हैं. इस लिहाज़ से देखा जाए तो भुखमरी को लेकर भारत में संकट अभी बरकरार है. भारत में बच्चों में कुपोषण की स्थिति भयावह है. ग्लोबल हंगर इंडेक्स किसी देश में कुपोषित बच्चों के अनुपात, पांच साल से कम उम्र वाले बच्चे जिनका वजन या लंबाई उम्र के हिसाब से कम है और पांच साल से कम उम्र वाले बच्चों में मृत्यु दर के आधार पर तैयार की जाती है. ग्लोबल हंगर इंडेक्स में जिन देशों का स्कोर नीचे रहता है उनको ऊंची रैंकिंग मिलती हैं और जिनका स्कोर ज्यादा होता है उन्हें कम रैंकिंग मिलती है. इस हिसाब से भारत को खराब रैंकिंग मिली है.
भारत में एक तरफ हम डिजिटिल इंडिया होने का सपना देख रहे हैं, दूसरी तरफ हंगर इंडेक्स जैसी रिपोर्ट भारत का दूसरा पक्ष बयान करती है. एक तरफ जहां देश का अन्नदाता अपनी मांगो को मनवाने पर अड़ा हुआ है. और इससे देश की व्यवस्था में अफरा तफरी मची हुई है, वहीं वही अन्नदाता उन बच्चों का पेट भी भर रहा है, जिन्हें एक वक्त का खाना नसीब नही है. अब जिन बच्चों के पेट में तीन वक्त का अच्छा भोजन जा रहा है वो आखिर क्यों चाहेंगे कि आंदोलन खत्म हो. दरअसल यहां एक बात समझने वाली है कि किस तरह से जिंदगी अपना रास्ता बनाती है और वो आपको किस तरह किसी घटना को देखने का नज़रिया पेश करती है.
बस इस नजरिये को अगर हम समझ लें तो शायद आंदोलन, मांगे, औऱ तमाम तरह की बातें जिनके राजनीतिक पक्ष में हम उलझे हुए हैं. वो सब हमें बेमानी लगने लगे. जिस तरह से आंदोलन को दूसरी गैर सामाजिक गतिविधियों से जोड़ कर देख रहे हैं. उसकी जगह हम हर मुद्दे को मानवीय पहलू से जोड़ कर देखने लगे और शायद तभी हम किसी भी मुद्दे की जड़ों को समझ पाएं.