अपनी प्राकृतिक सौंदर्य के साथ आच्छादित मप्र के जंगल और उनमें बसने वाले वन्य प्राणी पूरे देश के वन प्रेमियों, पर्यटकों को आकर्षित करते हैं, लेकिन इन दिनों जंगलों में बढ़ती शिकारियों की सक्रियता से वन्य प्राणियों (Wildlife) की जान खतरे में हैं. यहां जंगलों में जिस तेजी से बाघों का शिकार बढ़ रहा है, उनकी मौतें हो रहीं है, उससे हो सकता है कि सबसे ज्यादा बाघों की वजह से टाइगर स्टेट (Tiger State) का तमगा पाकर कल तक इठलाने वाले मप्र से भविष्य में यह तमगा छिन जाए, क्योंकि 2018 की बाघों की गणना में मप्र 526 बाघों के साथ देश में अव्वल था और कर्नाटक 524 बाघों के साथ टाइगर स्टेट के दर्जे से बस दो कदम दूर रह गया था. यह तस्वीर इसलिए दिखाना जरूरी है कि पिछले 11 महीनों में राज्य में 25 बाघों की मौत हो चुकी है, जबकि इसी अवधि में कर्नाटक में केवल 4 बाघों के शिकार हुए. यह तथ्य राज्य के वन विभाग और उसके खुफिया तंत्र की सजगता और मुस्तैदी की भी पोल खोलता है. बड़े दांतों की लालच में हाथी तस्करों का निशाना बन रहे हैं, तेंदुए कुत्तों की तरह मारे जा रहे हैं.
बीते 24 नवंबर को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान मशहूर टाइगर रिजर्व फारेस्ट (Tiger Reserve Forest) बांधवगढ़ के जंगलों में कुर्सी-टेबल डालकर मप्र को आत्मनिर्भर बनाने का मंथन करते हए और राज्य में वाइल्ड लाइफ टूरिज्म को प्रमोट करने, बफर जोन में सफर योजना के तहत 24 नए टूरिज्म जोन बनाने की बात कर रहे थे, तब संभवतः उनके सामने बाघों और दीगर वन्य प्राणियों की बढ़ती मौतों का मसला नहीं लाया गया. बता दें कि बांधवगढ़ के जंगलों में पिछले डेढ़ महीने में 3 बाघों और 2 शावकों समेत 5 बाघों की मौतें हो चुकी हैं. कयास यह भी लगाए जा रहे हैं कि मुख्यमंत्री को हालातों की भनक है, तभी उन्होंने वन विभाग की समीक्षा और अफसरों के साथ बैठक के लिए बांधवगढ़ को चुना, ताकि अमला चौकस हो जाए. मप्र एक बार फिर टाइगर स्टेट के तमगे की दौड़ में है, इसलिए सरकार ज्यादा फिक्रमंद नजर आ रही है.
स्थिति चाहे जो रही हो, लेकिन स्थानीय और नेशनल मीडिया ने वन अफसरों से यह सवाल जरूर उठाया कि अगर वन्यप्राणी सुरक्षित हैं, तो कई गांवों (Villages) में शिकारियों को पकड़ने के लिए उनकी पहचान के लिए पोस्टर क्यों लगे हैं? इस पर एक अफसर का जवाब था, कि यह सच है कि इन दिनों 5-6 बाघों की मौत हुई है. हम सभी मामलों की तह तक जाने और खोजने का प्रयास कर रहे हैं, ताकि इस तरह मौतें दोबारा न हों.
हालांकि वन्य प्राणी विशेषज्ञ यह सवाल जरूर उठा रहे हैं कि जब वनों में वन्यप्राणी ही नहीं बचेंगे, तो वाइल्ड लाइफ टूरिज्म बढ़ेगा कैसे?
बांधवगढ़ में वन्य प्राणियों की सबसे ज्यादा मौतें
बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व फारेस्ट में पिछले 8 महीने में 11 बाघों की मौत हो चुकी है. तीन तेंदुए और दो हाथी भी मारे जा चुके हैं. हैरान करने वाली बात यह रही कि इस वर्ष केवल 3 बार में सात बाघों की मौत हुई, इसमें 6 शावक शामिल थे. दो बार एक साथ दो-दो शावकों की मौत हुई, जबकि तीसरी बार में दो शावक और उनकी मां सोलो बाघिन-42 मौत का शिकार बने. बाघिन के दो शावक अभी भी लापता है. यह घटनाएं 14 जून, 10 अक्टूबर और 17 अक्टूबर को हुई. 5 बाघों का शिकार तो फारेस्ट रिजर्व एरिया के भीतर हुआ. वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन सोसायटी आफ इंडिया ( WPSI) ने शिकारियों को पकड़वाने के लिए 25000 का इनाम भी घोषित किया था. बांधवगढ़ में बाघों की यह मौतें सहज नहीं थी, क्योंकि किसी का शव जमीन में दबा मिला, तो किसी को मारने के बाद झाड़ियों में छिपा दिया गया था. बांधवगढ़ में बाघों की मौतों के सबसे ज्यादा मामले संदेहास्पद पाए गए हैं.
इस साल तो टूटे सारे रिकॉर्ड
बाघों के मामले में दो बातों ने इस साल रिकॉर्ड तोड़ा. पहला तो यह मप्र में जनवरी से मार्च तक एक भी बाघ की मौत की खबर नहीं थी, लेकिन अप्रैल के एक महीने में ही बाघों की सबसे ज्यादा मौतें होने का रिकार्ड भी मप्र ने ही तोड़ा. कोरोना महामारी के चलते लाकडाउन के दौरान एक अप्रैल से 22 अप्रैल तक 8 और 2 मई को एक और बाघ शावक याने कुल 9 बाघों की मौत की खबर ने सबको हैरान करके रख दिया. इसी तरह जून और अक्टूबर के महीने में अकेले बांधवगढ़ में सात बाघों की मौतों ने वन विभाग को हिलाकर रख दिया था. मप्र में ज्यादा मौतें बताती है कि बाघ प्रबंधन में कितनी लापरवाही और उदासीनता बरती जा रही.
हाथियों, तेदुओं पर संकट
संकट केवल बाघ जैसे वन्यप्राणी पर ही नहीं है, बल्कि हाथियों और तेंदुओं (Elephants and leopards) पर भी है. केवल बांधवगढ़ वन परिक्षेत्र की बात करें तो 7 मई को यहां एक 11 वर्षीय हाथी की मौत हो गई, वहीं 29 अगस्त को एक जंगली हाथी की करंट की चपेट में आने से मौत हुई. इसके अलावा 24 नवंबर को वनमंडल के वन परिक्षेत्र बरगी में एक हाथी का दांत पाने के लिए बिजली का करंट लगाकर उसका शिकार किया गया. करंट से हाथी की सूंड झुलस गई और थोड़ी दूर जाकर वह गिर पड़ा. छत्तीसगढ़ के रास्ते उसके साथ आया एक अन्य हाथी अभी तक लापता है. शिकार की पुष्टि होने के बाद वन विभाग ने तीन आरोपियों को गिरफ्तार किया है. हाथियों की मौतों के पीछे एक दूसरा मसला यह है कि बांधवगढ़ हो या बरगी, इन रिजर्व फारेस्ट में उड़ीसा, झारखंड और छत्तीसगढ़ से आए हाथियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है. यह हाथी गांवों में खेतों मे घुस जाते हैं और फसल को नष्ट कर देते है. इससे ग्रामीण बहुत परेशान रहते हैं, शिकायत के बाद भी वन विभाग उनकी कोई मदद नहीं कर पाता, लिहाजा मनुष्य और वन्यप्राणियों में टकराव सामने आता है.
इसी प्रकार मप्र के किसी भी जंगल में तेंदुए सुरक्षित नहीं हैं. भोपाल, मंडला, चंदेरी, सतपुड़ा टाइगर रिजर्व के जंगलों में बड़े पैमाने पर तेंदुओं का शिकार और उनकी विभिन्न कारणों से मौतें सामने आई हैं. वास्तव में मप्र में तेंदुओं की संख्या ढाई से तीन हजार के आसपास अनुमानित है. यह संख्या देश के किसी भी फारेस्ट एरिया में मौजूद तेंदुओं की संख्या से कहीं ज्यादा है, लेकिन उनका शिकार भी बड़े पैमाने पर हो रहा, जिसका कोई एकमुश्त आंकड़ा उपलब्ध नहीं है. अलबत्ता हर दो-चार दिन में किसी न किसी फारेस्ट रेंज से तेंदुओं के मरने की खबरें आती रहती हैं.
शिकारियों के पनाहगाह बने जंगल
वन विभाग वन्यप्राणियों की मौतों के कारण चाहे जो भी बताए, लेकिन सूत्र बताते हैं कि मप्र के बांधवगढ़, पन्ना, सिवनी, मंडला, भोपाल, होशंगाबाद, रायसेन के जंगल शिकारियों के पनाहगाह बन गए हैं. देश के दूसरे राज्यों में टाइगर कारिडोर बड़े जंगलों में फैले हुए हैं, लेकिन मध्यप्रदेश में ऐसा नहीं है, इसलिए शिकारी घात लगा लेते हैं. बताते हैं कि सीधी जिले में संजय गांधी, मंडला जिले में कान्हा किसली, सिवनी जिले में पेंच, पन्ना में पन्ना नेशनल पार्क और उमरिया जिले में बांधवगढ़ नेशनल पार्क, यह सभी छोटे-छोटे टुकड़ों और वनक्षेत्रों में बंटे हैं. इसलिए शिकारयों को शिकार में आसानी होती है. राज्य में महाराष्ट्र के शिकारियों का बड़ा नेटवर्क सक्रिय है. महाराष्ट्र के लगभग एक दर्जन शिकारी ऐसे हैं, जो कई बार गिरफ्तार होने के बाद मध्यप्रदेश के शिकारियों से अपने नेटवर्क का पर्दाफाश कर चुके हैं. यह शिकारी गिरोह बाघ की खाल, नाखून, दांत बेचकर बड़ी रकम आसानी से कमा लेते हैं.
मौतों का बड़ा कारण सरकारी उदासीनता
मध्यप्रदेश में बाघों के संरक्षण के मकसद से 8 साल पहले स्पेशल टाइगर प्रोटेक्शन फोर्स(STPF) बनाने की योजना बनी थी, जिसके तहत हथियार बंद सुरक्षा दस्तों को ट्रेनिंग देकर जंगल में उतारा जाना था, लेकिन इतनी लंबी अवधि बीत जाने के बावजूद कुछ हुआ नहीं. कोरोना महामारी और राजनीतिक उथल-पुथल से भरे रहे इस दौर में तो सारे काम ठप्प पड़े हैं.
ब्लॉगर के बारे मेंसामाजिक, विकास परक, राजनीतिक विषयों पर तीन दशक से सक्रिय. मीडिया संस्थानों में संपादकीय दायित्व का निर्वाह करने के बाद इन दिनों स्वतंत्र लेखन. कविता, शायरी और जीवन में गहरी रुचि.
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