हिंदी फिल्म के एक गाने की पंक्ति है ‘सब कुछ लुटा के होश में आए तो क्या किया, दिन में अगर चराग जलाए तो क्या किया’. पानी को लेकर अतिसंवदेनशील रवैया अपनाने वाले शासन में ये आलम है कि उत्तरप्रदेश के 25 फीसद जलश्रोत सूख चुके हैं. और ये बात खुद सरकारी आंकड़े बता रहे हैं.
गंगा बेसिन से संबंधित पांचों राज्यों पर मौजूद एक चौथाई से ज्यादा सरकारी जलश्रोत सूखने की कगार पर हैं. ये बात नदी बेसिन से जुड़े तालाब, झील, टैंक इत्यादि की गणना करने के बाद सामने आई है.
ये गणना भारतीय गुणवत्ता परिषद ने करवाई थी. गुणवत्ता परिषद वाणिज्य एवं उद्योग विभाग के अंतर्गत आने वाली एक स्वायत्त संस्था है. इस गणना का उद्देश्य गंगा बेसिन से जुड़े तमाम जिलों के जलश्रोतों को बेहतर करने और उनका जीर्णोद्धार करना है. गुणवत्ता परिषद को पांच राज्यों के 578 जलश्रोतों का आकलन करना है. ये सर्वेक्षण केंद्र के नमामि गंगे परियोजना के तहत किया जा रहा है. जिसमें उत्तरप्रदेश से सभी 329 जलश्रोतों का आकलन किया जा चुका है. अभी उत्तराखंड, झारखंड, बिहार और बंगाल के जलश्रोतों का आकलन बाकी है.
जलश्रोतों के सूखने की वजह
उत्तरप्रदेश जहां से गंगा का सबसे बड़ा भाग गुजरता है. वहां ही गंगा और उससे जुड़े जलश्रोतों के हाल सबसे खराब हैं. खास बात ये है कि उत्तरप्रदेश ही वो राज्य है जहां गंगा के प्रति आस्था बाकी राज्यों से ज्यादा नज़र आती है. यहां तक कि वर्तमान सरकार के नेतृत्व में गंगा को लेकर लगातार बात की जा रही है. उसके बावजूद सर्वेक्षण के मुताबिक गंगा के हिस्से पर हो रहे अतिक्रमण और कचरे के निपटान के लिए जलश्रोतों का इस्तेमाल करना यहां के जलश्रोतों के सूखने की अहम वजह बना है. अब इसके समाधान के लिए कहा जा रहा है कि इस तरह के जलश्रोतों और तालाबों की देखरेख के लिए अलग से प्राधिकरण बनाया जाना चाहिए.
आंकड़ों में हाल
उत्तरप्रदेश के 329 जलश्रोतों पर किए गए सर्वेक्षण के मुताबिक इनमें से करीब 37 फीसद जलश्रोत पूरी तरह से सूख चुके हैं. जबकि 42 फीसद अभी काम कर रहे हैं, लेकिन उनमें से भी कई की हालत ठीक नहीं है. यहां तक कि पूऱे उत्तरप्रदेश में 21 फीसद जलश्रोत सुपोषित यानि इयोट्रोफिक हैं. सुपोषण का मतलब होता है ऐसे जलाशय जिनमें पोषक तत्वों की मात्रा बहुत ज्यादा हो जाती है और ऑक्सीजन की कमी हो जाती है.
सुपोषण शब्द की उत्पत्ति ग्रीक शब्द ‘यूट्रोफॉस’ से हुआ है जिसका अर्थ है पोषण या समृद्ध. तालाबों के संदर्भ में ये ऐक ऐसी स्थिति होती है जिसमें पानी में घुली ऑक्सीजन की मात्रा कम होती जाती है और शैवाल के बढ़ने की वजह से सामान्य जलजीवन खत्म होने लगता है. जिसे आम भाषा में आप जलकुंभियों या काई से घिरे तालाब के तौर पर समझ सकते हैं.
सर्वेक्षण में एक हैरान करने वाली बात भी सामने आई, सबसे ज्यादा कार्यरत जलश्रोत गाज़ीपुर क्षेत्र में आते हैं ये वही गाजीपुर है, जहां गंगा-गोमती का संगम होता है. और हाल ही में इंडियन जर्नल ऑफ इकोलॉजी में छपे एक शोध के मुताबिक गोमती की 26 सहायक नदियों में से 22 लगभग सूख चुकी है. और इससे भी ज्यादा खतरनाक बात ये है कि जो बाकी बची 4 नदियां हैं, उनमें भी आंशिक रूप से ही बहाव बचा है. ऐसे में गोमती के प्रवाह के बने रहने को लेकर ही खतरा मंडरा रहा है. दरअसल वर्तमान में ये आलम है कि कई तालाब और टैंक महज़ रिवेन्यू रिकॉर्ड में ही मौजूद हैं, ज़मीनी हकीकत ये है कि वो पूरी तरह पट चुके हैं, कई तालाबों पर तो अतिक्रमण करके बिल्डिंगे तक तन चुकी हैं.
तालाबों पर कब्जा देशभर में एक जैसा
हालांकि, गंगा बेसिन ही नहीं पूरे देशभर में तालाबों पर कब्जे की कहानी कोई नई नहीं है. झीलों की नगरी कहलाने वाले भोपाल में जब लोगों की ज़मीन को लेकर भूख बढ़ती गई और वो तालाब की ज़मीन को निगलते गए. उस वक्त भी सरकार से लेकर संस्कृति-संस्कृति चिल्लाने वाले लोगों खामोश बैठे रहे क्योंकि तालाबों को हम अपनी संस्कृति का हिस्सा मान ही नहीं पाए.
भोपाल शहर की ताजुल मसाजिद के पीछ बना मोतिया तालाब जो किसी वक्त मस्जिद के नमाजियों के वजू का स्थान था आज कीचड़ और गंदगी से लबरेज है. इसी तालाब के रकबे को मिलाकर ताजुल मसाजिद किसी वक्त एशिया की सबसे बड़ी मस्जिद कहलाती थी. बाद में इसे मस्जिद अलग कर दिया गया और मस्जिद के भीतर एक छोटा सा वजू का कुंड बना दिया गया. इस मोतिया तालाब के पास खड़े होकर मस्जिद की सीढ़ियों की तरफ देखों तो एक टनल (सुरंग ) सी नज़र आती है. इस टनल में आज गंदगी का अंबार नज़र आता है.
इस मोतिया तालाब में जब पानी लबालब भर जाता था तो वो सड़क के दूसरी तरफ थोड़ा नीचे बने मुंशी हुसैन खां के तालाब और उसके बाद उससे थोड़ा और नीचे बने सिद्दीक़ हसन खां के तालाब को भर देता था. जब यहां पानी ज्यादा हो जाता था तो पीछे बनी एक नहर से वो बेनज़ीर कॉलेज के पार्क को सींच देता था. इस बेहतरीन सीढ़ीदार तालाब का नमूना पूरे विश्व में बिरले देखने को मिलता है. आज इन तालाबों पर लोगों के घर बन गए हैं. जो थोड़ा बहुत तालाब ने खुद को बचा कर रखा हुआ है वो भी सिर्फ लोगों के कचरा डालने का जरिया मात्र रह गया है.
इसी तरह आज जब मध्य रेल्वे से भोपाल से इटारसी जाते हैं तो बीचे में एक जगह आती है, ‘मंडीद्वीप’. ये जगह किसी वक्त भोपाल के बड़े तालाब का टापू या लाखेटा ही था. लाखेटा दरअसल तालाब के बीच बनाया जाने वाला एक टापू होता है जो पानी के वेग को काटने का काम करता है. अब आप इससे अंदाज़ा लगा सकते हैं कि मंडीद्वीप जैसे विशालकाय टापू जिस तालाब के बीच में रहा होगा वो खुद कितना बड़ा रहा होगा. लेकिन लगातार होते अतिक्रमण और ज़मीन की चाहत ने आज बड़े तालाब को छोटा तालाब भी नहीं रहने दिया है.
अनुपम मिश्र जी की बहुचर्चित किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’ में बताया गया है कि कभी लगभग 250 वर्गमील में फैला ये विशाल ताल होशंगशाह के समय तोड़ दिया गया था. आज ये सिकुड़ कर उसका 20 फीसद भी नहीं रह गया है लेकिन फिर भी इसकी गिनती देश के बड़े तालाबों में की जाती है. कभी इसकी विशालता ऐसी थी कि एक वक्त इसके आसपास रहने वाले इस पर घमंड किया करते थे. कहावत थी कि- ताल तो भोपाल ताल बाकि सब तलैया. 11वीं सदी में राजा भोज ने इसे 365 नदियों और नालों से भरकर बनवाया था. जो 250 वर्गमील क्षेत्र तक फैलता था.
यहां गौर करने वाली बात ये है कि एक तरह प्राकृतिक जलश्रोत लगातार सूखते जा रहे हैं, लगातार दोहन से नदियों को हमने समाप्ति की कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है. और दूसरी तरफ सरकार लगातार हर घर, हर नल-जल की घोषणा ही नहीं कर रही है बल्कि इस पर तेजी से काम भी कर रही है. ऐसा नहीं है कि हर घऱ को पानी मिलने का कोई विरोध है लेकिन जिस तरह सरकार की आंख के सामने और कई मामलों में उनके संरक्षण में नदियों, तालाबों और जलश्रोतों का मटियामेट हो रहा है. ऐसे में हर नल में जल लाने की बात एक और दोहन की और ही इशारा करती है. ये ठीक वैसा ही जैसे देश में चुनावी रैलियां और कोरोना एक साथ चल रहा है. एक तरफ दो गज दूरी, मास्क है ज़रूरी कहा जा रहा है. दूसरी तरफ चुनाव में सपोर्ट मांगा जा रहा है. एक तरफ कड़ाई और दूसरी तरफ ढिलाई बरती जा रही है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)
पर्यावरण और इससे जुड़े मुद्दों पर लेखन. गंगा के पर्यावरण पर 'दर दर गंगे' किताब प्रकाशित।
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