भारत की साहित्यिक और सांस्कृतिक पहचान बांग्ला साहित्य, लोक साहित्य और संस्कृति के बिना अधूरी है. बांग्ला मनीषियों के बगैर पुनर्जागरण की कल्पना भी संभव नहीं लगती है. राष्ट्रीय साहित्य और संस्कृति में जो स्थान बांग्ला साहित्य का है, लगभग वैसा ही स्थान बांग्ला साहित्य में सुनील गंगोपाध्याय का है. जिन्होंने समूचा साहित्य बांग्ला में रचा लेकिन उसकी ख्याति पूरे देश में हुई. वे सुनील गंगोपाध्याय जिन्होंने अपनी कल्पना पात्र नीरा के लिए कविताएं लिखीं, उस नीरा से भले कोई मिल नहीं सका लेकिन उसके नाम पर कोलकाता में एक गार्डन है. यह अपने प्रिय साहित्यकार के प्रति कृतज्ञ समाज की आभार अभिव्यक्ति कही जा सकती है.
पश्चिम बंगाल साहित्य अकादमी के अध्यक्ष रहे सुनील गंगोपाध्याय या सुनील गांगुली का जन्म 7 सितंबर 1934 को हुआ था. उनका निधन 23 अक्टूबर 2012 में हुआ. इस अवधि में वे श्रेष्ठ कवि, इतिहासकार और उपन्यासकार के रूप में ख्यात हुए. 1953 में उन्होंने और उनके कुछ दोस्तों ने ‘कृतिबास’ नामक एक बंगाली कविता पत्रिका शुरू की. बाद में उन्होंने कई अलग-अलग प्रकाशनों के लिए लिखा.
उन्होंने पत्रकारिता के साथ ही उपन्यास, कहानी, जैसी साहित्य की विधाओं में नियमित और उत्कृष्ट लेख किया है. उन्होंने नील लोहित, सनातन पाठक और निल उपाध्याय उपनाम से लेखन किया. 1985 में उनके उपन्यास सेई सोमोए (दोज़ डेज) के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. नील लोहित के नाम से लिखे गए उनके रोमांटिक उपन्यास तो लोगों के बीच जबर्दस्त लोकप्रिय हुए. इसके अलावा सुनील गंगोपाध्याय ने कई ऐतिहासिक उपन्यास भी लिखे. उनकी सबसे चर्चित और प्रमुख कृति तो ‘सेई सोमोए’ ही है. यह उपन्यास बंगाल में नवजागरण से पहले की पृष्ठभूमि पर लिखा गया है. इसका कथानक महाभारत का बांग्ला में अनुवाद करने वाले लेखक, नाटककार, समाज सुधारक कालीप्रसन्न सिंह और समाज सुधारक ईश्वरचंद्र विद्यासागर के जीवन के इर्दगिर्द बुना गया है. साहित्यकार माइकल मधुसूदन दत्त, पिता पुत्र की जोड़ी द्वारकानाथ टैगोर और देवेंद्रनाथ टैगोर, पत्रकार हरीश मुखर्जी, केशवचंद्र सेन का कृतित्व भी इस उपन्यास का आधार बना है. यह उपन्यास बंगाल के धनाढ्य जमींदारों के जीवन की झलक दिखलाता है. साथ ही बहुत संवेदनशील तरीके से बताता है कि उस दौर में घरेलू नौकर और किसान कितने विपन्न हुआ करते थे जिसके उलट समृद्ध तबका अपने दैनिक जीवन में, शादी-विवाह में कितना धन खर्च करता था.
सुनील गंगोपाध्याय ने बंगाली काल्पनिक चरित्र काकाबाबू का निर्माण किया जिसका असली नाम राजा रॉय चौधरी है और उनका जुनून रहस्यों को सुलझाने का है. उन्होंने काकाबाबू श्रृंखला में 36 उपन्यास लिखे जो भारतीय बाल साहित्य में महत्वपूर्ण बन गए. साहित्य पत्रकारिता में भी सुनील गंगोपाध्याय का नाम बेहद सम्मान से लिया जाता है. पत्रिका कृत्तिबास ने नई पीढ़ी के तमाम कवियों को एक मंच प्रदान किया. मशहूर फिल्मकार सत्यजीत रे ने सुनील गंगोपाध्याय के दो उपन्यासों ‘अरण्येर दिनरात्रि’ और ‘प्रतिध्वनि’ पर फिल्म भी बनाई थी.
कवि के रूप में जब वे ख्याति के शीर्ष पर थे तब अचानक उपन्यास लिखना शुरू कर दिया. इतना सब होने के बाद भी सुनील गंगोपाध्याय के लिए कविता पहला प्रेम बना रहा. सुनील गंगोपाध्याय ने कविताओं के लिए नीरा नामक एक काल्पनिक महिला पात्र रचा जो कि बांग्ला पाठकों के बीच लोकप्रिय है. ‘नीरा के लिए’ प्रेम कविताएं बेहद प्रसिद्ध हुई. विभिन्न भाषाओं में उनका अनुवाद हुआ. समीक्षकों ने सुनील गंगोपाध्याय की रचनाशीलता में ‘नीरा’ का महत्वपूर्ण स्थान पर है. सुनील गंगोपाध्याय स्वयं स्वीकार करते हैं- “मेरी कविताओं में नीरा बार-बार घूम-फिरकर आती रही है. कवि की उम्र ढलती रही लेकिन नीरा आज भी किसी स्थिर चित्र की तरह ‘नव-यौवना’ है. मैं उसे रक्त-मांस की मानवी बनाकर रखना चाहता हूं पर कभी-कभी से वह शिल्प की सीमाओं के भीतर प्रवेश कर जाती है. मैं उसे वापिस ले आना चाहता हूं, उसके पांव में कांटे चुभ जाते हैं, उसकी आंखों में अश्रु झिलमिलाने लगते हैं. इस दूरी के साथ साथ आलिंगन की यह निकटता. नीरा के साथ यह खेल चलता ही रहा है जीवन भर.”
आसक्ति व अनासक्ति के बीच नीरा के लिए लिखी गईं कविताएं एक बेहतर संदेश देने में कामयाब होती है. ऐसे साहित्यकार और उसके प्रिय पात्र की याद को चिर स्थाई बनाने के लिए 2019 में कोलकाता के बालीगंज स्थित मांडेविला गार्डन का नाम बदल कर नीरा श्रेष्ठा के नाम पर रखने का निर्णय लिया गया. कोलकाता नगर निगम ने प्रस्ताव पारित कर पारिजात अपार्टमेंट वाले रास्ते का नाम सुनील गंगोपाध्याय सरणी रखने का निर्णय लिया. इसी अपार्टमेंट के नौवें माले पर सुनील गंगोपाध्याय 1977 से रहा करते थे और यहीं उन्होंने कई कालजयी रचनाएं रची.
सुनील गंगोपाध्याय के श्रेष्ठ बांग्ला साहित्य का हिंदी अनुवाद कर हम से परिचित करवाने का काम कई अनुवादकों ने किया है. इनमें उत्पल बनर्जी का नाम प्रमुख हैं. उत्पल बनर्जी द्वारा अनुदित सुनील गंगोपाध्याय की कुछ कविताओं को जरूर पढ़ा जाना चाहिए. ये कविताएं अपने कवि का बेहतर परिचय हैं.
ओ इक्कीसवीं सदी के मनुष्य
तुम्हारे लिए प्रार्थना करता हूं
चंचल सुख और समृद्धि की,
तुम अपने जीवन और जीवनयापन में
अलमस्त बने रहना
तुम लाना आसमान से मुक्ति-फल-
जिसका रंग सुनहरा हो,
लाना – खून से धुली हुई फसलें
पैरों-तले की जमीन से,
तुम लोग नदियों को रखना स्रोतस्विनी
कुल-प्लाविनी रखना नारियों को,
तुम्हारी संगिनियां हमारी नारियों की तरह
प्यार को पहचानने में भूल न करें,
उपद्रवों से मुक्त, खुले रहें तुम्हारे छापेख़ाने
तुम्हारे समय के लोग मात्र बेहतर स्वास्थ्य के लिए
उपवास किया करें माह में एक दिन,
तुम लोग पोंछ देना संख्याओं को
ताकि तुम्हें नहीं रखना पड़े बिजली का हिसाब
कोयले-जैसी काले रंग की चीज
तुम सोने के कमरे में चर्चा में मत लाना
तुम्हारे घर में आए गुलाब-गंधमय शांति,
तुम लोग सारी रात घर के बाहर घूमो-फिरो.
ओ इक्कीसवीं सदी के मनुष्य!
आत्म-प्रताड़नाहीन भाषा में पवित्र हों
तुम्हारे हृदय,
तुम लोग निष्पाप हवा में आचमन कर रमे रहो
कुंठाहीन सहवास में.
तुम लोग पाताल-ट्रेन में बैठकर
नियमित रूप से
स्वर्ग आया-जाया करो.
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नीरा! तुम लो दोपहर की स्वच्छता
लो रात की दूरियां
तुम लो चन्दन-समीर
लो नदी किनारे की कुंआरी मिट्टी की स्निग्ध सरलता
हथेलियों पर नींबू के पत्तों की गंध
नीरा, तुम घुमाओ अपना चेहरा
तुम्हारे लिए मैंने रख रखा है
वर्ष का श्रेष्ठवर्णी सूर्यास्त
तुम लो राह के भिखारी-बच्चे की मुस्कराहट
लो देवदारु के पत्तों की पहली हरीतिमा
कांच-कीड़े की आंखों का विस्मय
लो एकाकी शाम का बवण्डर
जंगल के बीच भैंसों के गले की टुन-टुन
लो नीरव आंसू
लो आधी रात में टूटी नींद का एकाकीपन
नीरा, तुम्हारे माथे पर झर जाए
कुहासा-लिपटी शेफालिका
तुम्हारे लिए सीटी बजाए रात का एक पक्षी
धरती से अगर बिला जाए सारी सुन्दरता
तब भी, ओ मेरी बच्ची
तेरे लिए
मैं यह सब रख जाना चाहता हूं .
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मृत्यु के पास मैं नहीं गया था, एक बार भी
फिर भी वह क्यों छद्मवेश में
बार-बार दिखाई देती है!
क्या यह निमन्त्रण है…
क्या यह सामाजिक लघु-आवागमन!
अकस्मात उसकी चिट्ठी मिलती है
अहंकार विनम्र हो जाता है
जैसे देखता हूं नदी किनारे एक स्त्री
बाल बिखरा कर खड़ी है
पहचान लिए जाते हैं शरीरी संकेत
वैसे ही हवा में उड़ती है नश्वरता
डर लगता है, छाती कंपती है
कि सब कुछ छोड़कर जाना पड़ेगा
जब भी कुछ सुंदर देखता हूं
जैसे कि भोर की बारिश
अथवा बरामदे के लघु-पाप
अथवा स्नेह की तरह शब्दहीन फूल खिले रहते हैं
देखता हूँ मृत्यु, देखता हूं वही चिट्ठी का लेखक है
अहंकार विनम्र हो जाता है
डर लगता है, छाती कंपती है
कि सब कुछ छोड़कर जाना पड़ेगा!
– सुनील गंगोपाध्याय (बांग्ला से हिंंदी में अनुवाद उत्पल बनर्जी द्वारा)
(दो दशक से ज्यादा समय से मीडिया में सक्रिय हैं. समसामयिक विषयों, विशेषकर स्वास्थ्य, कला आदि विषयों पर लगातार लिखते रहे हैं.)
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