आपने लता मंगेशकर और मुकेश के गाए ‘चंदन सा बदन, चंचल चितवन’, ‘फूल तुम्हें भेजा है खत में’ और ‘छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए’ गाने सुने होंगे. 1968 में बनी फिल्म ‘सरस्वतीचंद्र’ के ये गीत आज भी बड़े चाव से सुने जाते हैं. यह फिल्म जिस उपन्यास ‘सरस्वतीचंद्र’ पर आधारित है, उसके लेखक गोवर्धन राम त्रिपाठी की आज जयंती है. 2,200 पृष्ठों तथा चार खंडों में मूल रूप से गुजराती में लिखे गए उपन्यास ‘सरस्वतीचंद्र’ को उस समय अभूतपूर्व ख्याति मिली थी. इतनी ज्यादा प्रसिद्धि कि इसे छापने के लिए अलग प्रकाशन खोला गया था तथा इसे पुराण की संज्ञा दी गई थी. असल में यह भारतीय नवजागरण काल की एक ऐसी कृति है जिसे हिंदू समाज में सुधार का ‘गुजरात मॉडल’ कहा जा सकता है.
गोवर्धन राम त्रिपाठी का जन्म 20 अक्टूबर 1855 को गुजरात में नडियाद के एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था. उस समय बीए करते हुए उनकी यह मान्यता बन चुकी थी कि साहित्यकार को आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र रहना चाहिए और नौकरी के फेर में नहीं पड़ना चाहिए. इसलिए बीए करने के बाद उन्होंने तीन निर्णय किए. पहला यह कि वकील बना जाए. दूसरा यह कि मुंबई में वकालत की निजी प्रैक्टिस की जाए और कोई नौकरी न की जाए. तीसरा फैसला सबसे महत्वपूर्ण था कि वकालत भी कुल 40 वर्ष की उम्र तक की जाए और इसी बीच धन जमा किया जाए. उसके बाद वकालत को छोड़ कर पूरी तरह साहित्य-सेवा की जाए. उन्होंने अपने इन फैसलों को हमेशा माना.
1883 के बाद भावनगर और जूनागढ़ में उन्हें कई अच्छी-अच्छी नौकरियों के प्रस्ताव मिले लेकिन अपने संकल्प के अनुसार उन्होंने सारे प्रस्ताव अस्वीकार कर दिए. 1898 में उन्हें कच्छ के दीवान का पद ग्रहण का प्रस्ताव मिला. दीवान का वेतन 15 सौ रुपए महीना था. उन दिनों के हिसाब से यह वेतन बहुत ही अधिक था, परंतु साहित्य-सेवा की खातिर उन्होंने यह पद भी ठुकरा दिया. 40 वर्ष की उम्र में वकालात छोड़ कर वे नडियाद में रहने लगे और पूरी तरह साहित्य सेवा और समाज सेवा में जुट गए. 1906 में वे गुजराती साहित्य परिषद के पहले अध्यक्ष चुने गए. इसी बीच उनका स्वास्थ्य बिगड़ता गया और 4 जनवरी 1907 को उनका निधन हो गया.
उनका फैसला था कि धन जमा करने के बाद 40 वर्ष की उम्र में वकालत छोड़कर साहित्य-सेवा करेंगे. परंतु जिस बैंक में उन्होंने अपनी सारी बचत जमा की थी, वह बैंक ही डूब गया. सारा पैसा डूब जाने के बाद भी वे विचलित नहीं हुए, बल्कि स्वयं घर आकर हंसते हुए सबको वह समाचार सुनाया. पैसे की तंगी होने पर भी उन्होंने अपना निर्णय नहीं बदला और अपनी जमी हुई वकालत छोड़ कर साहित्य सेवा करने का संकल्प पूरा किया. वकालत छोड़ने के दो दिन बाद ही एक बहुत बड़ा मामला आया. परंतु उन्होंने उसकी पैरवी करने से इंकार कर दिया. उन्होंने साहित्य और समाज की सेवा के लिए मुंबई छोड़ दिया और नडियाद जाकर रहने लगे.
उपन्यास ‘सरस्वतीचंद्र’ का पहला खंड 1887 में प्रकाशित हुआ था तब उन्होंने मुंबई में वकालत शुरू की थी. इस उपन्यास के प्रकाशित होते ही तहलका मच गया और इसे युग प्रवर्तक उपन्यास कहा जाने लगा. इसका दूसरा खंड 1892 और तीसरा खंड 1896 में प्रकाशित हुआ. दूसरा और तीसरा खंड लिखते समय भी वह वकालत कर रहे थे. उपन्यास का अंतिम खंड वकालत से अवकाश ग्रहण करने के बाद 1901 में प्रकाशित हुआ. गुजराती में लिखे गए उपन्यास के विभिन्न भाषाओं में अनुवाद हुए। इस पर आधारित गोविंद सरैया की फिल्म खूब पसंद की गई तो संजय लीला भंसाली ने भव्य टीवी शो बनाया है।
‘सरस्वतीचंद्र’ ऐसा उपन्यास है जिसने गुजरात में बौध्दिक जागरुकता का प्रसार किया और आधुनिक गुजराती साहित्य की आधारशिला रखी. यह उपन्यास 19 वीं शताब्दी के ब्रिटिश शासनकाल के दौरान गुजराती समुदाय के सामाजिक दृष्टिकोण को दिखाता है, बल्कि आदर्शवाद की पूर्ण अवस्था के मानक भी प्रस्तुत करता है. यह उपन्यास न केवल अपने पात्रों कुमुद, कुसुम और सरस्वतीचंद्र के बीच की कहानी को नहीं रखता है बल्कि इसका प्रत्येक भाग चारों पुरुषार्थों धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के महत्व को रेखांकित करता है.
प्रथम भाग में रत्ननगरी के प्रधान विद्याचतुर की सुंदरी पुत्री कुमुद के प्रति विद्यानुरागी सरस्वतीचंद्र के आकर्षण का चित्रण है. दूसरे भाग में भारतीय दृष्टिकोण से व्यक्ति और परिवार के संबंधों का चित्रण किया गया है. तीसरे भाग में कर्मक्षेत्र के विस्तार के साथ प्राचीन और पाश्चात्य संस्कारों के संघर्ष को दिखाया गया है. चौथे भाग में लोक कल्याण की भावना से ‘कल्याणग्राम’ की स्थापना की आदर्श योजना प्रस्तुत की गई है.
इस उपन्यास का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि इसमें प्राचीन और आधुनिक साहित्यकारों द्वारा रचित पंक्तियों का उद्धरण दिया गया है. इसमें भृतहरि, कालिदास, भवभूति, भगवतगीता, महाभारत और पंचतंत्र के कथन के साथ अंग्रेजी साहित्यकार वर्ड्सवर्थ, पीबी शेली, गोल्डस्मिथ, कीट्स और शेक्सपियर के लेखन के सहारे मूल्यों को स्थापित किया गया है.
गोवर्धन राम त्रिपाठी ने उपन्यास ‘सरस्वतीचंद्र’ में मध्यवर्गीय आकांक्षाओं, अंतद्वंद्वों और पीड़ाओं को व्यक्त किया है. उन्होंने सामाजिक सुधार के मुद्दों पर सीधे अपनी राय या निर्णय नहीं दिया. ‘सरस्वतीचंद्र’ उपन्यास ऐसे दौर में रचा गया, जब गुजरात सांस्कृतिक असमंजस से गुजर रहा था. गुजराती जीवन पर पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव बढ़ चुका था. गोवर्धन राम त्रिपाठी ने धार्मिक-सांस्कृतिक पुनरुत्थान और पश्चिमी प्रभाव से पैदा हुई व्यक्तिगत स्वतंत्रता भावना जैसी दो परस्पर विरोधी आवाजों के बीच भारतीय नवजागरण का मॉडल तैयार किया.
‘भारतीय नवजागरण: एक असमाप्त सफर’ में शंभूनाथ लिखते हैं कि गोवर्धन राम त्रिपाठी ने मुख्यतः विधवा पुनर्विवाह का प्रश्न उठाया लेकिन स्त्री अधिकार के मुद्दे को हिंदू समाज के विघटन के खतरे से जोड़ दिया. शिक्षित विधवा कुमुद और भावुक बुद्धिजीवी व देशप्रेमी सरस्वतीचंद्र का प्रेम इसी दबाव में विधवा पुनर्विवाह में रूपांतरित नहीं हो पाता. एक पढ़ी-लिखी गुजराती विधवा कुमुद का प्रेम और सामाजिक संघर्ष अंततः अंतर्द्वद्व में रूपांतरित होकर आर्य परंपराओं के अनुसार महान त्याग की जमीन पर विश्रांति पा जाता है. इस उपन्यास में गुजरात के पितृसत्तात्मक समाज का विधवा पुनर्विवाह से ऐतराज उभरकर आता है. समाज की कठोरता स्पष्ट हो जाती है. कुमुद की मां गुणसुंदरी के पुरातन स्त्री गुण ही एक आदर्श स्त्री के गुण के रूप में प्रस्तुत किए गए हैं.
हालांकि, उपन्यासकार गोवर्धन राम इस पुरातन मान्यता का समर्थन करते हुए नजर जरूर आते हैं मगर वे इसके समानांतर उस युग की बहस, तर्क-वितर्क और रूढ़ियों के प्रति आक्रोश को भी प्रमुखता से उजागर करते हैं. उपन्यास में कई धार्मिक-सामाजिक पाखंडों पर से पर्दा हटाया गया है. इसलिए उपन्यास का आकलन किए एक बिंदु के आधार पर नहीं करना चाहिए. यह उस दौर के सामाजिक-सांस्कृतिक अंतर्विरोधों का एक महत्वपूर्ण प्रतिबिंब है और उत्कृष्टता की दृष्टि से तो 19 वीं सदी के भारतीय कथा संसार में अद्वितीय है.
पंडित गोवर्धन राम की धारणा थी कि उच्च वर्ग के सरस्वतीचंद्र और कुमुद जैसे व्यक्तियों को ही समाज में जागरूकता लाना है. शंभूनाथ का यह कथन खासतौर से रेखांकित किया जाना चाहिए कि गोवर्धन राम यह भी स्पष्ट करते हैं कि हिंदू धर्म अब पुराने ढर्रे पर नहीं चल सकता है, उसे नवीनता हासिल करनी है. हिंदू सामाजिकता का मुख्य लक्षण है कमजोर की रक्षा करना, शिशु की रक्षा करना, स्त्रियों की रक्षा करना और बुजुर्गों की भुखमरी से रक्षा करना. मैं एकटक देख रहा हूं कि हिंदू सामूहिकता और पश्चिमी वैयक्तिता दोनों का जीवन पर प्रभाव है और दोनों ही कल्याण कर सकते हैं. यदि सामूहिकता दमनमूलक और वैयक्तिकता आक्रामक न हो.
वे वंचितों के लिए ‘रक्षक’ और ‘उद्धारक’ वर्ग की कल्पना करते हैं. इस तरह ‘सरस्वतीचंद्र’ सामाजिक सुधार का आदर्श साहित्य बन कर उभरा.
(दो दशक से ज्यादा समय से मीडिया में सक्रिय हैं. समसामयिक विषयों, विशेषकर स्वास्थ्य, कला आदि विषयों पर लगातार लिखते रहे हैं.)
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