दिलीप कुमार साहब की आत्मकथा की शुरूआत इन्हीं पंक्तियों से होती है. जब उनके सफर पर नज़र डालते हैं और उनके अभिनय के सोपानों को ऊपर जाते देखते हैं तो लगता है कि वाकई में उनका फसाना कहां से छेड़ा जाए और कहां तमाम किया जाए. ‘मैने जानते बूझते हुए कभी खुद को दर्शकों के सामने ज़रूरत से ज्यादा प्रस्तुत नहीं किया, जब मैं पीछे मुड़ कर देखता हूं, तो पाता हूं कि जहां दूसरे कलाकार एक साथ दो-तीन फिल्मों में काम करने में व्यस्त हैं.
वहीं, एक वक्त में एक फिल्म में काम करना काफी जोखिम भरा था, लेकिन मैं अपने फैसले पर अडिग रहा और एक बार में एक ही फिल्म में काम किया. इससे बस मेरा उस विषय पर आत्मविश्वास बना रहता था, जिसे मैंने चुना है और मैं अपनी पूरी मेहनत और लगन उसमें लगा पाता था ’. अपनी आत्मकथा ‘द सबस्टेंस एंड द शैडो’ में जब दिलीप कुमार उक्त पंक्तियां लिखते हैं, तो साफ हो जाता है कि आखिर क्यों 50 साल से ज्यादा लंबे फिल्मी सफर में उन्होंनें महज़ 65 फिल्में की.
अपने फिल्मों के चयन को लेकर वो बताते हैं, कि उन्हें किसी ने सिखाया नहीं, लेकिन एक प्रबंधन की किताब में ये पढ़ने के बाद कि अच्छे प्रबंधन का बुनियादी सिद्धांत यही होता है कि आप अंतिम उत्पाद की गुणवत्ता को सुनिश्चित करें. वे इन नतीजे पर पहुंचे कि फिल्म को भी एक उत्पाद की तरह लिया जाना चाहिए और सभी को मिलकर एक बेहतरीन उत्पाद बनाना होता है.
बेहतरीन जिंदादिल और हास्य अभिनेता थे ‘ट्रैजेडी किंग’
हिंदी सिनेमा ने जिस अभिनेता को ट्रैजेडी किंग के खिताब से नवाज़ा, उसके अंदर एक बेहतरीन जिंदादिल और हास्य अभिनेता छिपा हुआ था. जिसके बारे में शायद हमारा फिल्मी जगत ठीक से जान ही नहीं पाया. या यूं कहिए कि हिंदी सिनेमा जहां अभिनेता को अक्सर टाइपकास्ट कर दिया जाता है, उसी की वजह से दिलीप कुमार साहब का हास्य रूप दर्शकों के सामने कभी ठीक से उभऱ कर नहीं आ पाया.
यही नहीं, अपनी आत्मकथा में वे बताते हैं कि किस तरह 20-30 साल की उम्र में जब उन पर ट्रेजेडी किंग का ठप्पा लग गया और इस तरह की त्रासदी से भरी फिल्म करने से उनके मनोविज्ञान पर भी असर पड़ने लगा, तो उन्हें एक मनोचिकित्सक ने सलाह दी कि उन्हें कोई दूसरे रोल करने की कोशिश करना चाहिए. इस तरह उन्होंने आज़ाद करने का मन बनाया.
के. आसिफ ने दिलीप कुमार को उकसाते हुए कहा था ‘करके दिखाइए’
दिलीप साहब बताते हैं कि किस तरह जब उन्होंने कॉमेडी में हाथ आज़माने का मन बनाया. उन्होंने एस.मुखर्जी को बताया कि तमिल निर्माता-निर्देशक श्रीरामुलू नायडू एक तमिल फिल्म का हिंदी रीमेक बनाना चाहते हैं. जब वो ये बात कर रहे थे, उस वक्त के. आसिफ (मुगल-ए-आज़म के निर्देशक) भी वहीं मौजूद थे. उन्होंने जब ये बात सुनी, तो उन्होंने दिलीप साहब को उकसाते हुए कहा कि ‘करके दिखाइए’. जब दिलीप साहब ने कुछ किया तो मुखर्जी जी ने कहा कि अभिनेता का काम अभिनय करना होता है, इससे कोई मतलब नहीं है कि वो ट्रेजेडी कर रहा या कॉमेडी.
दिलीप साहब कहते हैं कि वो जानते थे कि कॉमेडी करना किसी भी तरह के अभिनय से ज्यादा कठिन होता है, इसके लिए एक विशेष टाइमिंग की अहमियत होती है. जिस हुनर को बहुत कुशलता के साथ पैदा करना होता है. लेकिन, जब उनके सभी दोस्त उन्हें ट्रेजेडी पर टिके रहने को कह रहे थे, उस वक्त आज़ाद फिल्म में उनके सह-कलाकार प्राण ने उनसे कहा था कि वो इस फिल्म से लोगों को हैरान करने वाले हैं. आगे सभी जानते हैं कि आज़ाद कितनी बड़ी हिट रही थी.
मसलन, उनकी एक और कॉमेडी फिल्म कोहिनूर जिसमें उनके साथ ट्रेजेडी क्वीन मीना कुमारी थी. दोनों को एक हास्य फिल्म में अभिनय करना था. इस फिल्म का एक गाना है, ‘ज़रा मन की किवड़िया खोल, सैंया तेरे द्वारे खड़े’ इस गाने में जब दिलीप साहब की एंट्री होती है, तो एक जगह पंक्ति आती है ‘बिरहा की रैना’, यहां दूसरी बार में जब वो बीट के साथ अपना पैर पटकते हैं, वो गाने की कोरियोग्राफी को उम्दा बना देता है.
इसी तरह ‘जोगी का रूप लिया प्रीतम ने तेरे’ पर वो जिस तरह से हल्के से अपने कंधों को उचकाते हैं वो गाने को एक अलग लेवल पर लेकर चला जाता है. खास बात ये है कि इसके लिए उन्हें कहा नहीं गया था, ये उन्होंने खुद किया था.
दिलीप कुमार और प्राण की दोस्ती
अपनी किताब मे वो बताते हैं कि आगे उनकी प्राण से दोस्ती काफी गहरी हो गई थी और जब वो उनके साथ राम और श्याम कर रहे थे, तो उसमें एक दृश्य में उन्हें प्राण जो फिल्म में एक क्रूर खलनायक बने हैं, उन्हें उनके ही तरीके से सबक सिखाते हैं. केक की क्रीम को उनके चेहरे पर लगाना होता है. इस दृश्य के लिए सभी तैयार थे, सबको लग रहा था कि प्राण क्रीम लगाने के बाद हैरान होने का भाव देंगे, लेकिन हुआ इसका उल्टा, प्राण खिलखिला कर हंसने लगे. सब लोग हैरान थे. तब प्राण ने दिलीप साहब से कहा ‘लाले मुझे गुदगुदी बहुत लगती है’.
हिंदी सिनेमा को मेथड एक्टिंग क्या होती है, ये बताने वाले दिलीप साहब ही थे. जब उनका फिल्मों में आगाज़ हुआ, उससे पहले तक फिल्मों में रंगमंच का असर साफ झलकता था और अदाकारी में भी पारसी थियेटर की झलक नज़र आती थी. लेकिन, दिलीप साहब ने पर्दे पर आकर सब बदल दिया. आज भले ही कोई स्वीकार करे या नहीं करे, लेकिन ये बात स्पष्ट है कि दिलीप साहब के बाद फिल्मों में जितने बड़े स्टार कलाकार हुए, सभी की अदाकारी में उनकी झलक नज़र आती है. दरअसल दिलीप कुमार अभिनय का वो संस्थान थे जिससे पढ़ कर ना जाने कितने दिग्गज कलाकार स्टार बने.
जब दिलीप कुमार ने खोले अपनी सफललता के राज
दिलीप साहब कहते थे ‘मैं हमेंशा इस बात को लेकर सचेत रहा कि एक अभिनेता को अपनी इंद्रियों को कितना मजबूत करने की ज़रूरत होती है. हमारा दिमाग अभिनय करते वक्त अक्सर वास्तविकता और काल्पनिक जगत के बीच उलझन के झूले में झूलता रहता है. दिमाग आपको अक्सर कहता रहता है कि ये क्या बकवास है.. ये आपका अपनी इंद्रियों पर संतुलन ही है, जो आपकी किसी भी स्क्रिप्ट से वो लेने में मदद करता है, जो आप उससे चाहते हैं. इस तरह आप उस किरदार को भरोसे के साथ, पूरी शिद्दत के साथ निभा पाते हैं और सच्चाई के करीब ला पाते हैं. जबकि आप जानते हैं कि ये महज़ एक कपोल कल्पना है. ’
दिलीप साहब हमारे बीच नहीं रहे लेकिन कहते हैं ना कलाकार कहीं नहीं जाते. वो यहीं रहते हैं हमारे ज़हन में, हमारे मन में. किरदार हमेशा जिंदा रहते हैं. वैसे भी दिलीप साहब की किस्से और उनके अभिनय की बारीकी इतनी विस्तार लिए हुए है कि इस फसाने को कहां से छेड़ें कहां तमाम करें.. ये तय कर पाना मुश्किल है.
पर्यावरण और इससे जुड़े मुद्दों पर लेखन. गंगा के पर्यावरण पर 'दर दर गंगे' किताब प्रकाशित।
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