अपने होने के, अपनी प्रगति को मापने के, अपने समूचे अस्तित्व को जांचने के कई पैमाने हैं. हम अक्सर जांचते रहते हैं कि प्रगति के इन पैमानों पर हम कहां है? कितने साधन सम्पन्न हैं? कितना पिछड़े हैं? इन पैमानों पर एक पैमाना साहित्य भी है. जिसके सहारे हमें अपनी समझ व संवेदना के स्तर को जांचते रहना चाहिए. इस पैमाने के तहत की एक सवाल है, क्या आपने भीष्म साहनी को पढ़ा है? अगर पढ़ा है तो कुछ विचार किया है? भीतर कुछ पिघला है? कुछ कसमसाया है? आंखों की कोर भीगी है? कोई संकल्प बंधा है? कोई राह सूझी है? यदि यह सब हुआ है तो अपने होने का कुछ अर्थ है. मानवता अब भी धड़कती है. इंसान बने रहने की आश्वस्ति है.
भीष्म साहनी को क्यों पढ़ना चाहिए? इस सवाल से पहले कई लोगों के लिए यह जान लेना बेहद जरूरी है कि भीष्म साहनी है कौन? उनका एक परिचय है कि वे प्रख्यात अभिनेता बलराज साहनी के छोटे भाई हैं. लेकिन इस परिचय की एक सीमा है. भीष्म साहनी का वास्तविक परिचय तो उनके विचार और उनका लेखन है. आज भीष्म साहनी को याद कर रहे हैं क्योंकि 11 जुलाई उनकी पुण्यतिथि है. 11 जुलाई 2003 को 87 वर्ष की उम्र में इस अद्भुत रचनाकार ने इस दुनिया को अलविदा कहा था. भीष्म साहनी रचनाकारों की उस पीढ़ी के प्रतिनिधि हैं जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम देखा है, देश का विभाजन का दंश झेला है. देश को विकसित होते देखा है. पल-पल बदलाव को देखा और जांचा है.
रावलपिंडी पाकिस्तान में 8 अगस्त 1915 को जन्मे भीष्म साहनी देश के विभाजन के पूर्व अवैतनिक शिक्षक होने के साथ-साथ ये व्यापार भी करते थे. विभाजन के बाद उन्होंने भारत आकर समाचारपत्रों में लिखने का काम किया. बाद में भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) में शामिल हो गए. बालपन में कहानियां लिखने वाले भीष्म साहनी ने उपन्यास और नाटक भी लिखे. तीनों ही विधाओं में वे समान रूप से चर्चित हुए हैं. आलोचकों ने पाया है कि तीनों ही विधाओं में अलग भीष्म साहनी दिखाई देते हैं. कहानी में वे सामाजिक-पारिवारिक मूल्यों को आगे रखते हैं तो उनके उपन्यासों में विभाजन की त्रासदी को बयान किया है जबकि नाटक में वे नई चेतना और नई सोच की बात करते हैं.
भीष्म साहनी ने कुल छह नाटकों की रचना की. हानूश (1976), कबिरा खड़ा बजार में (1981), माधवी (1984), मुआवज़े (1993), रंग दे बसंती चोला (1996), आलमगीर (1999). कहानी लेखन सबसे पहले शुरू हुआ, फिर उपन्यास और उसके बाद नाटक. जब पहला नाटक हानूश लिखा तब तक भीष्म साहनी की कहानियां और उपन्यास पर्याप्त चर्चित हो चुके थे. उपन्यास के लिए 1975 में साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हो चुका था मगर जब नाटक हानूश की पांडुलिपि लेकर पहुंचे तो बड़े भाई बलराज साहनी और सुप्रसिद्ध नाट्य-निर्देशक इब्राहिम अलकाजी ने नकार दिया. भीष्म साहनी के सबसे चर्चित नाटक हानूश जिसका मंचन देशभर में लाखों बार कई रंग निर्देशकों ने अपनी अपनी तरह किया है, नकार दिया गया. इब्राहिम अलकाजी तो इसकी पांडुलिपि दो महीने तक अपने पास रखे रहे और फिर बिना पढ़े ही लौटा दी. 1977 में राजेन्द्रनाथ के निर्देशन में दिल्ली में इसका मंचन हुआ. पहले मंचन के बाद ही यह ऐसा निर्देशकों का प्रिय नाटक बन गया. हानूश ऐसा नाटक है जो पहले मंचित हुआ बाद में प्रकाशित हुआ.
हालांकि, हानूश को आपातकाल से जोड़ा गया है मगर भीष्म साहनी ने आपातकाल और इस नाटक के विषय के साम्य को खारिज किया है. अपनी आत्मकथा ‘आज के अतीत’ में भीष्म साहनी ने लिखा है, ‘इमरजेंसी तो मेरे ख्वाब-ख्याल में भी नहीं थी. मैं तो बरसों से अपनी ही इमरजेंसी से जूझता रहा था. बेशक ज़माना एमर्जेंसी का ही था जब नाटक ने अंतिम रूप लिया. पर हाँ, इसमें संदेह नहीं कि निरंकुश सत्ताधारियों के रहते, हर युग में, हर समाज में, हानूश जैसे फनकारों-कलाकारों के लिए इमरजेंसी ही बनी रहती है और वे अपनी निष्ठा और आस्था के लिए यातनाएं भोगते रहते हैं. यही उनकी नियति है.”
‘कबिरा खड़ा बाजार में’ (1981) में उन्होंने महान संत कबीर के जीवन को आधार बना कर लिखा है तो तीसरे नाटक ‘माधवी’ (1984) का आधार महाभारत की कथा का एक अंश है. चौथा नाटक ‘मुआवजे’ (1993) में भीष्म साहनी ने दंगों के पीछे के सच को उघाड़कर रख दिया है. इस नाटक की भूमिका में वे लिखते हैं, ‘यह प्रहसन हमारी आज की विडंबनापूर्ण सामाजिक स्थिति पर किया गया व्यंग्य है. नगर में सांप्रदायिक दंगे के भड़क उठने का डर है. इक्का-दुक्का छोटी-मोटी घटनाएं घट भी चुकी हैं. इस तनावपूर्ण स्थिति का सामना किस प्रकार किया जाता है; हमारा प्रशासन, हमारे नागरिक, हमारा धनी वर्ग, हमारे सियासतदाँ किस तरह इसका सामना करते हैं, इसी विषय को लेकर नाटक का ताना-बाना बुना गया है.’
पांचवे नाटक ‘रंग दे बसंती चोला’ में भीष्म साहनी ने जलियांवाला बाग की घटना को आधार बनाकर उसके पात्रों के माध्यम से त्याग और देशभक्ति की मिसाल स्थापित की है. उनका अंतिम नाटक आलमगीर (1999) मुगल सम्राट औरंगजेब के जीवन पर आधारित है. इसमें मध्यकालीन भारत के तत्कालीन यथार्थ की अभिव्यक्ति हुई है.
इन सभी नाटकों में हानूश का जिक्र सबसे ज्यादा होता है तो इसका कारण यह है कि यह एक इंसान के संकुचित मनोभावों से ऊपर उठ कर रचानाकार की संवेदनशीलता को पा लेने को प्रतिष्ठित करता है. यह इंंसानी वामनता के रचनाशीलता की विराटता के आगे नतमस्तक होने का प्रतीक नाट्य है। घड़ी बनाने वाला हानूश अपने मानसिक और शारीरिक कष्ट के बाद भी अपनी कृति को नष्ट नहीं कर पाता है तो यह इंसानी मनोवेग पर रचानाशीलता की विजय है. स्वयं भीष्म साहनी इस बारे में ‘मैं अपनी नज़र में’ शीर्षक वाले आत्मकथ्य में लिखते हैं, ‘… कलाकार का संघर्ष मानवीय सीमाओं को लांघना ही है.’ हानूश उन तमाम मानवीय सीमाओं को लांघकर ही महान कलाकार बन सकता था. भीष्म साहनी ने सच ही लिखा है, ‘कला सचमुच वह प्रक्रिया है जिसमें लिखने वाले के निजी उद्वेग, मूर्तरूप लेते हुए, धीरे-धीरे आत्मनिष्ठ न रहकर, वस्तुनिष्ठ होते चले जाते हैं.’
नाटक के पहले उनके उपन्यास ‘तमस’ विभाजन की त्रासदी प्रतिबिम्बित हो चुकी थी. यह उपन्यास जब 1986 में फिल्म के रूप में सामने आया तो अधिक चर्चित हुआ. भीष्म साहनी ने कुछ सीरियलों और फिल्मों में अभिनय भी किया. मसलन ‘तमस’, ‘मोहन जोशी हाजिर हो’ और ‘मिस्टर एंड मिसेज अय्यर’.
अब बात उस सवाल की जिसे सबसे पहले पूछा गया है, क्या आपने भीष्म साहनी को पढ़ा है? भीष्म साहनी को पढ़ा जाना चाहिए क्योंकि बकौल कहानीकार कमलेश्वर भीष्म साहनी को याद करने का मतलब है, उनके पूरे समय को याद करना. उनका समय यानि आजादी का संघर्ष, विभाजन की त्रासदी और आज के समय की पीड़ा भी. जैसे उनके यह विचार आज एकदम प्रासंगिक हैं. जिसमें वे कहते हैं,
“भारत जैसे बहुभाषी, बहुजातीय, बहुधर्मी किसी भी देश में किसी भी जातीय सवाल का हल हिंसात्मक दबाव द्वारा नहीं खोजा जा सकता. दंगों द्वारा कभी कोई जाति तो कभी कोई, अपना शक्ति प्रदर्शन करे और यह समझे कि इस आधार पर समाज में संतुलन आ जाएगा, इस प्रकार का तर्क बड़ा गलत और खतरनाक है. शक्ति प्रदर्शन द्वारा हम इस समस्या का समाधान नहीं कर सकते, न ही राजनैतिक स्तर पर किए जाने वाले समझौतों द्वारा. निश्चय ही धर्म को राजनीति से अलग करके ही इसका कोई समाधान संभव होगा. सभी नागरिकों को बराबरी का अधिकार देते हुए निजी धार्मिक मान्यताओं को उसके निजी कर्तव्यों से अलग करते हुए इस नियम का कड़ाई से पालन करते हुए हम कोई समाधान ढूंढ़ सकते हैं. यह बराबरी का अधिकार सांस्कृतिक स्तर पर और ज्यादा महत्वपूर्ण है. सभी भाषाओं को बराबरी का दर्जा देना, साझी सांस्कृतिक विरासत को मान्यता देना, सांस्कृतिक आदान-प्रदान को प्रोत्साहित करना, संस्कृति के क्षेत्र में उदारता और आदर भाव इस तरह से हम कुछ हद तक सांप्रदायिकता के जहर को फैलने से रोक सकते हैं.” (मेरे साक्षात्कार : भीष्म साहनी, पेज 74-75)
(दो दशक से ज्यादा समय से मीडिया में सक्रिय हैं. समसामयिक विषयों, विशेषकर स्वास्थ्य, कला आदि विषयों पर लगातार लिखते रहे हैं.)
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