दर्द के 36 बरस : मैं भोपाल हूं... गैस त्रासदी का भुक्तभोगी... अब झेल रहा महामारी

Bhopal Gas Tragedy: 36 बरस में न पीड़ितों के प्रति सिस्टम जागा, न पीड़ितों की जिंदगी बदली. गैस त्रासदी की 36वीं बरसी पर इस हादसे में मृत लोगों को यही सबसे सच्ची श्रद्धांजलि होगी कि सिस्टम आरोप-प्रत्यारोपों की सियासत की बजाय जिंदा बचे पीड़ितों को सही इलाज और उनके पुनर्वास की बेहतर व्यवस्था करे और उन्हें इंसाफ दिलाए.

Source: News18Hindi Last updated on: December 3, 2020, 12:46 am IST
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दर्द के 36 बरस : मैं भोपाल हूं...गैस त्रासदी का भुक्तभोगी...अब झेल रहा महामारी
कोरोना से मरने वालों में सबसे ज़्यादा तादाद गैस पीड़ितों की है.
मैं भोपाल हूं... 36 साल पहले आज ही के दिन यानी 2-3 दिसंबर 1984 की काली अंधियारी रात को हुई विश्व की भीषणतम औद्योगिक गैस त्रासदी (Bhopal Gas Tragedy) का भुक्तभोगी, चश्मदीद. इन 36 साल में मैंने देखी हैं कंधों पर सवार 25 हजार से ज्यादा गैस पीड़ितों (Gas victims) की अर्थियां. मैं देख रहा हूं 6 लाख से ज्यादा आंखों, किडनी, लिवर, कैंसर, मस्तिष्क, दिल के रोगों समेत सैकड़ों बीमारियों के शिकार हुए अस्पतालों के चक्कर काटते मेरे अपने लोगों की तीन पीढ़ियां. मैं गवाह हूं उन औरतों के दर्द का, जिन्होंने त्रासदी में अपने पति, बच्चे खो दिए, या कभी मां बनने के लायक ही नहीं रहीं. मैंने देखे हैं इंसाफ के लिए दशकों की लड़ाई लड़ते, कभी जीतते, कभी हार से मायूस होते चेहरे, बेशर्म सियासत, तंगदिल तंत्र के रूप.



मैं भोपाल... पिछले 36 सालों से इन गैस पीड़ितों की जिंदगी में एक ही नगमा सुन रहा हूं, जो खुद से सवाल कर रहा है, “सीने में जलन, आंखों में तूफान सा क्यूं है, इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यूं है." दुनिया भर में फैली कोरोना की महामारी से मैं भी जूझ रहा हूं. मुझे अफसोस है यह इत्तला करते हुए, कि मेरे शहर के वो तमाम वाशिंदे जो उस वक्त जहरीले मिथाइल आइसोसाइनेट (MIC) गैस के कहर से बच निकले थे, वो कोरोना से हार रहे हैं, क्योंकि बीमारियों से लड़ता उनका कमजोर जिस्म, दिल, फेफड़े, Covid-19 संक्रमण नहीं झेल पा रहा. यही वजह है कोरोना से अपनी जान गंवाने वालों में सबसे ज्यादा गैस पीड़ित हैं.



उफ कितनी भयानक थी वो रात...

उफ कितना भयानक था 2-3 दिसंबर का वो दिन, जब आंखों और सीने में जलन सहते हुए अपनी जान बचाने हजारों लोग सड़कों पर भागे जा रहे थे. भागने वालों में औरतें, मर्द, बच्चे सब शामिल थे. चारों तक चीख, पुकार, बदहवासी थी. मुझ पर यानी भोपाल शहर पर मौत का हमला हुआ था. सिर्फ यह सुनाई दे रहा था, भागो गैस रिस गई है. अलसुबह छाई गहरी धुंध में निकले ट्रकों, जीपों से लाउड स्पीकर से आवाजें गूंज रहीं थीं... साहेबान लाशें उठाने वालों की जरूरत है, फौरन हमीदिया अस्पताल पहुंचिए, लोग तड़प रहे हैं, दवाएं लेकर फौरन फलां..फलां बस्तियों में पहुंचिए. बस्तियों में खुले में बंधे जानवर मरे पड़े थे. जो घरों में सो रहे थे, उनमें से हजारों सोते ही रह गए, कभी न जागने वाली नींद में. भागने के लिए घर का दरवाजा भी नहीं खोल पाए. खेतों के पत्ते जलकर नीले पड़ गए थे.



दर्द के 36 साल

आज गुरुवार 3 दिसंबर का दिन है, इस खौफनाक मंजर को देखे और उसका दर्द भोगते हुए पूरे 36 साल गुजर गए. मानव इतिहास की सबसे बड़ी और भयावह औद्योगिक भोपाल गैस त्रासदी देखी थी उस दिन. भोपाल के यूनियन कार्बाइड कारखाने (Union Carbide Factory) से करीब 40 टन जानलेवा मिथाइल आइसोसाइनेट गैस रिसी थी. पहले तीन दिन में ही 3 हजार से ज्यादा लोगों की जान चली गई थी. उसके बाद से अब तक 25 हजार से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं और 6 लाख से ज्यादा लोग कई बीमारियों के शिकार हो चुके हैं. पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होता बीमारियों का यह सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा. आईसीएमआर की पहली रिपोर्ट में भी अगली कई पीढ़ियों तक इस त्रासदी से उपजी बीमारियों के स्थायी बने रहने की बात कही गई थी. अभी भी सर्वाधिक प्रभावित जेपी नगर, बस स्टैण्ड, नारियल खेड़ा, छोला, इब्राहिम गंज, जहांगीराबाद जैसे दर्जनों इलाकों में कई बच्चे बीमार या शारीरिक और मानसिक (Physical and Mental) रूप से अक्षम पैदा हो रहे हैं.



गैस पीड़ितों पर कोरोना की ज़्यादा मार

कोविड-19 संक्रमण का असर सामान्य आबादी के मुकाबले गैस पीड़ितों में कई गुना ज्यादा है. बीते जून महीने में भोपाल ग्रुप फॉर इन्फॉर्मेशन एंड एक्शन (Bhopal Group For Information And Action) की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि भोपाल में कोविड-19 से जान गंवाने वाले लोगों में 75 फीसदी गैस पीड़ित थे. भोपाल में 11 जून तक कोरोना से 60 मौतें हुई थी, जिनमें से 48 गैस पीड़ित थे. मंगलवार 1 दिसंबर तक भोपाल में कोविड-19 संक्रमण के कुल 32 हजार से ज्यादा मामले सामने आ चुके हैं और शहर में 518 मौतें हो चुकी हैं. संस्था की संयोजक रचना ढींगरा के मुताबिक इन 518 मौतों में मरने वाले गैस पीड़ितों की संख्या आधिकारिक रूप से 254 बताई गई, ये संख्या इससे कहीं ज्यादा भी हो सकती है. यह संख्या इसलिए चौंकाने वाली है, क्योंकि भोपाल जिले की यह 60% मौतें उन लोगों की हैं, जो यूनियन कार्बाइड की जहरीली गैस के संपर्क में आए हैं, या पीड़ित आबादी वाले हैं, जबकि ये जिले की आबादी का 20 फीसदी है. ढींगरा कहती हैं कि बीएमएचआरसी कोरोना से मृत गैस पीड़ितों के आंकड़े कम करके बता रहा है. उन्होंने अपने आरोपों की पुष्टि के लिए अक्टूबर के महीने में एक बयान भी जारी किया था, जिसमें कहा गया कि भोपाल मेमौरियल हॉस्पिटल एवं रिसर्च सेंटर (BHMRC) के आइसोलेशन वार्ड में कोविड- 19 की वजह से हुई सात गैस पीड़ितों की मौतों की अस्पताल द्वारा न तो भोपाल जिला प्रशासन और न ही मध्य प्रदेश सरकार एवं केंद्र सरकार के अधिकारियों को जानकारी दी गई है. इस सात मृतकों में से दो की मौत अगस्त में और पांच की मृत्यु सितंबर में हुई थी और इनमें ज्यादातर मरीज पल्मोनरी (फेफड़े संबंधी बीमारी) विभाग के थे.



ये है आंकड़ा

कोरोना के कारण 35 से 40 उम्र के बीच के 9 लोगों मौत हुई है. 41 से 59 उम्र के बीच 14 और 60 साल से अधिक आयुवर्ग के 25 लोगों अपनी जान गंवा चुके हैं. केस हिस्ट्री देखी जाए तो 75 फीसदी मृतक गैस पीडि़त हैं. 5 फीसदी मृतक गैस पीडि़तों के बच्चे हैं. 87 फीसदी मौत हमीदिया अस्पताल में हुई हैं. 75 प्रतिशत गैस पीड़ि भर्ती के पांच दिन में अपनी जान खो चुके हैं. 81 फीसदी मृतक अन्य पुरानी बीमारियों से ग्रसित थे. गैस पीड़ितों के चार संगठनों ने कोरोना से हुई क्षति के लिए यूनियन कार्बाइड और डाउ केमिकल्स से अतिरिक्त मुआवजे की मांग की है. इन संगठनों का दावा है कि आम लोगों के मुकाबले 6.5 गुना ज्यादा गैस पीड़ितों को कोरोना हुआ. इसलिए प्रभावित गैस पीड़ितों को अस्थायी रूप से क्षतिग्रस्त मानते हुए 25 हजार रुपए का मुआवजा दिया जाना चाहिए.



गैस पीड़ितों का इम्युनिटी सिस्टम कमजोर

डॉक्टर कहते हैं गैस पीड़ितों की इम्युनिटी यानी शारीरिक क्षमता कम होने की वजह वे तेजी से कोरोना वायरस के शिकार हुए, जिसके कारण उनकी मौत हुई है. गांधी मेडिकल कॉलेज के डॉ. लोकेंद्र दवे का कहना है कि यूनियन कार्बाइड से निकली जहरीली मिथाइल आइसोसाइनेट गैस की वजह से इन लोगों के फेफड़े कमजोर हो गए हैं, इसलिए कोरोना वायरस उन पर तेजी से अटैक करता है. मौतों की संख्या इसलिए गैस पीड़तों की ज्यादा है, क्योंकि उनकी रोगों से लड़ने की क्षमता बेहद कमजोर हो चुकी है. उनकी सलाह है कि अगर किसी को मामूली बुखार या खांसी की भी शिकायत है तो उसका तत्काल इलाज कराएं. उन्होंने कहा कि खांसी-जुकाम और बुखार को हल्के में ना लें.



गैस राहत अस्पताल खुद बीमार

1989 में मप्र सरकार ने गैस राहत एवं पुनर्वास विभाग का गठन किया था. इसके बाद बीएचएमआरसी समेत 6 गैस राहत अस्पताल बनाए गए, लेकिन इन अस्पतालों में न डॉक्टर हैं, न संसाधन. गैस पीड़ितों के लिए बने सबसे बड़े और एकमात्र सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल बीएमएचआरसी के हाल ये हैं, कि यहां कई विशेषज्ञ डॉक्टर नौकरी छोड़ कर निजी अस्पतालों में ऊंची तनख्वाहों पर अपनी सेवाएं दे रहे हैं. बार-बार विभाग बदलने और डॉक्टरों के सेवा नियमों में बदलाव के चलते यहां से डॉक्टरों का 2012 से पलायन शुरू हो गया था. अब तक नियमित और संविदा मिलाकर 23 सुपर स्पेशलिस्ट यहां से जा चुके हैं. 1998 में बने इस अस्पताल को बनाने के पीछे मकसद था कि गैस पीड़ितों को सबसे अच्छा इलाज मिलेगा, लेकिन हकीकत यह है कि कैंसर सर्जरी, कैंसर मेडिसिन, किडनी रोग, यूरोलाजी और उदर विभागों में तो एक भी डॉक्टर नहीं है. किडनी मरीजों की डायलिसिस की जा रही है, लेकिन किडनी का कोई विशेषज्ञ नहीं है. अस्पताल में करोड़ों रुपए की मशीनें खरीद ली गयीं, पर चलाने वाले ही नहीं हैं. भोपाल ग्रुप फॉर इनफॉरमेशन एंड एक्शन की रचना ढींगरा का कहना है कि बीएमएचआरसी में न तो डॉक्टर हैं और न ही जांच और इलाज की पर्याप्त सुविधाएं. जिस अस्पताल का काम गैस पीड़ितों का सही इलाज और शोध करना था, वहां गैस पीड़ित इलाज और दवा के अभाव में असमय मर रहे हैं.



पीड़ितों के लिए लड़ने वाले को ही नहीं मिला इलाज

गैस पीड़ितों के हाल इससे ही समझे जा सकते हैं कि उनके अस्पताल, इलाज, मुआवजे के लिए सड़क से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक लंबी लड़ाई लड़ऩे वाले गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन के नेता अब्दुल जब्बार को ही समय पर इलाज नहीं मिल पाया. पिछले साल समय पर बीएमएचआरसी में बेहतर इलाज न मिलने के कारण उनकी मौत हो गई. उसी बीएमएचआरसी में जो गैस पीड़ितों के लिए ही बना है. जब्बार देश-विदेश में गैस पीड़ितों के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वालों का प्रमुख चेहरा थे.



डेढ़ दशक में तीन गुना बढ़ गईं बीमारियां

गैस पीड़ितों के लिए काम करने वाले संगठन संभावना ट्रस्ट ने मीडिया को अपने अध्ययन के हवाले से बताया कि बीते 15 साल में गैस पीड़ितों में बीमारियां 3 गुना ज्यादा बढ़ी हैं. गैस पीड़ितों में किडनी, लिवर, लंग्स, डायबिटीज, ब्लड प्रेशर जैसी तमाम बीमारियां बढ़ गई हैं. ट्रस्ट के सतीनाथ षडंगी और संभावना क्लीनिक के डा. संजय श्रीवास्तव ने 15 साल में 27 हजार 155 गैस पीड़ितों के इलाज के दौरान सामने आये आंकड़ों के आधार पर ये दावा किया. उन्होंने अपने विश्लेषण में पाया है कि यूनियन कार्बाइड की जहरीली गैस से पीड़ित लोगों में स्वस्थ लोगों की तुलना में वजन और मोटापे की समस्या 3 गुना ज्यादा है. इसके अलावा थायराइड की बीमारी की दर लगभग 2 गुना ज्यादा है. गैस त्रासदी के शिकार होने की वजह से पीड़ितों के शरीर के अंदरूनी और बाहरी तंत्र को स्थाई रूप से नुकसान पहुंचा है.



मां नहीं बन पाईं कई महिलाएं

3 दिसंबर को 36 साल पहले हुई इस गैस त्रासदी ने कई महिलाओं की कोख को आबाद नहीं होने दिया. जहरीले रसायन का असर ऐसा था कि बार-बार महिलाओं का गर्भपात हो जाता था. यह बात कई शोधों, अध्ययनों और सर्वे रिपोर्ट्स के माध्यम से जाहिर हो चुकी है.



कारखाने में पड़ा है 346 टन ज़हरीला कचरा

सन् 2012 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी यूनियन कार्बाइड कारखाने में दफन जहरीला रासायनिक कचरा राज्य की सरकारें हटवाने में आज तक नाकाम रहीं. सुप्रीम कोर्ट का आदेश था कि वैज्ञानिक तरीके से कचरे का निष्पादन किया जाए, लेकिन कारखाने में दफन 346 टन जहरीले कचरे में से 2015 तक केवल एक टन कचरे को हटाया जा सका. इस काम का ठेका रामको इन्वायरो नामक कंपनी को दिया गया है. लेकिन कचरा अभी तक क्यों नहीं हटाया जा सका, इसका जवाब किसी के पास नहीं है. इस कचरे के कारण यूनियन कार्बाइड के आसपास की 42 से ज्यादा बस्तियों का भूजल जहरीला हो चुका है. पानी पीने लायक नहीं है, लेकिन किसी को फिक्र नहीं है. गैस पीड़ितों के लिए काम करने वाले संगठन संभावना ट्रस्ट के प्रबंधक, न्यासी सतीनाथ षडंगी ने 1 दिसंबर मंगलवार को त्रासदी की 36वीं बरसी की पूर्व संध्या पर दावा किया कि परिसर में पड़े जहरीले कचरे का दुष्प्रभाव भोपाल रेलवे स्टेशन तक पहुंच गया है. यूनियन कार्बाइड कारखाने और स्टेशन की दूरी डेढ़ से दो किलोमीटर है. दो साल पहले तक जहरीले कचरे से आसपास की 48 बस्तियों के भूमिगत जल स्त्रोत प्रभावित हुए थे. लेकिन इसका भूमिगत दायरा बढ़कर भोपाल स्टेशन तक जा पहुंचा है. इससे उन रहवासियों के लिए दिक्कतें होंगी, जो इस इलाके के भूमिगत जल स्त्रोतों का उपयोग करते हैं.



और मुआवजे की दरकार

मुआवजे के मामले में कंपनी और केन्द्र सरकार के बीच हुए समझौते के बाद 705 करोड़ रुपये मिले थे. इसके बाद भोपाल गैस पीड़ित संगठनों की ओर से 2010 में एक पिटीशन सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई थी, जिसमें 7728 करोड़ मुआवजे की मांग की गई थी. इस मामले में फैसले का इंतज़ार है.



सच्ची श्रद्धांजलि

भोपाल के तमाम संगठन 25 हजार मौतों और 6 लाख प्रभावितों की संख्या को देखते हुए सरकार पर प्रदर्शनों, ज्ञापनों के माध्यम से दबाव बना रहे हैं कि डाऊ केमिकल्स से दोबारा मुआवजा राशि वसूल की जाए और पीड़ितों के बीच अंतिम मुआवजे के तौर पर बांटी जाए. लेकिन यहां पूर्व ब्रिटिश उच्चायुक्त और ब्रिटिश पर्यावरण एजेंसी के प्रमुख रहे जेम्स बेवन की एक टिप्पणी गौर करने लायक है, जिसमें वो कहते हैं कि भोपाल गैस त्रासदी विफल इंतजाम का एक सटीक उदाहरण है, जिसके लिए 1984 से लेकर आज तक किसी को जिम्मेदार (No One Responsible for Accident) नहीं ठहराया गया है. इस उदाहरण से हम यह समझ सकते हैं कि फैक्ट्री आदि में अच्छे इंतजाम न केवल लोगों को सुरक्षित रखते हैं, बल्कि पर्यावरण को भी नुकसान से बचाते हैं. यह उदाहरण बताता है कि कैसे एक खतरनाक औद्योगिक संयंत्र को दुनिया में सबसे घनी आबादी वाले शहरों में से एक के बीच बिना किसी उचित जांच, सावधानियों के संचालित करने की अनुमति दी गई.



गैस त्रासदी पर बनीं कई फिल्में 

भोपाल गैस त्रासदी, पीडि़तों की इंसाफ के लिए लड़ाई और उनकी बदहाल हुई जिंदगी पर भोपाल ए प्रेयर फॉर रेन, भोपाल एक्सप्रेस, यस मेनफिक्स द वर्ल्ड जैसी फिल्में बन चुकी हैं. इनमें हॉलीवुड अभिनेता कलपेन से लेकर नसीरुद्दीन शाह, केके मेनन जैसे कलाकारों ने काम किया. बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री बनी. ये फिल्में दुनिया भर में दिखाई गईं, लेकिन न पीड़ितों के प्रति सिस्टम जागा, न पीड़ितों की जिंदगी बदली. गैस त्रासदी की 36वीं बरसी पर इस हादसे में मृत लोगों को यही सबसे सच्ची श्रद्धांजलि होगी कि सिस्टम आरोप-प्रत्यारोपों की सियासत की बजाय जिंदा बचे पीड़ितों को सही इलाज और उनके पुनर्वास की बेहतर व्यवस्था करे और उन्हें इंसाफ दिलाए. (डिस्क्लेमरः ये लेखक के निजी विचार हैं.)
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi उत्तरदायी नहीं है.)
ब्लॉगर के बारे में
सुनील कुमार गुप्ता

सुनील कुमार गुप्तावरिष्ठ पत्रकार

सामाजिक, विकास परक, राजनीतिक विषयों पर तीन दशक से सक्रिय. मीडिया संस्थानों में संपादकीय दायित्व का निर्वाह करने के बाद इन दिनों स्वतंत्र लेखन. कविता, शायरी और जीवन में गहरी रुचि.

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First published: December 3, 2020, 12:46 am IST

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