देश में कई गांव हैं, जिन्हें आदर्श ग्राम का सम्मान मिला है, लेकिन मोहद में ऐसी क्या बात है, जो उसे अनूठा बनाती है, यह पता हमें तब चला, जब कुछ अरसा पहले वहां जाना हुआ. नरसिहंपुर जिले की करेली तहसील से महज 6 किलोमीटर की दूर पर बसे मोहद गांव की पहचान न सिर्फ देश के चंद संस्कृतभाषी गांवों में से एक गांव के रूप में होती है, बल्कि संस्कृति से संस्कारों को जोड़कर एक आदर्श ग्राम की कल्पना का यहां साकार रूप भी देखने को मिलता है. गांव के लोगों द्वारा गांव का विकास कैसे किया जाता है, उसकी मिसाल है मोहद गांव. ‘गांव का पैसा गांव में रोको, गांव की प्रतिभा गांव में रोको’ जैसी कुछ अवधारणाओं को लेकर तरक्की का रास्ता नापने वाले मोहद की एक स्पष्ट अवधारणा यह भी है कि भौतिक या आर्थिक संपन्नता से गांव के विकास का आकलन नहीं किया जा सकता, बल्कि उसका वास्तविक आकलन सहभागिता और सामाजिक समरसता से ही हो सकता है.
पर्यावरण और स्वच्छता की बानगी
भले ही आप इस गांव के लिए अनजान हों, जैसे ही इस गांव में प्रवेश करेंगे, वैसे ही आपका स्वागत प्रवेश द्वार पर बने मंदिर पर लिखी रामायण की एक चौपाई
‘प्रवसि नगर कीजै सब काजा, हृद्य राखि कौशलपुर राजा’ से होगा. आसपास से गुजरने वाला हर छोटा बड़ा शख्स नमो नमः, नमस्कार या जय सियाराम कहकर आपका अभिवादन करेगा. सीमेंट की पक्की सड़कों के दोनों ओर करीने से लगे पीपल, बरगद, अशोक, नीम, इमली, अमरूद से लगे पेड़ देखकर यह सहज ही समझ जाएंगे कि केवल सरकार के भरोसे, बिना जनभागीदारी के पर्यावरण इतना बेहतर नहीं हो सकता है. गांव के भीतर पहुंचने पर मैं भी अचंभित हुए बिना नहीं रह सका. हर घर , पूरा गांव सरकार के स्वच्छता अभियान की कहानी कहता हुआ नजर आया और मुंह से बरबस ही निकल पड़ा ‘काश....हिन्दुस्तान का हर गांव ऐसा होता.’
शराब की भटिट्यां हटीं तो खुलीं दूध डेरियां
गांव के सरपंच बेनीप्रसाद कुशवाह इस कायाकल्प के भैया जी याने सुरेन्द्र सिहं चौहान को सूत्रधार बताते हुए कहते हैं हमारा मोहद गांव दो दशक पहले तक निरक्षरों की कतार में शुमार था, लेकिन आज गांव में लगभग 90 फीसदी आबादी साक्षर है. गांव में 5 स्कूल हैं, जिसमें 3 सरकारी और 2 निजी स्कूल हैं. गांव का हर बच्चा स्कूल जाता है. इस गांव में पहले जहां 22 शराब की भटिट्यां चला करती थीं, वहां अब दूध की डेरियां चलती हैं. जिस चौपाल पर लोग जुआ खेलते थे, वहां मुक्ताकाशी वाचनालय चलते हैं.

इस गांव की हर कन्या रक्षाबंधन पर वृक्षों को राखी बांधती है
इस गांव की हर कन्या रक्षाबंधन पर वृक्षों को राखी बांधती है. गांव में हर बच्चा स्कूल जाता है, तो हर किसान बनाता है अपना खाद और बीज. गांव में एक मोहल्ला हरिजनों का भी है, जहां विराजते हैं गणपति, लेकिन स्थापना से लेकर विसर्जन तक कंधा देने वालों में ठाकुर और ब्राम्हण भी पीछे नहीं रहते. यहां के गन्ने से बना गुड़ पूरे देश में अपनी मिठास घोलता है. गांव में चोरी, खूनखराबा, नशाखोरी जैसे अपराधों का नामोनिशान नहीं है.
गांव को घर की इकाई के रूप में देखा, तो बदली तस्वीर
बेनीप्रसाद बताते हैं कि समूचे गांव को जब एक घर की इकाई के रूप में देखने का दृष्टिकोण अपनाया गया, तबसे इसकी तस्वीर और तकदीर दोनों में बदलाव का दौर शुरू हुआ. यहां हर घर वास्तु के हिसाब से बना है, हर घर में नीबू, आंवला, तुलसी, नीम, अमरूद, आम जैसे कम से कम 5 पेड़ लगे मिलेंगे. अमूमन हर घर में चबूतरे पर रंगोली, तुलसी, पूजा का स्थान, ईष्ट देव या महापुरूषों के चित्र, लिपे हुए आंगन, स्वयं का पक्का शौचालय, स्नानघर देखे जा सकते हैं. साथ ही मिलेगा छोटा सा बगीचा, जिसमें घरेलू सब्जी और फलदार पेड़-पौधे और नल लगे होंगे. गांव के घरों में छोटी गौशाला के अलावा 250 में से 130 घरों में गोबर गैस के टैंक हैं, जहां बनी गैस से धुआं रहित चूल्हों पर खाना पकता है. अधिकांश घरों में सरकार द्वारा बांटे गए उज्जवला गैस कनेक्शन हैं, जिससे लोगों को लकड़ी, कंडों से जलने वाले चूल्हों के कारण होने वाले धुएं से मुक्ति मिली है.

गांव के सरपंच बेनी प्रसाद
अपनी खाद, अपना बीज खुद पैदा करते हैं
नाडेप कम्पोस्ट पद्धति विकसित करने वाले देवराज पंडरी पांडे से मोहद गांव ने भी प्रेरणा ली और घर, गांव और खेतों का कचरा इन्हीं नाडेप के गड्डों में डाल कर अपनी कम्पोस्ट खाद गांव वाले खुद ही बना लेते हैं. बेनीप्रसाद के मुताबिक गांवों में महिला समूह बनाए गए, जिन्हें केचुएं से खाद बनाने की ट्रेनिंग दी गई है. गांव में सबसे पहले वर्मीकल्चर पद्धति से खाद बनाने का काम 2002 में उस समय उपसरपंच रहे और इंजीनियरिंग में गोल्ड मेडलिस्ट जवाहर सिंह ने शुरू किया था. गांव के लोगों को खेतों के लिए किसी बाहरी रासायनिक खाद के सहारे बिरले ही रहना पड़ता है. गौमूत्र और नीम का उपयोग कीटनाशक के तौर पर किया जाता है. गांव में गेहूं, चना, मक्का और गन्ना की फसलें होती हैं. परेशानी बस एक हैं, तो वो है जंगली सूअरों की, जो कोरोना काल के दौरान और बढ़ गए हैं. इनका गांव में आतंक इस कदर है कि एक हमले में करीब एक से डेढ एकड़ फसल बर्बाद कर देते हैं. गांव वाले सरकारी स्तर पर तमाम कोशिशों के बाद भी इस समस्या का हल नहीं निकल सका है.
हर जरूरत पर पैनी नजर
वह कहते हैं कि हम अपनी खाद, अपना बीज खुद तैयार करते हैं. फसलों को पर्याप्त पानी मिले, इसके लिए तालाब का पुनर्निर्माण कराया. फसलों को बाजार तक पहुंचाने में दिक्कत न हो, इसके लिए सीमेंट की पक्की सड़कें बनवाईं, बच्चों की पढ़ाई पूरी सुविधाओं के साथ हो, इसके लिए एक ऐसा स्कूल बनवाया, जिसके हर कमरे में बेहरतीन बैठक व्यवस्था के साथ पंखे लगे हैं और आनलाइन पढ़ाई के लिए आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल किया गया है. पहले गांव में किसी की मृत्यु होने पर अंतिम संस्कार के लिए काफी दूर जाना पड़ता था, अब गांव में ही एक छोर पर मुक्तिधाम बनवाया गया है. यह सब पंचायत के इस कार्यकाल में काम हुए. गांव का अपना पंचायत भवन है. मोहद आज प्रदेश के सबसे समृद्ध गांव में गिना जाता है, जिसे निर्मल ग्राम का दर्जा भी मिला है.

फसलों को पर्याप्त पानी मुहैया कराने के लिए तालाब का पुनर्निर्माण कराया गया.
ऐसे साकार हुई संकल्पना
गांव की इस संकल्पना को सबसे पहले भैयाजी ने साकार रूप देना शुरू किया था, जो अंग्रेजी में पोस्ट ग्रेजुएट थे तथा चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय में अवैतनिक सलाहकार थे. दो दशक पहले उन्होंने विश्वविद्यालय के जनक नानाजी देशमुख के ग्रामोदय की अवधारणा का अध्ययन किया था और अन्ना हजारे के साथ रालेगांव हरसिद्धि में भी काफी वक्त बिताया. उसके बाद मोहद में उन्होंने ग्राम प्रकल्प का काम शुरू किया. उन्होंने गांवों मे शराब की भट्टी हटाने के लिए आंदोलन भी किये, जिसकी वजह से उन्हें और उनके पुत्रों को 3 साल मुकदमें भी झेलने पड़े और कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाने पड़े, लेकिन आज उन्हीं जगहों पर दूध की डेरियां चलती हैं, गांव में खपत के बाद जितना भी दूध बचता है, वह करेली तहसील में इकट्ठा होकर बाकी जगह आपूर्ति के लिए चला जाता है. गांव में दर्जनों घरों में ट्रेक्टर हैं, कुओं की संख्या भी एक सैकड़ा से ज्यादा है, लेकिन पशुधन की बेकद्री नहीं है, आज भी खेती के कार्य में इनका इस्तेमाल किया जाता है. वह कहते हैं कि यह बात सच है कि अब पहले जितना पशुधन गांव में नहीं रहा. गन्ने की पैदावार भी मोहद गांव में काफी अच्छी होती है, और यहां का गुड़ करेली मंडी के रास्ते होता हुआ पूरे देश में अपनी मिठास घोलता है.
‘चरैवेति चरैवेति प्रचलाम् गच्छामि’
स्व. सुरेन्द्र सिहं चौहान के पुत्र विक्रम सिंह चौहान कहते हैं कि समवेत श्रम के बूते पर ही ग्राम में कोई बेरोजगार न रहे, इसके लिए हस्तशिल्प, बांस शिल्प, लकड़ी और मूर्तिकला, फर्नीचर, मोटर वाइंडिंग, ट्रेक्टर के इंजन दुरूस्त करने के काम लोगों को सिखाए गए. इससे की लघुउद्योग भी गांव में खड़े हो गए हैं. इस काम को हम समाजसेवा के भाव से आगे बढ़ा रहे हैं. संस्कारित, उर्जावान गांव की संकल्पना के साथ भैयाजी की एक संकल्पना यह भी थी, कि गांव में कोई निठल्ला न रहे, कोई भूखा न रहे, जिसे हम सब मिलकर साकार करने में सफल हुए है और
‘चरैवेति चरैवेति प्रचलाम् गच्छामि’ के सूत्रवाक्य रूपी श्लोक का अनुकरण करते हुए आगे बढ़ रहे हैं.