एक लड़का गांव में तांगा चलाता है. तांगे में सवारियों को बैठाकर इधर उधर पहुंचाना ही है उसका काम. सब गांव वाले उसे बहुत प्यार भी करते हैं. सारा गांव खुशी खुशी रहता है और लड़के का काम भी अच्छे से चल रहा है. तभी गांव का सेठ एक मोटरगाड़ी (बस) खरीद लाता है. उसका कहना है कि तांगे से गाड़ी बेहतर है. लड़का अपने काम को और और गांव के दूसरे किसानों और तांगे वालों के काम को बचाना चाहता है. इस जद्दोज़हद में वो गाड़ी वाले को चुनौती देता है कि एक रेस लगाई जाए. उससे तय हो जाएगा कि क्या बेहतर है गाड़ी या तांगा. सारे गांव वाले जानते हैं कि तांगा गाड़ी से नहीं जीत सकता है. फिर भी वो इस चुनौती को स्वीकार कर लेता है. फिर उसे जीत दिलाने के लिए सारे गांव वाले जुटते हैं और मिलकर एक पुल तैयार करते हैं. जो एक तरह का शॉर्टकट यानि छोटा रास्ता है. आखिर में रेस होती है और आदमी बनाम मशीन में जीत आदमी की होती है.
दरअसल, इस जीत के पीछे वो एकजुटता थी. जो एक दूसरे के प्रति इंसानी संवेदना की वजह से पैदा होती है. 1957 में जब बी.आर.चौपड़ा ने ‘नया दौर’ नाम की ये फिल्म बनाई और साहिर लुधियानवी ने फिल्म की कहानी को सार्थक बनाने के लिए साथी हाथ बढ़ाना, एक अकेला थक जाएगा मिलकर हाथ बंटाना, लिखा, तब शायद वो ये बात नहीं जानते होंगे कि जिस एकजुटता की कहानी वो दर्शकों को दिखाने जा रहे हैं, उस कहानी की इबारत 50 साल बाद बांदा की धरती पर लिखी जाएगी. इस कहानी का पहला हर्फ बांदा के गांव जखनी की सूखी धरती को किसानों ने अपने पसीने से भिगो कर लिखा. और वो हर्फ था ’पानी’.
21 साल पहले पानी और खेत बचाने की कहानी जो जखनी से शुरू हुई थी. वो थमी नहीं है बल्कि लगातार बढ़ रही है. इस साल 22 मार्च को बुंदेलखंड के किसानों ने जल योद्धा उमा शंकर पांडे के साथ अगले 5 वर्षों की तैयारी कर ली है. इसमें राज्य समाज सरकार को साथ लेकर जखनी की तर्ज पर 100 गांव को जल ग्राम बनाया जाएगा. इसमें 60 गांव बुंदेलखंड के होंगे, बुंदेलखंड के मध्य प्रदेश उत्तर प्रदेश के 15 जिलों के 30 गांव को भारत सरकार ने जल क्रांति के अंतर्गत जल ग्राम के लिए चुना है. 30 गांव समुदाय चुनेगा. बुंदेलखंड के प्रत्येक जिले से 2 गांवों का चयन किया जाएगा. इन गांव की घोषणा विश्व जल दिवस 22 मार्च को की जाएगी.
वहां बीते दो दशक के प्रयासों का नतीजा है कि पिछले कुछ सालों में जलस्तर में उल्लेखनीय बढ़ोतरी देखने को मिली. एक रिपोर्ट के मुताबिक बीते साल यहां के जलस्तर में 1 मीटर 34 सेंटीमीटर की बढ़ोतरी देखने को मिली हैं. यही नहीं उमाशंकर पांडे और उनकी संस्था को ‘खेत पर मेड़, मेड़ पर पेड़’ संकल्पना के साथ जखनी गांव को जलग्राम बनाने के लिए जल शक्ति मंत्रालय ने वॉटर डाइजेस्ट अवार्ड से भी नवाज़ा. नीति आयोग ने कहा कि जल सरंक्षण के क्षेत्र मे जखनी मॉडल को देश के विभिन्न इलाकों में अपनाए जाने की अनुशंसा की.
एक से एक मिले तो कतरा बन जाता है दरिया
आज से करीब 21 साल पहले गांव के कुछ जागरुक लोगों ने सर्वोदय आदर्श जल ग्राम स्वराज अभियान समीति का गठन किया। इसके संयोजक गांव के ही एक समाजसेवी उमाशंकर पांडेय थे। समिति ने लोगों को पानी बचाने को लेकर जागरुक करने की शुरूआत की, साथ ही गांव के घरों की नालियों से बहकर बर्बाद होते पानी को नालियां बनाकर उसका रुख खेतों की तरफ कर दिया गया। ये पानी जब खेतों में पहुंचा तो सिंचाई के लिए उपयोग किया जाने लगा. खेतों पर मेड़ बना दी गई तो पानी वहीं ठहर गया. लगातार 21 साल तक कतरा-कतरा जोड़ कर जखनी गांव के लोगों ने गांव की जमीन के नीचे पानी को लबालब कर दिया.
फावड़ा, खुरपी, सब्बल हमारा अपना है
उमाशंकर कहते हैं कि फावड़ा, खुरपी, सब्बल हमारा अपना है, हाथ हमारे अपने हैं तो हम किसी से कुछ मांगे क्यों ? मेहनत जब अपनी फितरत हे तो मेहनत से क्या डरना है, पहले किसी और के लिए करते थे, बस अब खुद के लिए करना है. इस सोच के साथ किसी भी तरह की सरकारी-गैरसरकारी मदद मांगे बगैर, दृढ संकल्पित उमाशंकर पांडे के नेतृत्व मे सारे गांव ने अपने लिए नहीं, अपने गांव के लिए, अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए सामुदायिक आधार पर फावडे, डलिया, टोकरा उठाए और परंपरागत तरीके से, बिना किसी आधुनिक मशीनी तकनीकी के पानी रोकने का बंदोबस्त किया. गांव का कम पढ़ा लिखा किसान ज्यादा विज्ञान तो नहीं जानता था, बस इतना जानता था कि पानी बनाया भी नहीं जा सकता, उगाया भी नहीं जा सकता. लेकिन प्रकृति द्वारा दिए पानी को रोककर पानी की फसल को बोया जा सकता है, संरक्षण से पानी बचाया जा सकता है. पूरे गांव ने खेतों की मेड़बंदी की और पानी की फसल बोने का पुरखों का यह मन्त्र सिद्ध किया । खेत पर मेड मेड पर पेड़.
मेड़ के बाद तालाब
विनोबा भावे से प्रेरित और अनुपम मिश्र के सानिद्धय में जिंदगी के अहम साल गुज़ारने वाले उमाशंकर पांडे ने जल प्रबंधन को ठीक से समझा था. अनुपम जी की बदौलत उन्हें तालाबों की अहमियत का भी पता था. उन्होंने गांव के लोगों को एकत्रित करके तालाबों को पुनर्जीवित करवाने का कार्य किया. इसके लिए खेतों की मेड़ से निकलने वाले अतिरिक्त पानी और गांव के बचे पानी का रुख तालाबों की ओर मोड़ दिया गया. इस तरह जहां खेत का पानी खेत में रहा, वहीं गांव का पानी गांव में रहा. जखनी की यह पहल, जल प्रबंधन का अनूठा नमूना थी. इसलिए नीति आयोग से लेकर जल मंत्रालय ने जहां जखनी को जलग्राम घोषित किया वहीं अपनी नीतियों में भी गांव के मॉडल को आदर्श बनाया.
इस जलप्रबंधन के तहत सबसे पहले बारिश का पानी जहां गिरा, उसे वहीं रोका गया, खेतों पर बनी ऊंची मेड़ के वजह से खेत में पानी भरा और ज़मीन ने जी भर के पानी पिया. जब खेतों का पेट भरा तो पानी निकला और उसने तालाबों को लबालब किया. इस तरह तालाब भरने लगे.
ये प्रक्रिया स्वच्छ भारत अभियान के जोश में झाड़ू लगाने के लिए फोटो खिंचाने जैसी नहीं थी, बल्कि सतत प्रक्रिया थी. जिसकी बदौलत साल दर साल किए जाने वाले इस प्रयास से गांव के सभी 6 तालाब लबालब हो गए. ज़मीन को भरपूर पानी मिलने, तालाब भरने का नतीजा ये रहा कि गांव के 30 कुएं भी उफान पर आ गए. इस तरह जिस ज़मीन के भीतर कभी 150 फिट पर भी पानी नहीं मिल पाता था. वहां अब 15-20 फीट पर पानी आ चुका है.
सूखी ज़मीन से लहलहाते खेत तक का सफर
21 सालों की मेहनत का नतीजा है कि कि जखनी के किसानों ने पिछले साल 21000 क्विंटल बासमती धान, 13000 कुंटल गेंहू का उत्पादन किया. यहां पानी से जो समृद्धि आई है, उसे इस तरह समझ सकते हैं कि 4 बीघे जोत वाले किसान के पास भी खुद का ट्रेक्टर है. सामुदायिक आधार पर चला यह सिलसिला यहीं नहीं रुका गल्ला मंडियों में जखनी के किसानों के धान को अधिक मूल्य और सम्मान मिला तो सब्जी मंडी में भिंडी, बेंगन, प्याज, टमाटर की सर्वाधिक मांग होने लगी, जिससे आसपास के लगभग 50 गांवों के सैकड़ों किसानों ने भी जखनी की तरह खेती करने का संकल्प लिया और उन्होंने हजारों बीघा जमीन की अपने संसाधनों से मेडबंद कर दी और यहीं से जलग्राम जखनी की जलक्रांति सूखे बुंदेलखंड में फैलने लगी.
पुरखों की सीख को अपना कर खेत पर पेड़, पेड़ पर मेड़ लगाकर जखनी के किसानों ने पेड़ पर मेहनत का फल उगा लिया है. और ये जल का फल है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)
पर्यावरण और इससे जुड़े मुद्दों पर लेखन. गंगा के पर्यावरण पर 'दर दर गंगे' किताब प्रकाशित।
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