गुमनाम गांव की “आशा” दुनिया में छा गई

कोरोना के खिलाफ अपने अनोखे पोस्टर वार से रंजना और गुरगुदा गांव दोनों का ही नाम दुनिया के नक्शे पर छा गया. कल तक सामान्य आशा कार्यकर्ता कहलाने वाली रंजना आज अचानक मिसाल बन गईं हैं.

Source: News18Hindi Last updated on: November 18, 2020, 5:52 am IST
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गुमनाम गांव की “आशा” दुनिया में छा गई
बैचलर और आर्टस (B.A.) में स्नातक रंजना गुरगुदा गांव में सन् 2011 से आशा कार्यकर्ता के रूप में काम कर रही हैं.
कल तक वो गांव गुमनाम था. जिले के लोग भी नहीं जानते थे कि इस नाम का कोई गांव भी मध्यप्रदेश में हैं, लेकिन आज यह गांव अचानक विश्वपटल पर सुर्खियों में आ गया. यह संभव हुआ वहां की एक आशा कार्यकर्ता (Social Health Activist) रंजना द्विवेदी की बदौलत, जिसकी कहानियां इंटरनेशनल संगठन नेशनल पब्लिक रेडियो (NPR.ORG) वाशिंगटन से सुनाई और मैगजीन में छापी गईं. एनपीआर ने रंजना को अपने अनूठे अंदाज से कोरोना के खिलाफ संघर्ष करने और नेतृत्वकारी भूमिका निभाने वाली विश्व की 19 में से पहली तीन प्रभावशाली महिलाओं (Impressive Womens) की सूची में शामिल किया है. रंजना आज एक मिसाल बन गई हैं, उनके बनाए सामान्य से दिखने वाले पोस्टर्स सोशल मीडिया प्लेटफार्म ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम पर छाए हुए हैं. उनके अलावा इस सूची में आइसलैंड की स्वास्थ्य निदेशक अल्मा डि मोलेर (Alma de Moler) और अफगानिस्तान की शीबा शफाक (Sheeba Shafaq) शामिल हैं, जो जिंदगी पर खतरे के बाद अपना देश छोड़कर कैलिफोर्निया आ गईं और आजकल कोविड-19 परीक्षण इकाई में काम कर रही हैं.



अचानक अफसरों से सम्मान मिलने और मीडिया में उनकी और गांव की पूछपरख बढ़ जाने से खुश रंजना द्विवेदी हमसे चर्चा में कहती हैं कि लोगों के स्वास्थ्य के प्रति जगाना हमारा काम है, यह हम पहले भी करते थे. न कोई अहसास था, कि हम यहां बियाबान और खतरनाक जंगल में काम करके कोई बड़ी बात कर रहे, आगे भी ऐसे ही काम करते रहेंगे. लोगों के चेहरों पर खुश देखकर हमें खुशी मिलती हैं, इसीलिए आशा कार्यकर्ता बने.



कहां है गुरगुदा गांव

बता दें कि मध्यप्रदेश के रीवा जिला मुख्यालय से करीब 70 किलोमीटर दूर जवा ब्लाक के पहाड़ों, जंगलों, जानवरों और हथियारबंद लुटरों की दहशत घिरा एक छोटा सा गांव है गुरगुदा (Village Gurguda) . पास से ही गुजरती है टमस नदी. इसी गांव में रंजना द्विवेदी एक आशा कार्यकर्ता (social health activist) के रूप में काम करती है. कोरोना के खिलाफ अपने अनोखे पोस्टर वार से रंजना और गुरगुदा गांव दोनों का ही नाम दुनिया के नक्शे पर छा गया. कल तक सामान्य आशा कार्यकर्ता कहलाने वाली रंजना आज अचानक मिसाल बन गईं हैं.



अपना गांव-अपने किरदार

यूं तो पूरे देश में करीब लाख आशा कार्यकर्ता हैं, जो राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत शहरी और ग्रामीण इलाकों में राज्यों के स्वास्थ्य कार्यक्रमों, मातृ-शिशु सेवाएं, परिवार कल्याण, गर्भवती महिलाओं की देखभाल, कुपोषण नियंत्रण, सर्वेक्षण, डेंगू, मलेरिया, टीकाकरण जैसे 60 सरकारी स्वास्थ्य कार्यक्रमों में अपनी सेवाएं दे रही हैं. आशा कार्यकर्ताओं के कामों की इस लंबी सूची में अब कोरोना भी शामिल हो गया है. ये सभी अपने अपने-अपने तरीकों से कोरोना संक्रमण से बचाव के लिए लोगों को जागरूक कर रही हैं. इन्हीं में से एक गुरगुदा गांव की आशा कार्यकर्ता रंजना द्विवेदी हैं, जिन्हें लोग “आशा दीदी” के नाम से पुकारते हैं. कोरोना के प्रति लोगों को जागरूक करने के मकसद से उन्होंने खुद तैयार किए पोस्टरों को लड़ाई का हथियार बनाया. पोस्टरों के लिए उन्होंने गांव से ही किरदार निकाले और उनके बीच से ही कहानियां रचीं. इन पोस्टरों से वह न सिर्फ गांव वालों को कोरोना व अन्य बीमारियों के बारे में समझाती हैं, बल्कि इन पोस्टरों को ट्विटर, फेसबुक, व्हाट्सएप जैसे सोशल मीडिया जैसे प्लेटफार्म्स पर भी साझा करती हैं, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों को जागरूक कर सकें. ट्विटर के रास्ते चले पोस्टर भारत सरकार के ट्विटर हैंडल के मार्फत वाशिंगटन की एनपीआर संस्था की नजर में आए. रंजना भारत की ओर से अकेली प्रतिनिधि हैं, जिन्हें नेशनल पब्लिक रेडियो ने दुनिया भर की उन 19 महिलाओं की डाक्यूमेंट्री में दिखाया है, जिन्होंने अपनी चुनौतियों को साझा करते हुए बताया कि वह अपने प्रयासों से किस तरह कोरोना की भयावह महामारी को मात दे रही हैं. इन महिलाओं की स्टोरीज सितंबर से अक्टूबर माह के दरम्यान दुनिया के सामने लाई गईं. पहले दौर में 19 प्रभावशाली महिलाओं की सूची में शुमार होने के बाद रंजना की दूसरी स्टोरी आई और वह दुनिया की शीर्ष 9 महिलाओं में और फिर तीसरी स्टोरी प्रकाशित हुई, जिसमें तमाम कठिनाईयों के बावजूद स्वास्थ्य सुरक्षा के क्षेत्र में काम करने वाली विश्व की 3 प्रभावशाली महिलाओं की सूची में तीसरा स्थान मिला.



हमने रंजना से उनके संघर्ष, उनकी चुनौतियों, कोरोना महामारी से जंग और उपलब्धियों को लेकर बात की. उन्होंने हमें बताया कि रीवा के जवा ब्लाक में 30-35 किलोमीटर दूर दुर्गम पहाड़ियों, जंगलों के बीच बसा गांव है गुरगुदा. गांव में न यहां कोई आदिवासी है, न अनुसूचित जाति, न सामान्य वर्ग, केवल पाल और केवट जाति के लोग रहते हैं, जो पिछड़े वर्ग में आते हैं. गांव तक पहुंचने के लिए विशाल टमस नदी पार करनी होती है, जिस पर पावर प्रोजेक्ट चल रहा है और बिजली बनाई जाती है.



पहले तो महिलाएं डरती थीं, जंगल भाग जाती थीं

बैचलर और आर्टस (B.A.) में स्नातक रंजना गुरगुदा गांव में सन् 2011 से आशा कार्यकर्ता के रूप में काम कर रही हैं. वह हिन्दी के साथ मिली-जुली बघेली भाषा की मिठास भरी बोली में बताती हैं “जब हम आशा कार्यकर्ता की नौकरी करने गांव गए तो वहां की महिलाएं बिल्कुलै नहीं सुनती थीं, डरती थीं टीकाकरण के नाम से. बोलती थीं, टीका से बुखार आता है, इससे कुछ नहीं होता, हमारे बच्चे सब स्वस्थ हैं. हम समझाते, तब भी नहीं मानती, हम थक हार के वापस आ जाते. रंजना कहती हैं “कई महिलाएं तो घर में रहकर भी जंगल में लकड़ी काटने जाने की बात बच्चों से कहला देती थीं या पास नहीं आती थीं, देखने पर छिप जाती थीं या इंजेक्शन के डर से जंगल भाग जाती थी, कभी-कभी बहुत झगड़ा करती थीं, हमें डांटती थीं. हम उनकी डांट को नजरअंदाज करते और हर बार समझाते और उदाहरण देते हुए उनकी भाषा में बताते कि बच्चों को टीका न लगने से क्या-क्या होता है, फिर पोस्टर बनाकर उसके माध्यम से बताते. पोलियो के बारे में पोस्टरों से समझाया कि यह बीमारी कितनी भयानक होती है. उनसे कहते कि बच्चों की जिंदगी न बरबाद करिए. सारे टीके लगे होंगे, तो बच्चे कहीं भी रहेंगे तो जीवन स्वस्थ रहेगा. 8-9 साल की मेहनत के बाद अब गुरगुदा की महिलाएं बहुत समझदार हो गई हैं, जो कहते हैं, मान लेती हैं.“



नदी में गिरीं रंजना, लेकिन हार नहीं मानी

इस बीच जनवरी की कड़कड़ाती ठंड में हम नदी में दो बार गिरे भी, निमोनिया भी हो गया, लेकिन हमने हार नहीं मानी. रंजना कहती हैं कि शुरूआत में बहुत दिक्कत हुई थी, लेकिन धीरे-धीरे टीकाकरण और अन्य बीमारियों के इलाज के लिए समझाने, महिलाओं को इलाज, प्रसूति के लिए नाव से टमस नदी को पार कराके अस्पताल ले जाने की सक्रियता के चलते 8-10 साल की मेहनत के बाद अब महिलाएं खुद आने का इंतजार करती हैं.



बहुत खतरनाक है इलाका

रंजना खुद जवा ब्लाक के ही कौनी रूकौली गांव में रहती हैं. वह बताती हैं कि गुरगुदा गांव तक पहुंचने के लिए दो तरफ से रास्ते हैं. एक रास्ता कम दूरी वाला है, लेकिन वहां से नहीं जाते, क्योंकि यह रास्ता घने जंगल से होकर गुजरता है. जंगल में हथियार बंद लुटेरों, डाकुओं के साथ-साथ जंगली जानवरों का बहुत ज्यादा खतरा रहता है. दूसरा टमस नदी वाला रास्ता लंबा जरूर है, पैसा भी काफी खर्च होता है. नाव से नदी पार करने के बाद 3-4 किलोमीटर का रास्ता पैदल और पहाड़ के किनारे-किनारे तय करना होता है, रास्ते में छोटी-छोटी बस्तियां पड़ने की वजह से इलाका सुरक्षित है. गांव पहुंचते हुए बहुत थकावट हो जाती है, लेकिन जब हम महिलाओं से मिलते हैं और उनकी खुशी देखते हैं, तो सारी थकावट खत्म हो जाती है.



रंजना बताती है कि जैसे शुरूआत में टीकाकरण में दिक्कत आई थी, वैसे ही कोरोना महामारी के दौरान आई. कोरोना संक्रमण फैला तो मेहनत मजदूरी, निजी उद्योगों के लिए दूसरे शहरों, प्रदेशों में गए स्त्री-पुरुष अपने-अपने लौटने लगे, तो हम गांव जाकर ऐसे परिवारों को आने वालों से दूरी बनाकर रखने, मास्क लगाने-हाथ धोने के लिए समझाने लगे. बाहर से आने वालों की जानकारी रखने, ब्लाक में जांच कराने, स्कूल और पंचायत भवन में 14 दिन तक ऐसे लोगों को क्वारंटीन रखने कि जिम्मेदारी भी हम पर ही थी. क्वारंटीन के बाद जब लोग घर आ जाते तो हम कहते कि जब भी घर से निकलो तो मास्क लगाकर निकलो और भीड़भाड़ वाली जगह में मत जाओ, कोरोना के शिकार हो सकते हो. कई लोग तो हमारी बातों पर हंस भी देते, मजाक भी उड़ाते और कहते कि कोरोना-वोराना कुछ नहीं होता. ऐसे में हमें उनको डांटना भी पड़ा, कहा कि इसे हल्के में मत लो. हमने गांव कोई भी चीज छूने पर बार-बार साबुन से हाथ धोने के लिए प्रोत्साहित भी किया.



जोखिम लेकर पूरी जिम्मेदारी से काम किया

रंजना बताती हैं कि यह वो समय था, जब लाकडाउन के चलते लोगों को घर से निकलने की मनाही थी, लेकिन हमने सावधानी के साथ जोखिम लेते हुए पूरी जिम्मेदारी से काम किया. महिलाओं को हमने ज्यादा टारगेट किया, क्योंकि महिलाएं जिम्मेदारी से काम करती हैं. कोरोना को लेकर लोगों को जागरूक करने के लिए हमने पोस्टर का इस्तेमाल किया. मैं पेंटिंग करना जानती थी, इसलिए लोगों को समझाने के लिए लाइन स्केच वाले पोस्टर बनाए. पोस्टर्स में गांव के ही किरदार लेकर गांव की ही कहानियां बनाईं. पोस्टरों माध्यम से संदेश दिया, कि “देखो रवि (काल्पनिक नाम) ने गलती की, इसलिए आज उसे कोरोना हुआ, इसलिए गलती मत करो. स्वच्छ रहेंगे, साफ रहेंगे तो स्वस्थ रहेंगे. मास्क लगाकर रहेंगे और सोशल डिस्टिंसंग का पालन करेंगे तो हमारे गांव में कोरोना नहीं आएगा. पोस्टरों पर लिखा कि कोरोना से बचने के लिए क्या करना और क्या नहीं करना है.“ मेरे 21 साल के बेटे ने इन पोस्टरों को बनाने और सोशल मीडिया पर डालने में मदद की. पोस्टरों के माध्यम से समझाने का यह सिलसिला लगातार जारी है. यही वजह है कि गुरगुदा गांव में आज तक कोरोना का एक भी मरीज नहीं निकला, जबकि हमारे ब्लाक के .आसपास के बहुत सारे गांवों में कोरोना के मरीज पाए गए, लेकिन गुरगुदा में नहीं.



दुनिया में नाम होने से रंजना खुश

दुनिया में गुरगुदा की कोरोना से जंग में सफलता की कहानी वाशिंगटन की एनपीआर की मैगजीन में छपने और डाक्यूमेंट्री प्रसारित होने से रंजना बेहद खुश हैं. वह कहती हैं “पोस्टर बनाकर हम पहले भी लोगों को जागरूक कर रहे थे, लेकिन सोशल मीडिया पर शेयर नहीं करते थे. कोरोना महामारी आने पर इससे बचने और सावधान रहने की बात लोगों तक पहुंचाने के लिए पोस्टर बनाए, सोशल मीडिया पर डाले, लेकिन हमारा और गांव का इतना नाम होगा, कभी सोचा न था. रंजना के मुताबिक जिला, ब्लाक के अधिकारी बहुत खुश हैं, हमें बधाई देते हुए कहते हैं कि जो काम हम अधिकारी होकर नहीं कर पाए, वह आशा कार्यकर्ता के रूप में हमारी एक छोटी सी कड़ी “आशादीदी” रंजना ने हमें विश्व में शामिल करा दिया. रंजना कहती हैं “हमारे जिले, हमारे ब्लाक, हमारे गांव, हमारे देश का नाम ऊंचा हो गया, इससे ज्यादा और क्या चाहिए. सबसे बड़ी बात ये है कि हम किसी मकसद के काम आ सके. किसी के चेहरे पर खुशी देखने से मुझे खुशी मिलती है, इसलिए मैं आशा कार्यकर्ता का काम करती हूं. हर महिला में मैं खुद को और हर बच्चे में अपने बच्चों का अक्स देखती हूं.“



गांव की उपलब्धि

इसे गांव की उपलब्धि ही कहेंगे कि गुरगुदा गांव में रंजना के रहते पिछले 10 साल में न मातृ मृत्यु हुई है, न शिशु मृत्यु. गांव में लिंग भेद जैसी बुराई को भी खत्म करने में बड़ी कामयाबी मिली है. गांव में कोई भी बेटा-बेटी में भेद नहीं करता.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi उत्तरदायी नहीं है.)
ब्लॉगर के बारे में
सुनील कुमार गुप्ता

सुनील कुमार गुप्तावरिष्ठ पत्रकार

सामाजिक, विकास परक, राजनीतिक विषयों पर तीन दशक से सक्रिय. मीडिया संस्थानों में संपादकीय दायित्व का निर्वाह करने के बाद इन दिनों स्वतंत्र लेखन. कविता, शायरी और जीवन में गहरी रुचि.

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First published: November 18, 2020, 5:52 am IST

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