आज भले ही नई हिंदी की बात हो रही है मगर हिंदी तो नई चाल में 1873 में ढली थी. भारतेंदु हरिशचंद्र ने लिखा था कि हिंदी नई चाल में ढली और हिंदी को इस चाल में ढालने के लिए भारतेंदु को मात्र दस वर्ष का समय मिला. इन दस वर्षों में हिंदी की सेवा में भारतेंदु हरिशचंद्र ने वो रच दिया जो इतिहास बन गया. आलोचकों की नजर में भाषा के बाद भारतेंदु का सबसे बड़ा योगदान नाटक और रंगमंच के क्षेत्र में रहा. उन्होंने पहली बार हिंदी में मौलिक नाटकों की रचना की. उन्हें हिंदी नाटक का युग प्रवर्त्तक करार दिया गया.
भारतेंदु हरिशचंद्र का जन्म 9 सितंबर 1850 बनारस के एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था. 6 जनवरी 1885 को उनका देहांत हो गया. उनका मूल नाम ‘हरिश्चंद्र’ था और ‘भारतेंदु’ उनकी उपाधि थी. वे अत्यंत धनाढ्य परिवार से थे मगर साहित्य की सेवा और गरीबों के प्रति उदारता के कारण सबकुछ लुटा दिया. किसी को दु:खी और परेशान देखकर उसे तन के वस्त्र तक उतारकर दे देना भारतेंदु का सामान्य व्यवहार था. धनहीन होने पर उन्हें सबसे ज्यादा अफसोस इसी बात का होता था कि वह निर्धनों की सहायता नहीं कर पा रहे थे.
भारतेंदु के दान की बहुत-सी कहानियां प्रसिद्ध हैं. सर्दियों की रात में बाहर घूमते हुए उन्हें एक दरिद्र सोता हुआ मिला. उसे सर्दी से ठिठुरता देखकर उन्होंने उसे अपना दुशाला ओढ़ा दिया. एक बार नीचे फकीर को ओढना मांगते देखकर ऊपर से ही उसे दुशाला भेंट किया. किसी गरीब को फूलों का गजरा उतारकर उसमें पांच का नोट छिपाकर दे दिया. किसी को बेटी ब्याहने के लिए पेटी में दो सौ रुपये और साड़ियां भेंट की. कुछ न रहने पर एक निर्धन को लड़कियां ब्याहने के लिए उन्होंने हाथ की अंगूठी उतारकर दे दी और अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए कहा, “मेरे यहां धन का अभाव है; यह अंगूठी आप ही के भाग्य से बची रह गई थी, इसे लीजिए.”
यह भी सर्वविदित है कि पुस्तकें और पत्रिकाएं छापने के लिए उन्होंने अपना खजाना खोल दिया. पुस्तकों के लिए पुरस्कार देने, दूसरों को पुस्तकें देने, साहित्यकारों की आर्थिक सहायता करने में उन्होंने कितना खर्च किया इसका कोई हिसाब नहीं है.
प्रख्यात आलोचक रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘भारतेंदु हरिश्चंद्र और हिंदी नवजागरण की समस्याएं’ में भारतेंदु के जीवन के कई अनजाने पहलुओं का उल्लेख किया है. इसमें भारतेंदु की पत्रिका में प्रकाशित एक विज्ञापन में हुई मात्रा की त्रुटि पर आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी को मिले व्यंग्य प्रत्युत्तर का भी जिक्र है. महावीरप्रसाद द्विवेदी ने भारतेंदु हरिशचंद्र द्वारा लिखे एक विज्ञापन में ‘का’ की जगह ‘को’ लिख दिए जाने की भूल दिखाते हुए कहा था कि संभव है, उन्होंने वाक्य ठीक लिखा हो, लेकिन छापे वालों की असावधानी से त्रुटियां रह गई हों.
इस पर बालमुकुंद गुप्त ने तीखा व्यंग्य लिखा. ‘भाषा की अनस्थिरता’ नाम के अपने ऐतिहासिक निबंध में बालमुकुंद गुप्त ने लिखा था, “एक तो काशी ऐसा स्थान है, जिसकी विद्या के हिसाब से कुछ गिनती ही नहीं. जहां न कोई संस्कृत जानता है न संस्कृत का व्याकरण, हिंदी पढ़ा-लिखा तो वहां होगा ही कौन, क्योंकि हिन्दी वहां की मातृ भाषा है. फिर हरिश्चंद्र जैसा विद्या-शून्य आदमी, जिसने लाखों रुपए हिंदी के लिए स्वाहा कर डाले और पचासों ग्रंथ हिन्दी के रच डाले, भला वह क्या एक पूरे पौने दो वाक्य का विज्ञापन शुद्ध लिख सकता था? कभी नहीं, तीन काल में नहीं! छापे वाले कभी नहीं भूले, हरिश्चंद्र ही भूला; क्योंकि वह व्याकरण नहीं जानता था. न तो उसे कर्म के चिह्न ‘को’ का विचार था, न वह सर्वनाम की जरूरत की खबर रखता था. क्या अच्छा होता कि द्विवेदीजी का दो दर्जन साल पहले जन्म होता और हरिश्चंद्र को आपके शिष्यों में नाम लिखाने तथा कुछ व्याकरण सीखने का अवसर मिल जाता! अथवा यही होता कि दो दर्जन वर्ष हरिश्चंद्र और जीता, जिससे द्विवेदीजी से व्याकरण सीख लेने का अवसर उसे मिल जाता.”
रामविलास शर्मा लिखते हैं बालमुकुंद गुप्त ने भारतेन्दु के सम्मान की रक्षा के लिए यूं व्यंग्णास्त्र उठाया है मानो किसी ने पवित्र देवमंदिर को भ्रष्ट कर दिया हो या उनके गुरु को ही गाली दी हो.
मात्र 34 वर्ष 4 महीने की छोटी सी आयु में भारतेंदु ने भाषा, साहित्य और समाज में व्यापक परिवर्तन कर दिया. उनके लिखे और अनुवादित किए हुए नाटक साढ़े आठ सौ पृष्ठों में छपे हैं. साढ़े आठ सौ से कुछ ऊपर पृष्ठों में उनकी कविताएं छपी हैं. उनके लेख कई हजार पन्ने घेरेंगे. उनके लिखे हुए पत्रों की कोई गणना नहीं है. इतने परिमाण में साहित्य रचना परिश्रम करने की अद्भुत क्षमता प्रकट करता है. कहा जाता है कि भारतेंदु का पुस्तकालय एक लाख रुपये में बिक सकता था, लेकिन उन्होंने बेचने से इंकार कर दिया था. उन्होंने इस पुस्तकालय की तो पुस्तकें पड़ी ही होंगी? इसके सिवा जो पढ़ा हो, सो थोड़ा.
भारतेंदु ने अपने देहांत से पहले नवंबर 1884 में बलिया के ददरी मेले में आर्य देशोपकारिणी सभा में एक भाषण दिया था. यह नवोदिता हरिश्चंद्र चंद्रिका में दिसंबर 1884 के अंक में छपा था. इस भाषण का विषय था-भारत वर्षोन्नति कैसे हो सकती है. उस समय अंग्रेजों का शासन था, और आजादी की कोई संभावना सामने नहीं दिखती थी. देश की उन्नति कैसे हो, इसके बारे में भारतेंदु ने देशवासियों को सुझाव दिए थे. इस भाषण के केंद्र में यह चिंता थी कि देश की उन्नति कैसे हो सकती है.
चर्चित नाटक ‘भारत दुर्दशा’ में भारतेंदु ने अंग्रेजी राज की जितनी तीखी आलोचना की है उतनी ही तीखी आलोचना भारतीय जनता की भी की है. इसमें एक ओर अंग्रेजी शासन और शोषण के दृश्य हैं तो दूसरी ओर भारतीय जनता के आलस्य, अंधविश्वास, भाग्यवाद और जातिवाद की तस्वीरें भी है. इन दृश्यों में भारत की उन्नति के बीज छिपे हैं. बलिया वाले भाषण में भी भारतेंदु ने भारत की गुलामी के कारण बताए हैं :
लगता है 138 सालों बाद आज भी बहुत कुछ नहीं बदला है. मानो यह भाषण आज के लिए ही दिया गया है. अब यह प्रश्न होगा कि उन्नति और सुधार कैसे होगा? इसके भी सूत्र उसी भाषण में हैं :
(दो दशक से ज्यादा समय से मीडिया में सक्रिय हैं. समसामयिक विषयों, विशेषकर स्वास्थ्य, कला आदि विषयों पर लगातार लिखते रहे हैं.)
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