करीब डेढ़ महीने पहले एक ऐसा ही सर्वे किया गया था. उस वक्त कहा गया था कि दिल्ली में 65 फीसदी घरों में जहरीली हवा से कोई न कोई बीमार है. दिल्ली में अब 85 फीसदी लोग कह रहे हैं कि उनके घरों में कोई न कोई बीमार है.
Source: News18Hindi Last updated on: November 13, 2020, 11:49 am IST
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देश की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में वायु गुणवत्ता (AQI) धीरे-धीरे बेहद खराब होती जा रही है.
नई दिल्ली. अपनी मेडिकल की पढ़ाई के अंतिम साल में डॉक्टरों की एक टीम को भारत के दूरदराज इलाकों में एक साल प्रैक्टिस करने का आदेश होता है. शहरों में पले बढ़े डॉक्टर का सहूलियतों को छोड़ कर गांव और दूरदराज के इलाकों मे जाने का मन नहीं है, लेकिन डिग्री पूरी करनी है तो जाना ही होगा. सारे युवा डॉक्टर तय करते हैं कि इस काम को पिकनिक की तरह लेते हैं और एक साल गुजार कर आ जाएंगे. इस तरह युवा डॉक्टर की टीम एक गांव में पहुंचती है. वहां जब वो हॉस्पिटल में पहुंचते हैं तो देखते हैं कि एक आदमी ने जहर खा लिया है. वह बुरी तरह तड़प रहा होता है. युवा डॉक्टर उसके पेट से जहर को निकालने के लिए यंत्रों को ढूंढ रहे होते हैं. वहां पर कुछ भी नहीं है. आदमी की हालत खराब होती जा रही है.
तभी वहां पर एक सीनियर डॉक्टर आता है. उस तड़पते हुए आदमी को देखता है. शांत होकर कहता है कि इसने भी जहर खा लिया है. मरने दो साले को. युवा डॉक्टर हैरान हैं. सीनियर डॉक्टर बड़बड़ कर रहा है और साथ ही कुछ तैयारी भी करने में लगा हुआ है. थोड़ी देर बाद वो एक लंबा सा पाइप लेता है और जहर खाने वाले आदमी के गले में डाल देता है और दूसरे हिस्से को मुंह में लेकर उल्टी सांस खींचता है और उसके अंदर का जहर निकाल कर बाहर फेंकता जाता है. युवा डॉक्टर्स में से कईयों को यह देख कर उल्टी भी हो जाती है. सीनियर डॉक्टर जब पूरा जहर निकाल चुका होता है. तो वो युवा डॉक्टर से मुखातिब होते हुए कहता है. बस यह फर्क समझ लो, डॉक्टर बन जाओगे.
समर 2000 फिल्म का ये दृश्य उस अंतर को बताता है, जिससे हमारा देश जूझ रहा है और किसी समस्या का समधान ढूंढ रहा है. इस वक्त दिल्ली एनसीआर में प्रदूषण की हालत हेल्थ इमरजेंसी की कगार पर आ खड़ी हुई है और ऐसा पिछले कई सालों से हर साल हो रहा है. हर बार इस वक्त दिल्ली सरकार पराली पर दोष मढ़ने लग जाती है, हर साल केंद्र सरकार चिंता जाहिर कर देती है. हर साल पड़ोसी राज्य पराली की बात से इंकार कर देते हैं. फिर केंद्र सरकार के मंत्री पराली से होने वाले प्रदूषण (Pollution) का प्रतिशत बता कर यह जाहिर करते हैं कि पराली प्रदूषण की वजह नहीं है. दूसरी तरफ तमाम प्रदूषण की जानकारी देने वाली संस्थाएं पराली जलाने को वजह बताते हैं. इस तरह तू दोषी. तू दोषी.. करते करते हालात बिगड़ते जाते हैं. जबकि हकीकत यह है कि प्रदूषण के पीछे कई सारी वजह एक साथ मिलकर काम करती हैं और सबसे अहम बात यह है कि जहां एक तरफ केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड पूरी तरह साधन संपन्न है वहीं राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड इतने अभावों से गुजर रहा है कि उनके पास प्रदूषण को मापने के यंत्रों को छोड़िये बुनियादी सुविधा तक नहीं है. मजेदार बात यह है कि इसके बावजदू राज्य के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड उस अदाकार की तरह है, जिनके लिए निर्देशन और लेखन वो कर रहा है जो शायद जमीनी हकीकत से वाबस्ता ही नहीं है.
राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में फील्ड ऑफिसर को हर तरह के काम करने होते हैं. उसे जहां इतने विशाल इंफ्रास्ट्रक्चर की जांच करनी होती है, वहीं उसे जागरुकता कार्यक्रम भी चलाने होते हैं जिसमें किसानों को पराली जलाने (Stubble Burning) से होने वाले नुकसान के बारे में बताना भी होता है. इतने सारे कामों का बोझ जब किसी एक इंसान पर होता है तो स्वाभाविक तौर पर सभी कामों पर इसका असर पड़ता है और इस वजह से वो परिणाम हासिल नहीं होते है जिसकी अपेक्षा की जाती है. इस वजह से प्रदूषण और स्मॉग (Smog) एक पुरानी बीमारी बनता जा रहा है.
लेकिन राजनीतिकरण में उलझा मामला इन बातों पर ध्यान ही नहीं देता है. आज राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में स्टाफ की भारी कमी है. हरियाणा का प्रदूषण बोर्ड ही करीब 70 फीसद कम स्टाफ के साथ काम करने को मजबूर है. इसका मतलब ये है कि महज एक अधिकारी बगैर किसी तकनीकि सहायक के पूरे जिले के प्रदूषण से जुड़ी दिक्कतों को देख रहा है. इसके साथ ही उसे केंद्र और राष्ट्रीय हरित ब्यूरो के लिए पेपर वर्क भी करना है.
इससे बड़ी बात ये है कि राज्य में मौजूद इन अधिकारियों को कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं प्राप्त है. वहीं केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पास विशेषज्ञ और बेहतरीन लैबोरेटरी मौजूद हैं, जहां हर अलग क्षेत्र के लिए अलग वैज्ञानिकों को रखा गया है यानि बायोमेडिकल वेस्ट या किसी दूसरे नुकसानदायक वेस्ट पर काम करने वाला वैज्ञानिक अपने क्षेत्र के काम पर ही ध्यान देता है. दूसरी तरफ राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को पास इस तरह का कोई विभाजित तंत्र नहीं है. यहां पर तो एक ही अधिकारी है जो पीर, बावर्ची, भिश्ती, मेहतर सभी की भूमिका निभा रहा है.
इसी तरह राज्य में फील्ड में काम करने वाले अधिकारियों को जरूरी कानून का ज्ञान नहीं है इसलिए वो ये समझ ही नहीं पाते है कि प्रदूषण फैलाने वालों पर क्या कार्यवाही करनी है. कानून अधिकारी तो राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुख्य कार्यालय में बैठते हैं. इस तरह से उनके साथ ठीक तरह से संचार के अभाव में जरूरी कानूनी कार्यवाही नहीं हो पाती है. खास बात यह है कि इंजीनियर जो फील्ड में काम कर रहे हैं उनके पास जरूरी कानूनी समझ नहीं है. और उन्हें कानूनी काम करना पड़ रहा है, जिसका नतीजा ये होता है कि सही दस्तावेजीकरण के अभाव में कोर्ट में बैठे बाबू केस ही फाइल नहीं करते हैं. और मामला बिगड़ता जाता है.
इसके अलावा पैसों का अभाव ये बताता है कि राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड सरकारों के लिए कितना जरूरी है. इस तरह से हम तमाम तरह से अभावों से घिरे, काम के बोझ से दबे, कई तरह के कामों को संभालने वालों से प्रदूषण की सटीक जानकारी मांग रहे हैं और केंद्र में बैठा बोर्ड सिर्फ उन पर दोष मढ़ रहा है. जबकि विकेन्द्रीकरण का मतलब ही यही होता है कि हम लोकल बॉडी को मजबूती प्रदान करें. प्रदूषण के मामले में ये बात पूरी तरह से नाकाम नजर आती है.
जिसका नतीजा यह है कि एक सर्वे के मुताबिक दिल्ली एनसीआर में 73 फीसदी घरों के लोगों का मानना है कि उनके यहां कोई न कोई बीमार है. करीब डेढ़ महीने पहले एक ऐसा ही सर्वे किया गया था. उस वक्त कहा गया था कि 65 फीसदी घरों में जहरीली हवा से कोई न कोई बीमार है. यानी हाल के दिनों में जहरीली हवा का असर काफी ज्यादा बढ़ गया है. दिल्ली में अब 85 फीसदी लोग कह रहे हैं कि उनके घरों में कोई न कोई बीमार है.
यह बीमारी लगातार बढ़ती जाएगी और हर साल दोष मढ़ने की रवायत भी चलती रहेगी. इस बीच दूरदराज में बैठा कोई अधिकारी अभावों से जूझता हुआ आंकड़ों की बाजीगरी सीख रहा होगा.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi उत्तरदायी नहीं है.)